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क्या माउंट एवरेस्ट पर भी घुसपैठ की फिराक में है चीन?

नई दिल्ली। आज हम दुनिया के सबसे ऊंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट की असली ऊंचाई का विश्लेषण करेंगे. हम सब अब तक ये पढ़ते आए हैं कि समुद्र तल से माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 8 हजार 848 मीटर है, लेकिन क्या सच में माउंट एवरेस्ट इतना ऊंचा है? या फिर अब तक इसकी ऊंचाई का गलत आंकलन किया गया है? आज हम अपने विश्लेषण में दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत की असली ऊंचाई का पता लगाएंगे.

इसके अलावा आज हम माउंट एवरेस्ट की चोटी तक पहुंच चुके चीन के 5G Signals का भी एक DNA टेस्ट करेंगे. चीन की बड़ी IT और मोबाइल फोन निर्माता कंपनी Huawei ने माउंट एवरेस्ट के रास्ते में 6 हजार 500 मीटर की ऊंचाई पर एक 5G टावर भी इंस्टाल कर दिया है. इसकी मदद से पर्वतारोही अब माउंट एवरेस्ट पर पहुंचकर हाई डेफिनेशन क्वालिटी में वहां से लाइव वीडियो स्ट्रीमिंग कर पाएंगे और बेस कैंप पर मौजूद लोगों से सीधे संपर्क में भी रह पाएंगे. लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस 5G नेटवर्क की मदद से चीन माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई से आस पास के इलाकों पर नजर भी रख सकता है.

भारत में तो अभी भी 4G नेटवर्क भी कभी आता है कभी चला जाता है. लेकिन चीन ने 5G सिग्नल्स को माउंट एवरेस्ट तक पहुंचा दिया है. चीन ने ये कैसे किया आज हम आपको बताएंगे. लेकिन सबसे पहले ये जान लीजिए कि माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई को लेकर विवाद क्या है?

दरअसल माउंट एवरेस्ट की आधिकारिक ऊंचाई 8 हजार 848 मीटर मानी गई है. माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई का आधिकारिक आंकलन पहली बार ब्रिटिश राज में सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा किया गया था. इसके बाद 1955 में सर्वे ऑफ इंडिया ने एक बार फिर से इस पर्वत की ऊंचाई नापी और इसके 8 हजार 848 मीटर ऊंचे होने का दावा किया. 1975 में चीन का आंकलन भी 8 हजार 848 मीटर ही था, लेकिन 2005 से चीन लगातार दावा कर रहा है कि माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 8 हजार 844 मीटर है. यानी पहले नापी गई ऊंचाई से 4 मीटर कम.

अपने इसी दावे की पुष्टि करने के लिए चीन ने एक बार फिर अपने वैज्ञानिकों की एक टीम को माउंट एवरेस्ट पर भेजा है. चीन के वैज्ञानिकों की ये टीम वर्ष 2020 में माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाला पर्वतारोहियों का पहला दल बन गई है. इस दल में चीन के करीब 50 एक्सपर्ट्स और पर्वतारोही शामिल हैं.

ये तस्वीरें चीन के पर्वतारोहियों के इसी दल की हैं और तस्वीरों में आप देख सकते हैं कि चीन का ये दल कैसे दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी पर जरूरी उपकरण लगाकर इसकी ऊंचाई नापने की कोशिश कर रहा है.

इससे पहले कोरोना वायरस की वजह से माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने पर रोक लगा दी गई थी. माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई के दो रास्ते हैं. पहला नेपाल से होकर जाता है जबकि दूसरा रास्ता चीन के तिब्बत से होकर गुजरता है.

कोरोना वायरस की वजह से नेपाल के रास्ते होने वाली माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई पर अब भी रोक है. जबकि चीन ने अपने नागरिकों को माउंट एवरेस्ट पर जाने की इजाजत दे दी है. कहा जा रहा है कि ऐसा पहली बार है जब इस पर्वत पर चढ़ने वाले दल में सभी चीन के नागरिक हैं. इससे पहले चीन के नागरिकों ने कभी अकेले इस पर्वत पर चढ़ाई नहीं की है. 

