नगालैंड के मिमी गांव में क्या चल रहा था ‘गुप्त-मिशन’..?
प्रभात रंजन दीन
लखनऊ में डिफेंस एक्सपो-2020 बड़े धूमधाम से हो रहा है। अमेरिका इजराइल समेत सैन्य उपकरण बनाने वाले तमाम देश के रक्षा मंत्रियों, सेनाध्यक्षों, राजदूतों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों का लखनऊ में जमावड़ा लगा हुआ है। सैन्य उपकरण बनाने और बेचने वाला देश चीन इस जमावड़े में शामिल क्यों नहीं है..? क्या चीन को इस मेले में शामिल होने का न्यौता नहीं भेजा गया था..? आप भी सोचेंगे कि क्या बेमतलब का सवाल मैं उठा रहा हूं… क्योंकि सबको यही पता है कि डिफेंस एक्सपो-2020 में शामिल होने के लिए चीन को न्यौता दिया गया था, लेकिन चीन में कोरोना वायरस फैलने की वजह से चीन डिफेंस एक्सपो-2020 में शामिल नहीं हो सका। …आपकी यह जानकारी गलत है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि आपको गलत जानकारी दी गई है। कोरोना वायरस से मुकाबला करने के कारण नहीं बल्कि भारत को कोरोना वायरस का ‘प्रयोग-स्थल’ बनाने के कुचक्र से पर्दा हट जाने की वजह से चीन डिफेंस एक्सपो में हिस्सा लेने से कन्नी काट गया। डिफेंस एक्सपो में प्रधानमंत्री शरीक हुए। रक्षा मंत्री लगातार मौजूद हैं और मुख्यमंत्री तो मेजबान ही हैं… लेकिन किसी ने भी देश को असली बात नहीं बताई।
सुदूर पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड में बड़े गोपनीय तरीके से एक शोध और परीक्षण चल रहा था। इस शोध-परीक्षण में अमेरिका, चीन, भारत और सिंगापुर के वैज्ञानिक शामिल थे। इस गुप्त शोध-परीक्षण की फंडिंग अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के तहत काम करने वाली ‘डिफेंस थ्रेट रिडक्शन एजेंसी’ (डीटीआरए) कर रही थी। आप हैरत करेंगे कि वह गुप्त शोध-परीक्षण कोरोना वायरस के मनुष्य पर इस्तेमाल का असर देखने के लिए किया जा रहा था। इसके लिए भारत को चुना गया था। परीक्षण यह जांचने के लिए किया जा रहा था कि क्या मनुष्य भी चमगादड़ की तरह कोरोना, इबोला, सार्स या ऐसे खतरनाक वायरस अपने शरीर में लंबे अर्से तक वहन (carry) कर सकता है..! अगर मनुष्य को इसके लिए immune या resistant बना दिया जाए तो..! आप कल्पना कर सकते हैं कि कितना खतरनाक शोध-परीक्षण अपने ही देश की धरती पर चल रहा था। इस गुप्त शोध-परीक्षण में जो दर्जन भर वैज्ञानिक लगे थे, उनमें चीन के उसी वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के दो वैज्ञानिक शामिल थे, जहां से कोरोना वायरस लीक हुआ और वुहान कुछ ही मिनटों में दुनिया भर में कुख्यात हो गया।
आप हैरत करेंगे कि वैज्ञानिकों की टीम में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) और नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस (NCBS) के वैज्ञानिक भी शरीक थे। इनके अलावा इस गोपनीय ‘शोध-अभियान’ में अमेरिका के ‘यूनिफॉर्म्ड सर्विसेज़ युनिवर्सिटी ऑफ द हेल्थ साइंसेज़’ और सिंगापुर के ‘ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी’ के वैज्ञानिक शामिल थे। खूबी और विडंबना यह है कि इस गोपनीय शोध-परीक्षण कार्यक्रम के लिए भारत सरकार से कोई औपचारिक इजाजत नहीं ली गई थी और शोध-परीक्षण के परिणामों पर ‘पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस’ के ‘नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीजेज़ जनरल’ में बाकायदा रिपोर्ट ‘Filo-virus-reactive antibodies in humans and bats in Northeast India imply Zoonotic spill-over’ भी छप रही थी। यह पत्रिका ‘बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन’ के पैसे से चलती है। रिपोर्ट् के आधार पर बिल गेट्स ने कहा था कि कोरोना वायरस एक बार फैला तो इस महामारी से कम से कम तीन करोड़ लोग मारे जाएंगे।
