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इस्लामी अरब मुल्कों के बीच कैसे अपना अस्तित्व बचाए हुए है दुनिया का एकमात्र यहूदी राष्ट्र: वो संघर्ष, जहाँ UN भी फेल

यहूदी राष्ट्र इजरायल और फिलिस्तीन के बीच का संघर्ष काफी पुराना है और जिस तरह से फिलिस्तीनी आतंकी संगठनों को इजरायल नेस्तनाबूत कर के रखता है, सभी की नजरें इस संघर्ष पर रहती हैं। आए दिन इस संघर्ष को लेकर ख़बरें आती रहती हैं और हाल ही में सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की मुलाकात के बाद फिर चर्चाओं का बाजार गर्म है। आज से 53 साल पहले ही संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन के बँटवारे के प्रस्ताव की मंजूरी दी थी।

इजरायल का संघर्ष और फिलिस्तीन के हमले

हालाँकि, इस प्रस्ताव को जमीन पर उतारा नहीं जा सका, क्योंकि अरब मुल्कों ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। वहीं इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद से ही क्षेत्रीय युद्ध शुरू हो गया और इसी कारण इसे कभी भी लागू नहीं कराया जा सका। जहाँ इस क्षेत्र को फिलिस्तीन और यहूदियों के बीच बाँटने को कहा गया, वहीं उससे पहले अंग्रेजों की सेना को वापस जाना था। अंग्रेजों ने हमेशा से यहूदी राष्ट्रवाद का समर्थन किया था।

इतिहास को समझने के लिए पहले भूगोल को जान लेना चाहिए। इजरायल दुनिया का एकमात्र यहूदी राष्ट्र है। ये मेडिटेरेनियन समुद्र के पूर्व में स्थित है। इजरायल और फिलस्तीन का आज का पूरा झगड़ा इसी बार पर टिका है कि कौन कितनी ज्यादा भूमि पर कब्ज़ा करेगा। दोनों हजारों वर्षों पहले के इतिहास का जिक्र करते हुए अपने-अपने कब्जे का दावा करते हैं। लेकिन, ये सब 20वीं शताब्दी में यूरोप में यहूदियों के नरसंहार से शुरू हुआ।

यहूदियों पर अत्याचार इस कदर बढ़ गया कि वो भाग कर इस क्षेत्र में आने लगे, जो ऑटोमन साम्राज्य और ब्रिटिश राज का हिस्सा था। एक तरह से यहाँ अरबी मुस्लिमों का बोलबाला था। आज इजरायल और उसके आसपास के अरब देशों के बीच जिस सीमा को हम देखते हैं, वो कई युद्धों का नतीजा हैं, जिनमें 1948 और 1967 का युद्ध प्रमुख है। 1967 में ही वेस्ट बैंक और गाजा स्ट्रिप पर इजरायल का कब्ज़ा हुआ, जहाँ बड़ी संख्या में फिलिस्तीनी थे।

वेस्ट बैंक का आज अधिकतर हिस्सा इजरायल के पास है और वहाँ की सेना ने पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी तैनाती कर रखी है। साथ ही साथ इजरायली समाज ने वहाँ कई कम्युनिटी बना रखी है। अब ‘टू स्टेट थ्योरी’ कागज पर तो है, लेकिन इसे लागू करने को लेकर दोनों पक्षों में अलग-अलग राय है। हालाँकि, पूरे क्षेत्र को लेकर एक फिलिस्तीन या एक इजरायल बना देने का भी समाधान है, जिसे ‘वन स्टेट थ्योरी’ भी कहते हैं, लेकिन इससे समस्याएँ और बढ़ेंगी।

सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों ने इजरायल नामक राष्ट्र को जन्म दिया। अरब मुल्कों ने यहूदियों की बड़ी संख्या में आने को यूरोप के अतिक्रमण के रूप में देखा। इजरायली ताकतों ने फिलिस्तीनी अभियान को हरा दिया और 7 लाख फिलिस्तीनी शरणार्थियों ने अपने लिए जगह बना ली। इससे पहले जेरुसलम पर जॉर्डन का कब्ज़ा था। इस तरह से फिलस्तीनियों ने अपना गाजा क्षेत्र बनाया और इजरायल ने एक अलग राष्ट्र बनाया।

