डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर
विश्वव्यापी कोरोना वायरस आज भी उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितना कि इसको लेकर बनी दहशत। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ता हालत इसकी प्रमुख वज़ह रही। दूसरा मुख्य कारण बना कोरोना वायरस की लोगों को अपनी चपेट में तेज़ी से लेने की क्षमता। इसने ‘कोविड-19’ को दुनिया में अब तक हुईं दूसरी घातक बीमारियों से अधिक डरावना बना दिया। संसार की समस्त सरकारों को कोरोना के बारे में पहले अपने नागरिकों को शिक्षित और सतर्क करना था। इसके विपरीत उन्होंने जाने-अनजाने लोगों को ‘भय’ से भर दिया। हालात से निपटने के उपायों के तहत जो दूरदर्शी क़दम उठाने थे, उन्हें दरकिनार किया। लक्ष्य चाहे-अनचाहे व्यापारिक हितों की रक्षा करना हो गया। दुनिया भर की सरकारें जनता के बज़ाय सरकार की आमदनी बढ़ाने, इसके लिए अवसर बनाने और उन्हें साधने की कोशिशें करतीं रहीं हैं।
प्रमुखतया आर्थिक मामलों में पहले से ही बेढर्रा उनकी प्राथमिकताएँ बदल गयीं। नतीज़तन हर कोई सन्दिग्ध हो उठा। हालत यह हुई कि हर कोई एक-दूसरे को लेकर अब सन्दिग्ध है। स्थिति ऐसी उभर रही है जो आगे छह महीने भी बनी तो दुनिया के विकसित अधिकतर देशों के साथ अविकसित लगभग सभी देशों का आर्थिक ढांचा टूट जाएगा। दुर्योग से मौज़ूदा हालत इस साल क्या, अगले बरस भी सुधरती नहीं दिख रही है। ऐसे में आशंकित भयावहता को समझा जा सकता है। सरकार ने प्रकारान्तर में स्वीकार कर लिया है कि 2020-21 में आर्थिक विकास दर शून्य रह सकती है। कभी बोफोर्स तोपों की नलियों से बनकर निकलीं वित्तमंत्री ने तो हद ही कर दी। ‘मैडम’ शुक्रवार (28 अगस्त को) बता रही थीं कि “कोरोना बीमारी ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ (क़ुदरत के कानून) जैसी हो गयी है। कदाचित् उन्हें नहीं मालूम कि क़ुदरत का कानून (एक्ट ऑफ़ गॉड) क्या होता है? महाशया को पता होना चाहिए कि ‘भगवान या क़ुदरत का कानून’ भयङ्कर अकाल, बाढ़ की विभीषिका, तूफ़ान आदि बड़ी प्राकृतिक आपदा जैसे ‘सुनामी’ को कहा जाता है।
दरअसल, भारत में ‘अर्थव्यवस्था का भट्ठा’ बैठने की आशंका सब से अधिक है। वज़ह यह कि यहाँ समाजवादी और समतापोषक नीतियों के बज़ाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और हितों का पोषण करने की नीति पर तब से ही चला जा रहा है जब पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में ‘आर्थिक उदारीकरण’ अपनायी गयी। केन्द्रीय सत्ता के वर्तमान नियामक भी अधिकतर बुनियादी अर्थात् उत्पादक मामलों में उसी पथ पर चलते रहे बल्कि उन्होंने कुछ लोकप्रिय सुधारों और पारदर्शिता की आड़ में जोर-शोर से उसी पर बढ़ना ज़ारी रखा। बावज़ूद इसके, आगे चलकर हालात बेक़ाबू हो जाने पर उनके लिए मुँह छुपाने वाला रुमाल यह हो सकता है कि वे कहने लगें कि इसकी शुरुआत तो पिछले दशक के प्रारम्भिक सालों में कांग्रेस की सरकार (प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव तथा वित्तमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह) ने की थी। लानत भेजने के लिए डॉ० सिंह का सिर अभी सलामत है ही।
