आलोक मेहता
राक्षस कभी किसी भी रूप में तबाही के लिए आ सकता है. इसी तरह जहर के अनेक रूप होते हैं. वह दवा के रूप में मिल सकता है, नशे के रूप में मिल सकता है, तस्करी और हथियारों के रास्ते से हजारों जान ले सकता है. सुशांत सिंह की संदिग्ध मौत की जांच के दौरान मुंबई के बॉलीवुड और राजनीतिक प्रशासनिक तंत्र में ड्रग्स के नशे एवं धंधों की परतें खुलने के आसार दिख रहे हैं.
मुंबई ही नहीं दिल्ली से कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर प्रदेशों तक यह खतरनाक धंधा फैला हुआ है. निश्चित रूप से फिलहाल इस एक प्रकरण की जांच और कानूनी प्रक्रिया लंबी चलेगी, लेकिन जरूरत इस बात की होगी कि भारत में पिछले वर्षों के दौरान केमिकल्स, दवाई, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार-पर्यटन की आड़ में ड्रग्स के जहर से समाज की बर्बादी के लिए चल रही गतिविधियों को कठोरता से कुचला जाए.
सामान्यतः यह धारणा रहती है कि ड्रग्स के तार केवल विदेश से जुड़े हुए हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, थाईलैंड या अफ्रीकी देशों से चोरी छिपे और माफिया की तस्करी से ड्रग्स पहुंचने के मामले सामने आते रहे हैं. ड्रग्स पर पचासों फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन यदि भारत में प्रवर्तन निदेशालय (ED), नारकोटिक्स ब्यूरो (NCB), सीबीआई (CBI) की पिछले 25 से 30 वर्षों के दौरान भारत में ही अफीम गांजे से अवैध रूप से तैयार या तस्करी की गई मादक सामग्री के प्रकरणों पर शोधनुमा अध्ययन किया जाए, तो बेहद चौंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं.
सबसे दुखद तथ्य यह है कि बहुत कम प्रकरणों में सजा के साथ अपराधियों, कंपनियों, अधिकारियों और नेताओं पर कार्रवाई हुई है. प्रारंभिक वर्षों में तो इस तरह के मामले केवल सीबीआई के अधीन ही रहते थे. पत्रकार के नाते सीबीआई के निदेशक डी सेन (1973-74) से किए गए पहले इंटरव्यू से अब तक अनेक निदेशकों और फिर प्रवर्तन निदेशालयों के निदेशकों से चर्चा और उनके सहयोगियों से अनौपचारिक ढंग से मिली जानकारियों ने बहुत विचलित रखा है. उनकी या अदालतों तक कि समस्या यह रही है कि इस धंधे में सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाले लोग किसी दस्तावेज में सामने नहीं मिल पाते.
वे हमेशा प्रतिष्ठा के मुखौटे लगाए घूमते हैं. देश विदेश के संपर्क और सत्ता के संपर्क से एक हद तक मीडिया पर भी उनका प्रभाव रहा है. शायद यह पहला अवसर है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने इस जहरीले धंधे पर नियंत्रण के लिए जांच एजेंसियों को पूरी छूट देकर किसी को भी नहीं बख्शने के आदेश दिए हुए हैं. यही नहीं अंतर्राष्ट्रीय गुप्तचर एजेंसियों का सहयोग भी लिया जा रहा है. इसकी वजह यह है कि ड्रग्स के धंधे का विस्तार होने से भारत के लाखों युवकों, युवतियों, गरीबों-अमीरों को नशे, अवैध कमाई, अपराध की तरफ धकेला जा रहा है.
यों अफीम गांजे के उत्पादन और बिक्री पर सरकार का नियंत्रण रहता है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड अफीम के उत्पादन में अग्रणी राज्य हैं. इसलिए वैध या अवैध कारोबार के लिए इन इलाकों में वर्षों से तस्कर, व्यापारी, पुलिस, नेता के गठजोड़ की जानकारियां केंद्रीय एजेंसियों को मिलती रहती हैं. अफीम से केमिकल्स बनाने के नाम पर अफीम मंगवाने वाली एक नामी केमिकल्स कंपनी के ट्रक रास्ते से गायब हो जाने का एक प्रकरण सामने आने पर बीस साल पहले हुई कार्रवाई में निचले स्तर के मैनेजर तक कार्रवाई सीमित रह गई.
