नई दिल्ली। शुक्रवार दोपहर जापान के पीएम शिंजो आबे ने जैसे ही स्वास्थ्य कारणों की वजह से अपना पद छोड़ने का ऐलान किया यह तय हो गया कि भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों के बीच शिखर वार्ता की तैयारियां फिलहाल धीमी हो जाएंगी। यह वार्ता दिसंबर, 2019 से लंबित है, इसे सितंबर-अक्टूबर में कराने की बात हो रही थी। यह देखना होगा कि जापान के नए पीएम भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी के साथ प्रस्तावित भारत-जापान शिखर बैठक को लेकर कितनी जल्दबाजी दिखाते हैं।
भारतीय पक्षकारों को भरोसा है कि मोदी और आबे ने पिछले छह वर्षों में भारत जापान रिश्तों में जो आयाम दिया है उसे मौजूदा वैश्विक माहौल को देखते हुए जापानी पक्ष नजरअंदाज नहीं कर सकता। खास तौर पर तब जब दोनो सरकारों ने साझा रणनीतिक रिश्तों को नई गहराई देने का एजेंडा तैयार कर लिया हो और दोनो देशों के लिए चीन का आक्रामक रवैया बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रहा हो।
आबे ने अपने कार्यकाल में जिन देशों के साथ रिश्तों को रणनीतिक गहराई पर सहसे ज्यादा ध्यान दिया उसमें भारत सबसे अहम रहा है। अहमदाबाद की गलियों में पीएम मोदी के साथ रैली करने से लेकर वाराणसी में गंगा आरती तक का आबे व मोदी का सफर इनके व्यक्तिगत रिश्तों की कहानी खुद कहती है। वैसे आबे ने भारत का महत्व मोदी के पीएम बनने से बहुत पहले पहचान लिया था। प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में ही आबे ने वर्ष 2007 में इंडो-पैसिफिक महासागर में नए गठबंधन की परिकल्पना पेश की थी जिसमें जापान-आस्ट्रेलिया-आस्ट्रेलिया के साथ भारत को अहम भूमिका निभाने की बात थी। अब इन चारों देशों का गठबंधन (क्वैड) हिंद-प्रशांत महासागर में धीरे धीरे मूर्त रूप लेने लगा है। भारत-जापान-अमेरिका के सालाना सैन्य अभ्यास में आस्ट्रेलिया को शामिल करने की बात अंतिम चरण में है।
जापान की कई राजनतिक पार्टियां भारत के साथ न्यूक्लियर डील करने के सख्त खिलाफ थी लेकिन आबे ने उन सभी को मनाया और वर्ष 2016 में भारत-जापान न्यूक्लियर समझौता हो सका। आबे के कार्यकाल में दोनो देशों के बीच एक दूसरे के सामरिक ठिकानों के इस्तेमाल संबंधी समझौता किया गया। इस तरह का समझौता जापान ने गिने चुने देशों के साथ ही किया है। आबे और मोदी के बीच पिछले वर्ष हुई मुलाकात के बाद दोनो देशों ने विदेश और रक्षा मंत्रियों को मिला कर टू प्लस टू वार्ता का ढांचा तैयार किया। नंवबर, 2019 में इसकी पहली बैठक का एजेंडा के व्यापकता ही बताता है कि भविष्य में दोनो देश किस कदर आर्थिक व सामरिक तौर पर साझा हित देख रहे हैं।
डोकलाम विवाद के समय भारत के पक्ष आया जापान
आबे के कार्यकाल में पहली बार हमने देखा कि जब जुलाई, 2017 में डोकलाम क्षेत्र में चीनी व भारतीय सैनिकों के बीच तनाव बढ़ा तो जापान खुल कर भारत के पक्ष में आया। असलियत में अमेरिका व दूसरे देशों के बयान आने से पहले नई दिल्ली में जापान के राजदूत ने डोकलाम पर भारतीय पक्ष का समर्थन किया। अब जबकि एक बार फिर चीन की सेना पूर्वी लद्दाख सेक्टर में अतिक्रमण कर चुकी है तो जापान का समर्थन और मजबूत हुआ है। जापान ने दोनो बार कहा कि यथास्थिति को बिगाड़ने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।
चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने पर जोर
दरअसल, भारत के अलावा जापान चीन के भौगोलिक अतिक्रमण व्यवहार से सबसे ज्यादा परेशान देश है। कोविड-19 की वजह से जब चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने की बात दुनिया भर में हो रही है तो जापान ने आस्ट्रेलिया व भारत के साथ मिल कर एक नया वैश्विक ग्लोबल चेन विकसित करने की बात कही है। जापान सरकार व भारतीय राज्यों के बीच भी बातचीत चल रही है कि किस तरह से चीन से विस्थापित होने वाली कंपनियों को भारत में प्लांट लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। आगामी भारत-जापान शिखर सम्मेलन में यह एक महत्वपूर्ण एजेंडा रहने वाला है।
इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने का है संयुक्त एजेंडा
भारत और जापान के रिश्तों को आगे बढ़ाने वाला अगला एजेंडा संयुक्त तौर पर तीसरे देश में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने का है। इस बारे में वर्ष 2018 में पीएम मोदी और आबे के बीच हुई बातचीत में एजेंडा बना था। दोनों देश संयुक्त तौर पर अफ्रीका व दक्षिण एशियाई देशों में सड़क, रेल मार्ग, पोर्ट, एयरपोर्ट विकास करने पर काम कर रहे हैं ताकि चीन के बढ़ते वर्चस्व को चुनौती दी जा सके। बांग्लादेश और श्रीलंका में दो एयरपोर्ट और दो बंदरगाह विकसित करना भी इसमें शामिल है।