शास्त्री कोसलेन्द्रदास
भारत की अमर संस्कृति के केंद्र में है गंगा अर्थात भारत की सर्वाधिक सतोगुणी नदी। अमरकोष में गंगा के नाम विष्णुपदी, जह्नुतनया, सुरनिम्नगा, भागीरथी, त्रिपथगा, त्रिस्रोता और भीष्मसू हैं। गंगा ऐसी नदी है, जो पहले स्वर्ग और बाद में अपने पिता हिमालय की गोद छोड़कर अपनी संतान के उद्धार के लिए नीचे खिंची आई। गंगा तीर्थमाता है। गंगा माता ने सत्यप्रतिज्ञ राम को केवट से चरण धुलवाते देखा तो कुरुक्षेत्र में सारथी बने कृष्ण को और उनके मित्र अर्जुन से अपने पुत्र भीष्म को बाणों से छलनी होते भी! गंगा भारत का जीवंत इतिहास है।
तीन लोकों में त्रिपथगा
गंगा न केवल धरती बल्कि स्वर्ग लोक से पृथ्वी लोक में होकर पाताल लोक तक पहुंचती है। शास्त्र कहते हैं कि गंगा धरती पर मनुष्यों को, पाताल में नागों को और स्वर्ग में देवताओं को तारती है। तीन लोकों में समान रूप से विचरण करने के कारण गंगा का एक नाम त्रिपथगा है। इन तीन लोकों में गंगा के तीन भिन्न-भिन्न नाम, स्वर्ग में मंदाकिनी, धरती पर गंगा और पाताल में भोगवती हैं।
सबसे पहले विष्णुपदी
पौराणिक आख्यानों के अनुसार असुरों के राजा बलि देवराज इंद्र के सिंहासन को प्राप्त करने की इच्छा से सौवां यज्ञ कर रहे थे। देवताओं ने वैकुंठ पहुंचकर भगवान नारायण से प्रार्थना की कि यदि राजा बलि का यह अंतिम यज्ञ सफल हुआ जो इंद्रासन पर सदा के लिए राक्षसों का अधिकार हो जाएगा। आसुरी शक्तियों का बढ़ना समाज के लिए कष्टप्रद होगा। भगवान विष्णु ने देवताओं की प्रार्थना पर वामन का अवतार धारण किया। भगवान वामन ने यज्ञशाला में राजा बलि से तीन पग भूमि की याचना की। बलि ने तीन पांव भूमि वामनावतारी विष्णु को देने का संकल्प किया।
वामन ने अपने शारीरिक स्वरूप को विराट कर एक ही पांव में सारी पृथ्वी को नाप लिया। दूसरे पग से जब उन्होंने अंतरिक्ष समेत अनेक लोकों को नापा तो उनके चरण ब्रह्मलोक तक पहुंचे। लोकपिता ब्रह्मा ने भगवान के श्रीचरणों को ब्रह्मलोक में आया देख अपने कमंडलु के जल से उनका प्रक्षालन किया। पग पखारने के इसी क्रम में भगवान विष्णुस्वरूपी वामन के बाएं पांव के अंगुष्ठ से माता गंगा का प्रादुर्भाव हुआ। भगवान विष्णु के पाद से उत्पन्न होने के नाते गंगा का सर्वप्रथम नामकरण विष्णुपदी हुआ।
स्वर्ग में मंदाकिनी
विष्णुपदी होने के साथ गंगा माता सबसे पहले देवताओं को तारने भगवान वामन के चरणों से सीधे स्वर्ग लोक में उतरीं। देवताओं को तारने के लिए भगवान विष्णु की प्रेरणा से गंगा का ब्रह्मा के कमंडलु के बाद पहला निवास स्वर्ग लोक में है। यहीं गंगा का नाम सुरसरि हुआ।
धरती पर गंगा
जनतारिणी माता मंदाकिनी जब धरती पर उतरीं तो वे गंगा कही जाने लगीं। जब गंगा स्वर्ग से धरती की ओर चलीं तो देवताओं ने मंदाकिनी को गंगा कहा। गंगा के धरा पर अवतरण की वह कथा सर्वविदित ही है जिसमें रघुवंशी राजाओं ने अपने पितरों को तारने के लिए कठोर तपस्या कर गंगा को धरती पर उतारा था। अयोध्या के महाराजा सगर के साठ हजार पुत्रों-प्रजाजनों को महर्षि कपिल के शाप से तारने के लिए रघुवंशी राजाओं ने क्रमिक तपश्चर्या की। अंतत: माता गंगा के प्रसन्न होने पर वे धरती पर अवतरित हुईं, जिससे पितरों को सद्गति प्राप्त हुई।
धरती पर उतरते समय ही गंगा आशुतोष भगवान शिव की जटाओं में विराजित होकर उनका अलंकार बनीं। हिमालय जैसे विराट पहाड़ की गोद से तपते मैदानों में उतरकर देवप्रयाग में गंगा ने अपने दिव्य स्वरूप को धारणकर हरिद्वार, प्रयाग व वाराणसी होते हुए गंगासागर तक अकल्पनीय लौकिक-अलौकिक भावों को प्रकट किया। धरती पर गंगा का स्वभाव है बहना। अपने साथ सबको बहाना। प्रवाह की तीव्रता के साथ कल्मष धोते रहना, निरंतर नई धाराओं को जन्म देना और कहीं रुकना नहीं, ठहरना नहीं! विंध्याचल में इसे भागीरथी गंगा कहते हैं तो सुदूर दक्षिण में गौतमी गंगा (गोदावरी)।
पाताल में भोगवती
धरती से माता गंगा नाग आदि योनियों में उत्पन्न जीवों को तारने के लिए पाताल लोक में पहुंची। यह माता गंगा का तीसरा लोक है, जहां वे प्रवाहशील हैं। पाताल लोक में गंगा का नाम भोगवती है।
सबको तारती हैं गंगा
गंगा न किसी की जाति देखती हैंं न धर्म और न ही लिंग। सत्रहवीं शताब्दी के चूडांत मनीषी पंडितराज जगन्नाथ की किंवदंतीपरक कथा प्रसिद्ध है कि जगन्नाथ ने एक मुस्लिम कन्या से विवाह किया। विवाह करके जब जगन्नाथ काशी लौटे तो पंडितों ने उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया। तब जगन्नाथ अपनी पत्नी के साथ गंगा के किनारे बैठकर अपनी शुद्धता सिद्ध करने लगे।
जगन्नाथ एक-एक श्लोक बनाकर माता गंगा को चढ़ाते जाते और गंगा एक-एक सीढ़ी ऊपर आती जाती। 52 सीढ़ियां ऊपर आकर गंगा ने पत्नी के साथ पंडितराज जगन्नाथ को छुआ तो सारी काशी को चमत्कारिक आश्चर्य हुआ। पंडितराज जगन्नाथ का 52 श्लोकों का वह स्तोत्र आज भी गंगालहरी के नाम से प्रसिद्ध है। यह अवश्य कष्टप्रद है कि आज गंगा भी चैतन्य की राशि न रहकर, अनुष्ठान का तीर्थ न रहकर मात्र सुविधा और पर्यटन केंद्र होती जा रही है। मनुष्य के भविष्य को बचाने के लिए हमें गंगा के साथ भावगंगा का अवतरण करना होगा। यही सच्चे मायने में गंगास्नान है।