इस तरह पायलट और गहलोत के बीच की सियासी जंग मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल में भी बदलती दिख रही है। ऐसे में कई सवाल उठते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या विधानसभा सत्र बुलाने के लिए राज्यपाल मंत्रि परिषद की सलाह मानने को बाध्य हैं और किस हद तक राज्यपाल अपने विवेक से फैसला ले सकते हैं?
देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम कहते हैं कि संविधान के मुताबिक सलाह बाध्यकारी है, लेकिन जब ऐसे विवाद हों कि मुख्यमंत्री को कितने विधायक समर्थन दे रहे हैं, तो यह स्पेशल केस है। केरल के राज्यपाल भी रहे सतशिवम कहते हैं, ”राज्यपाल विधायकों को राजभवन बुला सकते हैं, उनसे जानकारी ले सकते हैं, विधायकों के समूह से चर्चा कर सकते हैं। सामान्य नियम कि राज्यपाल के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी है, यहां प्रासंगिक नहीं होगा।”
क्या कहता है संविधान?
संविधान के अनुच्छेद 163 और 174 में राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर नियमों की चर्चा है।अनुच्छेद 163 कहता है कि मुख्यमंत्री की अगुआई में मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सलाह देगी और सहायता करेगी, लेकिन तब नहीं जब उन्हें संविधान के तहत अपना विवेकाधिकार इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को दरकिनार करके कब अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या वह विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर भी ऐसा कर सकते हैं? इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों और आर्टिकल 174 में निहित है, जो कहता है कि राज्यपाल समय-समय पर सदन की बैठक बुलाएंगे, जब भी उन्हें उचित लगे, लेकिन एक सत्र के आखिरी दिन और अगले सत्र के पहले दिन के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर ना हो।
अनुच्छेद 174 मसौदा संविधान के अनुच्छेद 153 से निकला है। अनुच्छेद 153 की तीसरी धारा के मुताबिक, गवर्नर सत्र बुलाने के अधिकार का इस्तेमाल विवेक से करेंगे। संविधान सभा में जब इस अनुच्छेद पर चर्चा हुई तो बीआर आंबेडकर सहित कुछ सदस्यों ने इस नियम का विरोध किया। आंबेडकर ने यह कहकर हटाने की मांग की कि यह संवैधानिक राज्यपाल की योजना के साथ असंगत है। उनका प्रस्ताव पास हो गया और इस क्लॉज को हटा दिया गया। ड्राफ्ट आर्टिकल 153 बाद में अनुच्छेद 174 बना। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं की मंशा विधानसभा बुलाने के लिए राज्यपाल को विवेकधार देने की नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले भी इसे पुष्ट करते हैं। 2016 के नबम रेबिया बना डेप्युटी स्पीकर केस के फैसले में भी अनुच्छेद 174 की यही व्याख्या की गई है। 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि सत्र बुलाने, स्थगित करने और भंग करने के अधिकार का इस्तेमाल राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेंगे। इस केस में अरुणचाल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा ने विधानसभा का सत्र 14 जनवरी 2016 को बुलाया था। हालांकि, 20 बागी कांग्रेस विधायकों ने बीजेपी से हाथ मिला लिया और राजखोवा से मिलकर स्पीकर नबम रेबिया के साथ असंतोष जाहिर किया।
राजखोवा ने कांग्रेस के बागी विधायकों के साथ मुलाकात के बाद सत्र को 16 दिसंबर 2016 के लिए पुनर्निर्धारित कर दिया। उन्होंने यह फैसला मंत्रिपरिषद से सलाह लिए बिना किया था। रेबिया राजखोवा की कार्रवाई के विरोध में सुप्रीम कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट ने राजखोवा के सत्र पुनर्निर्धारण को अनुच्छेद 174 का उल्लंघन पाया और निरस्त कर दिया।
वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन कहते हैं कि यदि मंत्रिपरिषद को सदन का विश्वास हासिल है तो इसमें कोई सवाल नहीं है कि राज्यपाल सत्र बुलाने के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य है। नबाम रेबिया जजमेंट यह भी कहता है कि यदि राज्यपाल के पास यह मानने का कारण है कि मंत्रिपरिषद विश्वास खो चुका है तो वह मुख्ममंत्री को बहुमत साबित करने को कह सकते हैं। लेकिन इसमें भी राज्यपाल की शक्ति केवल बहुमत परीक्षण के लिए बुलाने की है, जोकि गहलोत और उनके समर्थकों के पक्ष में है, क्योंकि वे बहुमत परीक्षण के लिए तुरंत सत्र बुलाने की मांग कर रहे हैं।
इसके मुताबिक मिश्रा संवैधानिक प्रावधानों और प्रोटोकॉल को पूरा करने पर जोर दे सकते हैं। वे महामारी को लेकर पर्याप्त सुरक्षात्मक कदम उठाने पर जोर दे सकते हैं, लेकिन कानून के मुताबिक उन्हें अंत में विधानसभा का सत्र बुलाना ही होगा।