यही नहीं जांच करने वाले एक प्रवर्तन निदेशक को ही हटा दिया गया. इसी तरह एक और ईमानदार निदेशक ने कई बड़े धंधेबाज और नेताओं से जुड़े मामले खोलने की कोशिश की, तो पहले उसका तबादला किया गया और देर सबेर उसके मुंह खोलने की आशंका होने पर इस तरह आतंकित किया गया कि एक रात दिल का दौरा पड़ने से उसकी मौत हो गई. इस तरह इसे प्राकृतिक मौत ही बताया गया.
पंजाब, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों या नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़-झारखण्ड जैसे में हथियारों के तस्कर, आतंकवादी मादक पदार्थों का सहारा लेकर ही अपनी गतिविधियां संचालित करते हैं. मासूम बच्चों, महिलाओं का उपयोग किया जाता है. उन्हें नशे पर निर्भर बनाकर उन्हें मरने मारने के लिए तैयार किया जाता है. यही माफिया दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में सिगरेट, गांजे, हुक्के के माध्यम से किशोर, युवक-युवतियों को अपने जाल में फंसा रहा है. यदा कदा पुलिस कार्रवाई होती है. लेकिन समाज में यह नशीला जहर जितनी तेजी से पैर पसार रहा है, सामान्य पुलिस से काबू पाना मुश्किल लगता है.
जहर के धंधे से ही कई देश पतन की कगार पर
अफ्रीका के कुछ देश या अफगानिस्तान-पाकिस्तान इस जहर के धंधे से ही पतन के कगार पर पहुंच गए हैं. लंदन-न्यूयॉर्क-पेरिस या टोक्यो और बैंकॉक जैसे शहर मादक पदार्थों के बढ़ते प्रभाव से परेशान हैं. भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कई एजेंसियां विभिन्न मंत्रालयों विभागों से जुड़ी हुई हैं. उनमें फाइलें घूमती हैं. अफसरों में प्रतियोगिता के साथ टकराव होता है. कानूनी प्रक्रिया वर्षों तक चलने से अधिकारी बदलते ही नहीं दुनिया से भी दूर चले जाते हैं.
आवश्यकता इस बात कि है कि इस तरह के अपराध के लिए एक सशक्त समन्वित एजेंसी और विभाग हो तथा विश्रेष्ठ अदालतों में समय सीमा के साथ अभियुक्त दण्डित हों. दूसरी तरफ जाने अनजाने मीडिया का एक वर्ग भी मोह या भ्रम जाल में फंस जाता है. यदि ताजे प्रकरण की ही बात की जाए तो सुशांत सिंह मामले में जब ड्रग्स माफिया के तार जुड़े होने की आशंका सामने आने लगी तो एक अति प्रगतिशील कहलाने वाले नामी पत्रकारों और उनके मीडिया संस्थानों ने अन्य मीडियकर्मियों द्वारा इस मामले को तूल दिए जाने के आरोप मढ़ते हुए विरोधी अभियान ही शुरू कर दिया.
यह भी संभव है कि पर्दे के पीछे उनके आका इस धंधे से लाभ कमा रहे हों. वे यह भूल जाते हैं कि ड्रग्स के जहरीले धंधों से ही बीमारी, बेरोजगारी, गरीबी, अपराध, अत्याचार बढ़ते हैं. सरकार किसी की भी हो, समाज और भविष्य को खोखला करने वाले तत्वों को जड़ से नष्ट करना जरूरी है. जर्मनी-जापान-सिंगापुर जैसे देशों ने पूरी शक्ति लगाकर कठोरतम कानूनों से नशे के जहरीले नागपाश को नियंत्रित किया है. चीन में तो मौत दंड तक का प्रावधान है. भारत में मानव अधिकारों के नाम पर आतंकवादियों, तस्करों, नकाबपोश धनपतियों और नेताओं के प्रश्रय से फल फूल रहे अपराधियों को राहत नहीं दी जानी चाहिए. मुंबई से शुरू हुआ अभियान पूरे देश में जारी रखना होगा.
लेखक: वरिष्ठ पत्रकार हैं.