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अब नागाओं का वास्तविक हितधारक और हितैषी नहीं है NSCN (IM): अन्य स्टेकहोल्डर्स को भी शामिल किए जाने की माँग

सन 2014 में मोदी सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच हुए समझौते में इस हिंसावादी संगठन ने कई अनुचित माँगों को डलवाया था। समझौते के दौरान एनएससीएन (आईएम) द्वारा रखी गई एक शर्त विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इस संगठन ने समझौते में यह शर्त रखी थी कि शांति-वार्ता केवल भारत सरकार के शांति-वार्ताकार और एनएससीएन (आईएम) (नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड) के बीच ही हो। उसमें अन्य सशस्त्र संगठनों, शांति-समूहों या व्यापक नागरिक समाज की कोई भागीदारी न हो। इस शर्त के माध्यम से इस संगठन ने अन्य सभी ‘स्टेकहोल्डर्स’ को हाशिए पर कर दिया है, और अपनी केन्द्रीय भूमिका और स्थिति सुनिश्चित कर ली है।

इस शर्त का मूल कारण यह है कि यह संगठन नागा-समस्या के समाधान की प्रक्रिया पर अपना एकाधिकार और वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। जबकि, आज नागा-समस्या के वास्तविक स्टेकहोल्डर्स कई अन्य संगठन हैं।

नागालैंड में कुल 14 नागा समुदाय रहते हैं। उनकी संख्या कुल नागा जनसंख्या का 80 फीसदी है। इन समुदायों के अलग-अलग छात्र संगठन और महिला संगठन हैं। इसके नागालैंड गाँव बूढ़ा फेडरेशन (1585 गाँव प्रमुखों की सर्वोच्च संस्था), नागा ट्राइब्स कौंसिल और नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप जैसे अनेक प्रभावी संगठन हैं, जो कि नागा अस्मिता और अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से कार्यरत हैं।

ये ‘नागा क्लब’ और ‘नागा पीपुल्स कन्वेंशन’ जैसे संगठनों की वैचारिक विरासत और कार्यशैली के उत्तराधिकारी संगठन हैं। ये संगठन नागा समुदाय के वास्तविक हितैषी और हितधारक हैं। 7 नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुपों ने मिलकर शांति-वार्ता में भागीदारी और समस्या के समाधान के लिए एक ‘वर्किंग कमेटी’ भी बनाई है।

इनके अलावा 7 सशस्त्र संगठन भी हैं, जो भूमिगत सक्रिय हैं। इन संगठनों के साथ एनएससीएन (आईएम) की हिंसक प्रतिद्वंद्विता है। केंद्र की सरकारों द्वारा शांति-वार्ता और संघर्ष-विराम के दौरान इस संगठन को दिए अत्यधिक महत्व ने उत्तरोत्तर इसका भाव बढ़ाया है। बारीकी से देखें तो केंद्र सरकार ने इस हिंसावादी संगठन को नागा हितों का ‘कॉपी राइट’ देकर इसकी शक्ति और महत्व को अनायास बढ़ाया है। इस संगठन को नागा हितों का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन और हितधारक मानना और सिर्फ इसके साथ ही शांति-वार्ता और संघर्ष-विराम करना ऐतिहासिक रणनीतिक भूल है।

अपनी स्थापना के प्रारम्भिक समय में इस संगठन ने बेहिसाब खून-खराबे और दहशतगर्दी के बल पर खूब राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोरीं। यह उसकी कुटिल रणनीति थी जो बेहद कामयाब हुई। उसने न सिर्फ सुरक्षा बलों, पुलिसवालों, उद्योग-धंधे चलाने वालों और राजनेताओं की नृशंस हत्याएँ कीं, बल्कि अपने असंख्य नागा भाई-बहिनों को भी बेरहमी से मौत के घाट उतारा।

इस खून-ख़राबे और दहशत के बल पर यह संगठन नागा अस्मिता और अधिकारों का स्वघोषित एकमात्र संगठन बन बैठा। इस संगठन को नागा हितों का एकमात्र झंडाबरदार बनाने में राष्ट्रीय मीडिया और एक-के-बाद एक आने वाली केंद्र सरकारों की भी बड़ी भूमिका रही है। पिछले 24 साल में हुई शांति-वार्ताओं और संघर्ष-विरामों ने इस संगठन को लगातार खुराक दी है।

एकदम शुरू में विभिन्न नागा समुदायों की काफी बड़ी संख्या का इस संगठन से भावनात्मक जुड़ाव था। लेकिन इसके सभी महत्वपूर्ण पदों पर मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय के हावी होते जाने से लोगों का मोहभंग होने लगा। उल्लेखनीय है कि इस संगठन का स्वयंभू चीफ थुंगालेंग मुइवा भी मणिपुर के अल्पसंख्यक नागा समुदाय तन्ग्खुल से ही है।

उसने सुनियोजित ढंग से अपने समुदाय को आगे बढ़ाकर अन्य समुदायों को किनारे कर दिया और अपनी और अपने समुदाय की स्थिति अत्यंत मजबूत कर ली। किन्तु इस प्रक्रिया में इस संगठन की विश्वसनीयता में भारी गिरावट आयी और मुइवा का यह जेबी संगठन नागाओं का प्रतिनिधि संगठन न रहकर तन्ग्खुल समुदाय का प्रतिनधि संगठन मात्र रह गया है।

परिणामस्वरूप अनेक नागा समुदायों ने अपने पृथक और स्वतंत्र संगठन बना लिए हैं। उन्होंने एनएससीएन (आईएम) या कहें तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व वाले पैन नागा हो-हो, नागा स्टूडेंट फेडरेशन और नागा मदर्स एसोसिएशन जैसे संगठनों से सम्बन्ध और सदस्यता-विच्छेद कर लिया है।

यह इस संगठन के सीमित और अल्पसंख्यक आधार का प्रमाण है। इसकी स्वीकार्यता और विश्वसनीयता में भारी गिरावट आई है। इसलिए केवल एनएससीएन (आईएम) को नागाओं का प्रतिनधि संगठन और एकमात्र हितधारक मानकर उससे ही वार्तालाप करना अन्य संगठनों और समुदायों की ‘आवाज’ की उपेक्षा करने जैसा है।

केंद्र सरकार और उसके रणनीतिकारों को इस बार उस भूल से बचने की जरूरत है, जो पिछले 24 साल में बार-बार दुहराई गई यह भूल नागा-समस्या के समाधान के लिए होने वाली शांति-वार्ता का एक मात्र स्टेकहोल्डर एनएससीएन (आईएम) को मानने और उसकी आपराधिक गतिविधियों का गंभीर संज्ञान लेकर उन पर अंकुश न लगाने की थी।

शांति-वार्ता और तद्जन्य संघर्ष-विराम को नई-नई वजहों से लम्बा खींचना उसकी पुरानी और अत्यंत लाभप्रद रणनीति रही है। इस बार केंद्र सरकार को शांति-वार्ता को समयबद्ध ढंग से पूरा करने के लक्ष्य के साथ अन्य स्टेकहोल्डर्स को भी वार्ता के दायरे में शामिल करना चाहिए।

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