चीन का ये दल 27 मई को माउंट एवरेस्ट पर पहुंचा और संयोग की बात ये है कि चीन के तीन पर्वतारोही पहली बार आज से ठीक 60 वर्ष पहले 25 मई 1960 को माउंट एवरेस्ट पर पहुंचे थे. चीन महामारी के बीच एवरेस्ट पर चढ़कर ये संदेश भी देना चाहता है कि चीन में अब सब कुछ सामान्य हो चुका है और चीन फिर से नई उपलब्धियां हासिल करने कि लिए तत्पर है.

चीन का दावा है कि माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 8 हजार 848 मीटर नहीं बल्कि 8 हजार 844 मीटर है. लेकिन अब चीन ये पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि क्या 2015 में नेपाल में आए भूकंप से माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई पर कोई फर्क पड़ा है?

कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि 2015 में आए भूकंप के बाद से माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई कुछ कम हो गई है और चीन इन्हीं दावों की पुष्टि करना चाहता है.

इसके अलावा चीन ने माउंट एवरेस्ट के रास्ते में दुनिया में सबसे ऊंची जगह पर 5G नेटवर्क उपलब्ध कराने वाला टावर भी इंस्टाल कर दिया है. चीन की कंपनी Huawei का दावा है कि 6500 मीटर ऊंचाई पर लगे इस 5G टावर की रेंज माउंट एवरेस्ट की चोटी तक होगी. लेकिन इस तकनीक का फायदा सिर्फ वही पर्वतारोही उठा पाएंगे जो तिब्बत के रास्ते से माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करेंगे.

कुल मिलाकर चीन पूरी दुनिया को ये सिग्नल देने की कोशिश कर रहा है कि वो जब चाहे माउंट एवरेस्ट पर भी अपना दावा ठोक सकता है. माउंट एवरेस्ट वैसे तो नेपाल के हिस्से में आता है लेकिन 10 मई को चीन की सरकारी मीडिया ने पूरे माउंट एवरेस्ट को चीन का हिस्सा बता दिया था.

चीन भारत की सीमाओं में घुसपैठ कर रहा है. उसकी IT कंपनियां लोगों के मोबाइल फोन्स में घुसपैठ कर रही हैं, चीन से निकला वायरस लोगों के शरीर में घुसपैठ कर चुका है तो अब चीन ने माउंट एवरेस्ट पर टेक्नालॉजी की मदद से एक प्रकार की घुसपैठ शुरू कर दी है.

जिस माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करना कभी असंभव माना जाता है. वहां अब हर साल हजारों पर्वतारोही पहुंच जाते हैं, जिस पर्वत पर 67 साल पहले तक इंसानी गतिविधियों का नामो निशान तक नहीं था वहां से वर्ष 2019 में 10 हज़ार किलोग्राम कचरा निकाला गया था.

नेपाल और चीन की पर्यटन कंपनियों ने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई को एक उद्योग में बदल दिया है और दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत इंसानों की घुसपैठ का शिकार हो रहा है.

ठीक 67 साल पहले 29 मई 1953 को Sir Edmund Hillary और Tenzing Norgay पहली बार माउंट एवरेस्ट पर पहुंचे थे. इससे पहले माउंट एवरेस्ट तक पहुंचना असंभव माना जाता था. लेकिन अब इस पर्वत पर पहुंचने वालों की संख्या 4 हजार से भी ज्यादा हो चुकी है.

पिछले साल जून में कुछ तस्वीरें आई थीं, जिनमें देखा जा सकता है कि कैसे चोटी तक पहुंचने के लिए लोग लंबी लाइनों में खड़े हैं. इस दौरान कई लोगों ने ये शिकायत भी की कि लोग एक दूसरे को धक्का दे रहे थे. दरअसल जो लोग चोटी पर पहुंच चुके थे वो तस्वीरें खिंचवा रहे थे और सेल्फी ले रहे थे. इसीलिए 20 वर्ग मीटर चौड़े माउंट एवरेस्ट पर ट्रैफिक जाम जैसे हालात हो गए.

