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चुनाव 2024: विपक्षी एकता की मुहिम तेज, सीन में क्यों नहीं दिख रहे मायावती और ओवैसी?

नई दिल्‍ली। लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर डेढ़ साल पहले से ही सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. बीजेपी जीत की हैट्रिक लगाने के लिए बेताब है तो विपक्षी खेमा नरेंद्र मोदी को फिर सत्ता में आने से रोकने के लिए मशक्कत कर रहा है. ममता बनर्जी से लेकर केसीआर और नीतीश कुमार तक बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद कर रहे हैं, जिसके लिए गैर-बीजेपी पार्टियों के नेताओं से मुलाकात की जा रही है. विपक्ष की इस सारी कवायद में न तो बसपा प्रमुख मायावती कहीं नजर आ रही हैं और न ही AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी को जगह मिल रही.

नीतीश के एजेंडे में क्या मायावती-ओवैसी नहीं
बता दें कि एनडीए से नाता तोड़ने के बाद विपक्षी एकता की कोशिश में जुटे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तीन दिन के अपने दिल्ली प्रवास के दौरान बीजेपी विरोधी 10 नेताओं से मुलाकात की है. नीतीश राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी, डी राजा, शरद यादव, कुमारस्वामी और ओपी चौटाला से मिले हैं. इसके अलावा नीतीश ने पटना में केसीआर से मुलाकात की हैं तो ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन और जयंत चौधरी से फोन पर बात हो चुकी है, लेकिन न तो मायावती से अभी तक उनकी बात हुई और न ही बसपा के बड़े नेता से मुलाकात. ऐसे ही असदुद्दीन ओवैसी से नहीं मिले.

पश्चिम बंगाल सीएम ममता बेनर्जी अपना अलग ताल ठोक रही हैं और आए दिन दिल्ली का दौरा करके विपक्षी नेताओं से मेल-मिलाप कर अपनी पीएम उम्मीदवारी की दावेदारी को मजबूत कर रही है. वहीं, अरविंद केजरीवाल और केसीआर अपनी अलग ही ढपली बजा रहे हैं. केसीआर भी दिल्ली से लेकर बिहार तक दौरा करके विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर चुके हैं तो केजरीवाल दिल्ली और पंजाब चुनाव जीतने के बाद हौसले बुलंद हैं. ऐसे में विपक्षी दलों को साथ लेने के लिए सक्रिय हैं, लेकिन मायावती और ओवैसी ने नहीं मिल रहे हैं.

मायावती क्यों विपक्षी खेमे के साथ नहीं खड़ीं 
2024 के चुनाव को लेकर विपक्षी खेमे से जो कवायद हो रही है, उससे मायावती खुद को बाहर रखे हुए हैं. मायावती अपना स्टैंड 2024 के चुनाव को लेकर अभी तक किसी तरह के संकेत नहीं दिए हैं और न ही किसी विपक्षी कवायद में खड़ी दिखी हैं. बसपा के नेता भी कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में जो भी कोशिश विपक्ष को जोड़ने की हो रही है, उसमें बसपा से ज्यादा सपा को तवज्जे मिल रही है.

नीतीश कुमार ने अखिलेश यादव से मुलाकात के बाद उन्हें यूपी में महागठबंधन को लीड करने की जिम्मेदारी सौंपी है, जिसके चलते साफ है कि मायावती के लिए कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बचा. ऐसे में बसपा विपक्षी एकता की कवायद में अलग-थलग पड़ गई है.

मायावती की सियासी ताकत 
बसपा प्रमुख मायावती देश में दलितों को सबसे बड़ी नेता हैं, लेकिन लगातार उनका सियासी आधार सिमटता जा रहा है. ऐसे में मायावती ने 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी और 10 सांसद जीतने में कामयाब रहे थे. बसपा ने देश भर में 351 कैंडिडेट उतारे थे, लेकिन जीत उन्हें यूपी में मिली थी. हालांकि, एक समय बसपा यूपी से बाहर हरियाणा, पंजाब और एमपी में जीत दर्ज करती रही है. बसपा का दलित वोटबैंक अब मायावती से छिटक कर बड़ा हिस्सा कहीं बीजेपी के साथ तो कहीं दूसरी पार्टियों के साथ चला गया है.

मायावती की राजनीति देखें को बीजेपी और नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की दूसरी पार्टियों की तरह खुलकर मोर्चा खोलने के बजाय कई मुद्दों पर साथ खड़ी नजर आती हैं. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भी मायावती ने एनडीए का समर्थन किया था. ऐसे में विपक्षी दल बसपा पर बीजेपी की बी-टीम का आरोप लगाती रही है. यही वजह है कि विपक्षी खेमे की मोर्चाबंदी में कहीं भी नजर नहीं आती.

मायावती के अभी तक स्टैंड से लगता है कि यूपी विधानसभा चुनाव की तरह ही लोकसभा चुनाव में भी अकेले किस्मत आजमा सकती हैं.