इजरायल और फिलिस्तीन के संघर्ष में आतंकियों की भूमिका

गाजा में इजरायल की सैन्य उपस्थिति हुआ करती थी, लेकिन 2005 में उसने एकतरफा रूप से वापस ले लिया। इजरायल को लगता है कि फिलिस्तीन का इस्तेमाल इजरायल पर हमले के लिए लॉन्चपैड के रूप में किया जा सकता है, इसीलिए वो सीमा पर तकनीकी रूप से तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था रखता है। इससे पहले 1967 तक गाजा पर इजिप्ट का कब्ज़ा था। गाजा में हमास की सरकार चलती है, जो इजरायल के खिलाफ संघर्ष का दावा करता रहा है।

हमास और गाजा में स्थित अन्य आतंकी संगठनों ने अब तक इजरायल पर न जाने कितने ही रॉकेट्स दागे होंगे, लेकिन इजरायल ने हर बार तगड़ा जवाब दिया है। अब स्थिति ये है कि हमास में बिजली और भोजन से लेकर मेडिकल सप्लाइज तक की दिक्कतें हैं और वो सब इजरायल के साथ उनके युद्ध की वजह से। जहाँ तक भारत की बात है, उसके इन दोनों ही देशों से अच्छे सम्बन्ध हैं। इजरायल से ‘पीपल टू पीपल कॉन्टैक्ट’ अच्छा है।

भारत और इजरायल के सम्बन्ध मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से और प्रगाढ़ हुए हैं। एक बार जब विपक्षी दलों ने इस पर आपत्ति जताई थी, तो तत्कालीन केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में जवाब दिया था कि फिलिस्तीन को भारत-इजरायल के प्रगाढ़ होते संबंधों से ख़ुशी है, इससे उसे कोई परेशानी नहीं है और वो इसे अच्छे रूप में देखता है। सुषमा का मानना था कि इससे फिलिस्तीन को लगता है कि उसके और इजरायल के बीच भारत एक सेतु बन सकता है।

2008-09 में इजरायल और हमास के बीच बड़ा संघर्ष हुआ था और उसके बाद 2012 में स्थिति बिगड़ी थी। यहाँ इंतिफाद की बात करनी ज़रूरी है, जो 1990 और फिर 2000 के दशक में सतह पर आए थे और इसके तहत इजरायल के खिलाफ आतंकी गतिविधियों को तेज़ किया गया था। दूसरे इंतिफाद के बाद से ही दोनों क्षेत्रों में रिश्ते बिगड़ते चले गए। पहले इंतिफाद में अहिंसा का सहारा लेने का दावा किया गया था।

जैसे, फिलिस्तीनियों ने इजरायल में काम करना बंद कर दिया। लेकिन, उन्होंने पत्थरबाजी जम कर की, जो आज भी कई इस्लामी इलाकों में इस्तेमाल किया जाता है। जम्मू कश्मीर में कट्टरपंथियों ने सुरक्षा बलों पर अक्सर जम कर पत्थरबाजी की थी। इसी तरह इस्लामी दंगों में ऐसा ही किया जाता है। हालाँकि, इजरायली सैनिकों ने मुँहतोड़ जवाब दिया, जिससे कई फिलिस्तीनी आतंकी मारे गए। दूसरा इंतिफाद बड़ा ही हिंसक साबित हुआ।

2000 तक दोनों पक्षों के बीच स्थिति खासी ख़राब हो गई थी और इस तरह से फिर से हिंसक संघर्ष का दौर शुरू हुआ। फिलिस्तीनियों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए और इजरायली सैनिकों ने उन्हें नेस्तानाबूत करना जारी रखा। हुआ ये कि इजरायल में जो शांतिपूर्ण ढंग से इस समस्या का समाधान चाहते थे, वो भी अब सशंकित हो गए और इससे इजरायल को हथियारों से जवाब देने में और ज्यादा आसानी हुई।

क्यों यहूदियों का पक्का दोस्त बन गया है अमेरिका?