बहरहाल, पिछले तीन दशकों से देश और इसकी सरकारों ने आर्थिक विकास का तक़रीबन एक ही तरीक़ा अपना रखा है। कुछ बदला तो महज़ अपने काम के नाम, बाकी सब यथावत चलता आया है। इन सरकारों के इस बहुप्रचारित ढर्रे का नाम है ‘मॉडल इकोनोमी। इसे ’बनावटी अर्थव्यवस्था या, ढाँचा कहना अधिक सुसंगत होगा। कारण यह कि इसमें आर्थिक विकास की धुरी वास्तव में लौह-स्तम्भ न होकर ‘पोल’ यानी पाइपनुमा (खोखली) होती है। यह अवश्य है कि चित्ताकर्षण के लिए इसकी दीवारें पारदर्शी बनायी जाती हैं जिन्हें हम मॉल, बाज़ारों, ऊँची अट्टालिकाओं, कंक्रीट के गगनचुम्बी जंगलों या फ़िर चकाचौंध करने वाली सड़कों पर सफ़र करते हुए देख सकते हैं। ये सब ‘जनता-श्रेणी’ के ग्राहकरूपी उपभोक्ताओं को आकर्षित करती हैं। इसके बावज़ूद भाव-उत्तेजनावश ‘स्वप्रेरित आकर्षण’ के कारण उनके ज़ाल में फँसकर भी लोग ज़ेबें खाली होने से वे वहाँ घूम-टहलकर ही लौटने को मजबूर होते हैं। सोचने की बात है कि इस ‘मायाज़ाल’ में काँच की दीवारों वाली अर्थव्यवस्था कितने दिन टिकेगी?
ये भी प्रकृति का कैसा प्रकोप है कि आज की राजनीतिक व्यवस्था अपनी असफलताओं को ढँकने के लिए उसकी तोहमत उसी (प्रकृति) के सर ही मढ़ देने पार उतारू है। “स्मार्ट होते भारत” का नेतृत्व तो धर्म-दर्शन तथा अध्यात्म के सहारे धार्मिक भावनाएँ उभार कर देश के जन-मन को गोया पहले ही इसके लिए तैयार कर चुका है। इसी कारण वह विश्वस्त सा है कि उसके भोंपू जो भी स्वर निकालेंगे जनता उसी को शिरोधार्य कर लेगी। सनातनकाल से सहिष्णु भारत के आदर्श चरित्र का इससे अनूठा उदाहरण और हो भी क्या सकता है?
असलियत यह है वास्तविकता को न केवल बेशर्मी से नकारा बल्कि बदसूरत ढंग से ढँका जा रहा है। “दर्द पैर में और इलाज़ दिमाग” का किये जाने की यह पुरानी रवायत है। साधारण भाषा में आप (जनता) इसे ‘टोपी ट्रांसफर’ (टीटी) यानी, “अपनी टोपी क़ुदरत के सिर” डालना कह सकते हैं। कोई स्वभावत: इसे भी ‘टीटी’ के बेहतरीन मॉडल के रूप में पेश करते हुए सरकार का यशोगान करने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
खैर! यहाँ चर्चा मूल विषय पर करना ही उचित और मुफ़ीद रहेगी। महामारी के रूप में प्रचारित ‘कोविड-19’ एक साधारण बीमारी की तरह ही है जिसे इसकी विकरालता से कई गुना अधिक आक्रामक तरीक़े से पेश किया गया। इसके पहले जो भीषण महामारियाँ दुनिया में बड़े पैमाने पर जन-धन का नुकसान कर चुकी हैं उनकी तुलना में कोरोना में एकमात्र मूलभूत अन्तर सिर्फ़ यह समझ आता है कि कोरोना वायरस के द्वारा लोगों को संक्रमित करने की ताक़त दूसरे विषाणुओं की तुलना में अधिक है और इसके लक्षण धीरे-धीरे उभरते हैं जो किसी को अमूमन तब समझ आते हैं जब कोरोना वायरस सम्बन्धित को जकड़ कर पूरा मरीज़ बना चुका होता है। लेकिन इसकी आड़ में व्यवस्था की खामी को तो नहीं ढँका जा सकता। राजनीतिक आज़ादी के 73 साल बीत जाने के बाद भी अभी देश में जन स्वास्थ्य सुरक्षा बेहतरीन बनाने पर 100 रुपये में एक रुपया, 70 पैसा ही खर्च किया जा रहा है। इस पर भी ‘सैम्पल’ को छोड़कर कहीं कोई व्यवस्था स्तर के अनुरूप नहीं है। आम कर्मचारियों के समर्पण की तो बात भी बेमानी होगी!