लेकिन माउंट एवरेस्ट पर ये ट्रैफिक जाम पहली बार सिर्फ 2019 में ही नहीं लगा था. 2012 में भी ऐसी ही तस्वीरें सामने आई थीं. 2012 में जब माउंट एवरेस्ट पर पांव रखने की जगह नहीं बची तब करीब 200 लोगों को लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा था. ये देखकर किसी को भी लग सकता है कि ये माउंट एवरेस्ट नहीं बल्कि कोई साधारण सा हिल स्टेशन है.

1953 से लेकर 1988 तक माउंट एवरेस्ट पर सिर्फ 260 बार चढ़ाई की गई. लेकिन 2003 तक ये संख्या 1900 से ज्यादा हो गई. और 2019 तक चार हजार से ज्यादा लोग 9 हजार बार इस दुनिया के इस सबसे ऊंचे पर्वत पर चढ़ चुके थे.

माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले सबसे ज्यादा उम्र के व्यक्ति Yuichiro Miura (युचिरो मिउरा) थे जो 80 वर्ष की उम्र में माउंट एवरेस्ट पर पहुंचे थे. जबकि सबसे कम उम्र में माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पर्वतारोही का नाम Jordan Romero है जो सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में माउंट एवरेस्ट पर पहुंचे थे. 2007 में ब्रिटिश पर्वतारोही Rod Baber ने माउंट एवरेस्ट से पहली फोन कॉल की थी. तब 2G का जमाना था और आज माउंट एवरेस्ट से 5G की रफ्तार से फोन कॉल करना संभव हो गया है.

स्थिति ये हो गई है कि अब माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाले कई लोग चाहे तो ज्यादा पैसा खर्च करके  बेस कैंप में फाइव स्टार सुविधाएं हासिल कर सकते हैं. इनमें हीटेड टेंट्स जैसी सुविधाएं भी शामिल हैं.

इन पर्वतारोहियों के माउंट एवरेस्ट तक पहुंचाने का काम शेरपा करते हैं. शेरपा के ऊपर ही सामान ले जाने, सीढ़िया बिछाने, रस्सियां बांधने और टेन्ट लगाने की जिम्मेदारी होती है. इन शेरपाओं में से कुछ को Ice Fall Doctors भी कहा जाता है क्योंकि बर्फीली पहाड़ियों के दो हिस्सों के बीच सीढ़ियां लगाने के बाद ये शेरपा की सबसे पहले उस पर चलकर ये चेक करते हैं कि बर्फ मजबूत है या नहीं. जब पर्वतारोही आरामदायक टेंटों में सो रहे होते हैं तब ये शेरपा एक दिन में औसतन 40 बार उनके भारी भरकम सामान को पहाड़ पर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं.

कई विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि अब एवरेस्ट पर पहुंचने के लिए विशेष तकनीक की आवश्यकता नहीं है इसलिए बहुत सारी टूरिज्म कंपनियां तो अब गैर अनुभवी लोगों को भी इसके लिए आकर्षित करने लगी हैं.

लेकिन असली समस्या एवरेस्ट पर चढ़ना नहीं बल्कि वहां के मौसम का सामना करना है. 26 हजार फीट की ऊंचाई पर जमीन के मुकाबले सिर्फ 30 प्रतिशत ऑक्सीजन बचती है. इस ऊंचाई पर खाना पचना बंद हो जाता है, और दिल भी काम करना बंद कर सकता है. इस ऊंचाई में दिमाग में सूजन इस हद तक बढ़ सकती है कि आपका दिमाग सिर की हड्डी से बाहर निकलने लगता है.

जैसा कि हमने आपको बताया कि एवरेस्ट पर पहुंचने के दो रास्ते हैं. एक नेपाल से होकर जाता है और दूसरा तिब्बत से होकर जाता है. तिब्बत के रास्ते से एक सीमित संख्या में ही सैलानी एवरेस्ट पर जा सकते हैं. लेकिन नेपाल के रास्ते से संख्या को लेकर कोई सीमा तय नहीं है. नेपाल के रास्ते एवरेस्ट पर जाने के लिए लोगों को सिर्फ 8 लाख 32 हजार रुपए की फीस देनी होती है और डॉक्टर से ये लिखवाना होता है कि आप पूरी तरह स्वस्थ हैं. ये बात आप जानते हैं कि डॉक्टर से हेल्थ सर्टिफिकेट लेना कई बार कितना आसान होता है.