इसमें एक बड़ा फैक्टर है अमेरिका, जो इजरायल का दोस्त है और दोनों कदम-कदम पर साथ रहे हैं। अमेरिका ने इजरायल को करोड़ों डॉलर की सहायता दी है और कूटनीतिक रूप से भी हमेशा साथ दिया है। 1956 के ‘Suez युद्ध’ में इजरायल ने यूके और फ़्रांस के साथ मिल कर इजिप्ट के खिलाफ लड़ाई की थी, जिससे तत्कालीन अमेरिकी सरकार खासा नाराज था। इस तरह इजरायल के पहले दशक में अमेरिका से उसके रिश्ते उतने अच्छे नहीं थे।

अब देखिए, अमेरिका और संयुक्त रूस (USSR) के बीच के छद्म युद्ध के बारे में आपको पता ही होगा। मध्य-पूर्व में उस वक्त रूस का खासा प्रभाव था और इसी प्रभाव को न्यूट्रलाइज करने के लिए अमेरिका को इजरायल में एक मित्र दिखने लगा। अमेरिका ने 70 के दशक में इजरायल पर एक अचानक होने वाले अरब के हमले से रक्षा की, जिसके बाद दोनों के रिश्ते और प्रगाढ़ हो गए। लोकतंत्र और जिहादी आतंक के खिलाफ लड़ाई, दोनों मामलों में इजरायल और अमेरिका ने एक-दूसरे को अपना करीबी पाया।

अमेरिका आज की तारीख में इजरायल को प्रतिवर्ष 3 बिलियन डॉलर की सहायता करता है। अब तक वो उसे कुल 118 बिलियन डॉलर की सहायता दे चुका है। हालाँकि, बराक ओबामा के काल में ज़रूर ईरान को लेकर दोनों देशों के अधिकारियों में टकराव होता रहा। 2015 में एक भाषण में भी इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू ने ओबामा की ईरान नीति को लेकर आलोचना की थी। डोनाल्ड ट्रम्प ने जेरुसलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी, जिससे ये सम्बन्ध और सुधरे।

अब कुछ देशों की बात करते हैं, जिन पर इजरायल-फिलिस्तीन के रिश्ते का प्रभाव पड़ता है। 1978 में इजरायल-इजिप्ट में अमेरिकी मदद से शांति समझौता हुआ, लेकिन इजिप्ट ने क्षेत्र में आतंकियों की मदद की। सीरिया, इजरायल के दुश्मन ईरान का मित्र है और उसे बुरी नजर से देखता है। लेबनान तो इजरायल विरोधी जिहादी समूह हिज्बुल्ला का घर ही है। इजरायल के पूर्व में स्थित जॉर्डन फिलिस्तीनी शरणार्थियों से भरा हुआ है।

इधर हाल ही में इस रविवार (नवंबर 22, 2020) की देर शाम प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और शाहजादे मोहम्मद बिल सुल्तान करीब 3 घंटे तक सऊदी अरब के नियोम शहर में खुफिया तौर पर मिले। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो भी इस दौरान वहाँ मौजूद थे। संकेत हैं कि इस ख़ुफ़िया मुलाकात में दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध कायम करने के साथ साथ ईरान और तुर्की के बारे में भी बातचीत हुई।

याद रखने की बात है कि पिछले कुछ महीनों में पश्चिम एशिया के कई इस्लामी देश इजराइल के साथ राजनयिक संबंध कायम कर चुके हैं। इनमें सूडान, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन शामिल है। अमीरात और इजरायल के बीच पहली उड़ान सऊदी अरब से ऊपर उड़ कर गई। इससे पहले ऐसी सोच भी मुमकिन नहीं थी। पिछले महीने ही पहला समुद्री व्यापारिक जहाज़ इजरायल से संयुक्त अरब अमीरात पहुँचा। पश्चिम एशिया का यह नया गठजोड़ दरअसल एक तरफ तुर्की के खिलाफ है तो दूसरी तरफ ईरान के भी खिलाफ है।

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