ओवैसी से क्यों सेकुलर दल बना रहे दूरी
2024 के चुनाव को लेकर विपक्षी की ओर से जो सियासत हो रही है, उसमें असदुद्दीन ओवैसी को भी अलग-थलग पड़े नजर आ रहे हैं.  ममता बनर्जी से लेकर नीतीश कुमार, केजरीवाल और कांग्रेस तक असदुद्दीन ओवैसी से दूरी बनाए हैं. हालांकि, ओवैसी देश के तमाम राज्यों में अपनी सियासी आधार बढ़ा रहे हैं, जिसके चलते वो खुद को विपक्षी खेमे के साथ जोड़कर रखना चाहते हैं.

इसके बावजूद विपक्ष उन्हें साथ नहीं ले रहा. इसके पीछे उनकी मुस्लिम कट्टर छवि, जिसके चलते कोई भी दल उन्हें साथ लेने के लिए तैयार नहीं है.

ओवैसी अकेले चुनावी मैदान में उतरते हैं, तो मुस्लिम मतों को अपने पाले में लाकर सेकुलर दलों का सियासी खेल बिगाड़ देते हैं. अगर उन्हें मुस्लिम वोट नहीं भी मिलते तो वो अपनी राजनीति के जरिए ऐसा ध्रुवीकरण करते हैं कि हिंदू वोट एकजुट होने लगता है. सेकुलर दल अगर ओवैसी के साथ मैदान में उतरे तो इनपर मुस्लिम परस्त और कट्टरपंथी पार्टी के साथ खड़े होने का आरोप लगेगा जो मौजूदा दौर में राजनीति चौपट करने के लिए पर्याप्त है. यह वजह रही है कि ओवैसी से यूपी से लेकर बिहार और बंगाल तक में किसी ने गठबंधन नहीं किया था और लोकसभा में कोई हाथ नहीं मिला रहा.

ममता ने भी बनाए रखी ओवैसी से दूरी
वहीं, ममता बनर्जी ने 2021 के बंगाल चुनाव जीतने के बाद दिल्ली दौरा किया था. इस दौरान उन्होंने राहुल-सोनिया से लेकर अखिलेश यादव, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, डीएमके की कनिमोझी, आरजेडी नेता और सपा के रामगोपाल यादव से मुलाकात की थी.

इसके बाद ममता लखनऊ जाकर अखिलेश यादव से भी मिली थी. राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने 22 विपक्षी दलों के पत्र लिखकर साथ आने का न्योता दिया था. शिवसेना से लेकर लेफ्ट पार्टियों, बीजेडी, जेएमएम, कांग्रेस, सपा और आरजेडी नेता शामिल हुए थे, लेकिन बैठक से आम आदमी पार्टी, बीजेडी, बसपा जैसे दलों ने पूरी तरह दूरी बनाए रखी थी.

केसीआर की मायावती से दूरी, ओवैसी की नजदीकी
तेलंगाना के सीएम केसीआर भी 2024 में विपक्षी एकता बनाने की कवायद कर रहे हैं. इस कड़ी में उन्होंने लगातार विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं. केजरीवाल से लेकर शरद पवार, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और कुमारस्वामी तक से मिल चुके हैं, लेकिन मायावती और बसपा के किसी नेता से उनकी मुलाकात नहीं हुई.

हालांकि, ओवैसी के साथ केसीआर के संबंध अच्छे हैं, क्योंकि तेलंगाना में उनकी सरकार को AIMIM समर्थन करती है. इस तरह केसीआर के एजेंडे में ओवैसी तो शामिल हैं, लेकिन मायावती को लेकर स्टैंड स्पष्ट नहीं है.

मायावती-ओवैसी के बिना विपक्षी एकता कैसे?
2024 के लोकसभा चुनाव में मायावती और ओवैसी के बिना विपक्षी एकजुटता होगी. देश में दलित आबादी 20 फीसदी के करीब है तो मुस्लिम 14 फीसदी हैं. ऐसे में मायावती और ओवैसी के बिना विपक्ष मोदी के खिलाफ मजबूत गठबंधन कैसे खड़ा कर पाएगा.

यूपी में मायावती के पास अभी भी 13 फीसदी के करीब वोट है तो दूसरी राज्यों में दलित समुदाय के बीच सियासी आधार है. बसपा के पास अभी 10 लोकसभा सांसद भी है.

वहीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के दो सांसद हैं और तेलंगाना से लेकर महाराष्ट्र और बिहार तक में उनकी पार्टी के विधायक हैं. इसके अलावा देश के दूसरे राज्यों में भी ओवैसी मुस्लिम समुदाय के बीच अपनी जगह बनाने की कवायद कर रहें हैं, जिसके लिए मुस्लिम प्रतिनिधित्व का एजेंडा सेट कर रहे हैं.

ऐसे में अगर ओवैसी और मायावती विपक्षी एकता से बाहर रहकर अकेले चुनाव लड़ेंगी तो वो भले ही जीत न पाएं, लेकिन विपक्ष को भी जीतने नहीं देंगी. ऐसे में बीजेपी को यूपी में तो बड़ा सियासी फायदा होगा और देश के दूसरे राज्यों में भी विपक्ष का खेल खराब हो सकता है.

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