गुप्त शोध-परीक्षण की रिपोर्ट उजागर होने के बाद चौकन्ना हुई भारत सरकार ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) के जरिए इस मामले की जांच कराई। आईसीएमआर की पांच सदस्यीय टीम ने जांच में पाया कि नगालैंड के चीन से सटे किफिरे जिले के मिमी गांव में यह गुप्त शोध-परीक्षण चल रहा था। इसमें क्षेत्र के 18 से 50 साल के बीच के 85 लोगों पर शोध-परीक्षण किया गया जो चमगादड़ों का शिकार करते हैं। ये सभी नगालैंड के जंगलों में रहने वाले आदिवासी हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने आईसीएमआर की जांच रिपोर्ट को लॉकर में बंद कर दिया और सरकार ने भी अपना मुंह सील कर लिया।
कोरोना वायरस को जैविक-युद्ध-हथियार (बायोलॉजिकल-वार-फेयर) बनाने के चीन के कुचक्र का आधिकारिक खुलासा होने के बावजूद भारत सरकार ने रक्षा मंत्रालय या केंद्रीय जांच एजेंसी के जरिए इस संवेदनशील प्रकरण की सूक्ष्मता से जांच कराने की जरूरत नहीं समझी। इस खतरनाक शोध-परीक्षण के लिए भारत को प्रयोगस्थल क्यों बनाया गया… क्या यह जानने का हक देश के लोगों को नहीं हैं..? अमेरिका का ‘बायोलॉजिकल वीपन्स एंटी टेररिज़्म एक्ट ऑफ 1989’ कानून ड्राफ्ट करने वाले प्रख्यात वैज्ञानिक एवं कानूनविद् डॉ. फ्रांसिस बॉयले आधिकारिक तौर पर यह दर्ज करा चुके हैं कि कोरोना वायरस जैविक-युद्ध-हथियार है। जबकि चीन में कोरोना वायरस ‘लीक’ होने के बाद दुनिया भर में यह झूठ प्रसारित किया गया कि चमगादड़ का सूप पीने से कोरोना वायरस फैला।
चीन के वैज्ञानिकों (Biological Espionage Agents) ने कोरोना वायरस का पैथोजेन सबसे पहले कनाडा के विन्नीपेग स्थित नेशनल माइक्रोबायोलॉजी लेबोरेट्री से चुराया था। इसकी आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है। इसके बाद चीन के वैज्ञानिक वेशधारी Biological Espionage Agents ने अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय से कई खतरनाक वायरस के पैथोजेन चुराए और उसे चीन पहुंचाया। खतरनाक वायरस और संवेदनशील सूचनाओं की तस्करी के आरोप में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री एवं केमिकल बायोलॉजी डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष डॉ. चार्ल्स लीबर को पिछले महीने 20 जनवरी को गिरफ्तार किया गया। डॉ. लीबर चीन को संवेदनशील सूचनाएं लीक करने के एवज में भारी रकम पाता था। यहां तक कि चीन ने डॉ. लीबर को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी का ‘रणनीतिक वैज्ञानिक’ (स्ट्रैटेजिक साइंटिस्ट) के मानद पद पर भी नियुक्त कर रखा था। 29 साल की युवा वैज्ञानिक यांकिंग ये भी गिरफ्तार की गई थी। यांकिंग ये की गिरफ्तारी के लिए अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) को बाकायदा लुक-आउट नोटिस जारी करनी पड़ी थी। बाद में पता चला कि यांकिंग ये वैज्ञानिक के वेश में काम कर रही थी, जबकि असलियत में वह चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की लेफ्टिनेंट थी। चीन ने अपने सारे कूटनीतिक दांव आजमा कर लेफ्टिनेंट यांकिंग ये को अमेरिकी गिरफ्त से छुड़ा लिया। 10 दिसम्बर 2019 को बॉस्टन के लोगान इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर चीनी वैज्ञानिक झाओसोंग झेंग को खतरनाक वायरस की 21 वायल्स के साथ रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया। वह ये खतरनाक वायरस चीन ले जा रहा था। बाद में यह भी पाया गय़ा कि झाओसोंग जाली पासपोर्ट और फर्जी दस्तावेज लेकर अमेरिका आया था। क्रमशः … कल पढ़ें, चीन के चक्रव्यूह में कैसे बुरी तरह फंसी है देश की सुरक्षा।