नेपाल का पर्यटन विभाग भी ये बात मानता है कि सिर्फ 55 से 60 प्रतिशत लोग ही ऐसे होते हैं जो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने की योग्यता रखते हैं. उदाहरण के लिए 2012 में नेपाल में पैदा हुई कनाडा की एक महिला श्रेया शाह ने माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई की थी. उनके पास पर्वत चढ़ने का कोई खास अनुभव नहीं था लेकिन एक टूरिज्म कंपनी ने उनसे कहा कि एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए अनुभव की नहीं सिर्फ इरादे की जरूरत है. श्रेया ने उनकी बात मान ली. बिना किसी ट्रेनिंग के श्रेया माउंट एवरेस्ट पर पहुंच भी गईं. लेकिन एवरेस्ट से उतरते हुए रास्ते में उनकी मौत हो गई.

यानी जिस पर्वत पर चढ़ना कभी इंसानों का सपना हुआ करता था उसे पर चढ़ाई को एक उद्योग में बदल दिया गया है और अब माउंट एवरेस्ट गर्व की अनुभूति कराने वाली पर्वत चोटी की जगह शायद सिर्फ एक सेल्फी प्वाइंट बनकर रह गया है.

यहां आपको माउंट एवरेस्ट के बारे में कुछ दिलचस्प बातें भी जान लेनी चाहिए. माउंट एवरेस्ट को वैसे तो दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत कहा जाता है. पर्वतों की ऊंचाई का आंकलन समुद्र की सतह से उसकी ऊंचाई के आधार पर किया जाता है. लेकिन अगर किसी पर्वत के आधार से उसके शिखर तक की ऊंचाई नापी जाए तो माउंट एवरेस्ट सबसे ऊंचा पर्वत नहीं है.

बेस यानी आधार से चोटी तक की ऊंचाई के नजरिए से हवाई का माउना किया दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत है. माउना किया की ऊंचाई 10 हजार 210 मीटर है.

माउंट एवरेस्ट को नेपाल में सागरमाथा और तिब्बत में कोमुलु गामा कहा जाता है. लेकिन माउंट एवरेस्ट का नाम Surveyor General of India रह चुके Sir George Everest के नाम पर रखा गया था. हालांकि George Everest ने खुद कभी हकीकत में माउंट एवरेस्ट को देखा तक नहीं था.

आपको जानकर हैरानी होगी कि हिमालय दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रंखला है जिसकी ऊंचाई अब भी लगातार बढ़ रही है. वैज्ञानिकों के मुताबिक माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई हर साल 4 मिलीमीटर बढ़ जाती है. यानी 100 सालों में इसकी ऊंचाई 16 इंच तक बढ़ जाती है.

8 हजार मीटर की ऊंचाई पर माउंट एवरेस्ट का डेथ जोन शुरू होता है क्योंकि खराब मौसम और ऑक्सीजन की कमी की वजह से सबसे ज्यादा मौतें यहीं होती हैं. 2008 में Beijing Olympic की Olympic Torch को माउंट एवरेस्ट पर भी पहुंचाया गया था.

एवरेस्ट की चढ़ाई करने वालों को “Two o’Clock rule” का पालन करना होता है. यानी चढ़ाई करने वालों को दोपहर 2 बजे तक माउंट एवरेस्ट पर पहुंचना होता है क्योंकि इसके बाद मौसम बदलना शुरू हो जाता है.

तकनीक के विकास की वजह से एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान होने वाली मौतों में हर साल 2 प्रतिशत की कमी आ रही है. आधिकारिक तौर पर माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई से पहले 10 हफ्तों की कठिन ट्रेनिंग लेनी होती है. इसके बाद ही एवरेस्ट पर जाने की इजाजत मिलती है.

 

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