विश्व में अलग-अलग बीमारियों से हर साल मरने वालों की तुलना में ही अभी तक कोरोना से बहुत कम लोगों की जान गयी है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार संसार में हर वर्ष विभिन्न बीमारियों से मरने वालों की कुल सङ्ख्या 5 करोड़, 70 लाख है। (ये आँकड़े 2017-2018 के हैं। इसके बाद के प्रामाणिक आँकड़े अभी तक अनुपलब्ध हैं।) कोरोना से अभी तक समूची दुनिया में कुल 8,42,166 और भारत में 62,774 लोगों की ही जान गयी है। ‘कोविड-19’ का पहला मामला गत वर्ष (2019) दिसम्बर के आख़िरी हफ़्ते में चीन के वुहान में दर्ज़ किया गया था।
अगरचे इन बीमारियों के मद्देनज़र कोरोना की बात की जाए तो जनवरी के अन्त से अब तक हर दिन का मौतों का औसत 3,800 से 3,900 ही दर्ज़ हुआ है। मतलब डायरिया से भी कम। मुमकिन है कि गत आठ महीनों से ज़ारी इस कोरोना-काल में हो रहीं मौतों का औसत आने वाले एक-दो महीने तक बढ़ते हुए हर दिन 5,000 से 6,000 तक हो जाए। अनुमानों के अनुसार इसके आगे इसका घटाव निश्चित है। साल पूरा होते-होते यह 2,500 से 3,000 के आसपास आने की उम्मीद है। यों भी, दुनिया भर में मौतों की सङ्ख्या घटनी शुरू हो गयी है। ऐसी हालत में इसे भयङ्कर महामारी के रूप में पेश करने और जनता को दहशत में रखने से बरबस बचा जाना चाहिए और जनता की माली हालत सुधारने के बज़ाय उसे बुनियादी तौर पर मज़बूत करने के उपायों पर विचार होना चाहिए। स्वदेशी अपनाने की प्रेरणा अच्छी है हो किन्तु खेती-बारी समेत हमारे आर्थिक जीवन के सभी पारम्परिक संसाधन कैसे पुनर्जीवित हों, इसका उपाय अविलम्ब और प्राथमिकता से किया जाना अनिवार्य है। अन्यथा हमारी अर्थव्यवस्था को संभालना ‘ब्रह्मा’ के भी वश में नहीं रहेगा। चकाचौंध से जन-जन को अन्धा कर चुका ‘बनावटी मॉडल’ एक न एक दिन भरभरा कर बैठना तय है।
(लेखक राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्येता हैं।)
दुनिया में विभिन्न बीमारियों से
हर साल मरने वालों की तादाद
(सभी आँकड़े 2017-2018)
हृदय रोग :: हर साल क़रीब दो करोड़ (17.79 मिलियन)
यानी हर दिन (48,742)
कैंसर :: पञ्चानवे लाख (9.56 मिलियन)
हर दिन (26,181)
श्वसन तंत्र :: लगभग पैंसठ लाख (6.47 मिलियन)
हर दिन (17,734)
टीबी :: हर साल पन्द्रह लाख (1.5 मिलियन)
हर दिन (4000)
डायबिटीज़ :: हर साल चौदह लाख (1.37 मिलियन)
हर दिन (3,753)
डायरिया :: हर साल सोलह लाख (1.57 मिलियन)
हर दिन (4,300)