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राजस्थान के सबसे बड़े ‘मिनी चुनाव’ में BJP को 1836 + 323 सीटें: CM, पूर्व डिप्टी CM और अध्यक्ष के क्षेत्रों में कॉन्ग्रेस की हार

राजस्थान में पंचायत समिति और जिला परिषद के चुनाव परिणाम में कॉन्ग्रेस को हार मिली है। ‘किसान आंदोलन’ को लेकर कॉन्ग्रेस के आक्रामक रवैये के बावजूद गाँवों की जनता ने भाजपा पर ही भरोसा जताया। कॉन्ग्रेस के लिए स्थति इतनी खराब हो गई कि प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट – तीनों के ही गृह जिलों में पार्टी को मुँह की खानी पड़ी है।

फाइनल रिजल्ट्स की बात करें तो पंचायत समिति चुनाव में कॉन्ग्रेस ने 1836 और भाजपा ने 1718 सीटों पर जीत दर्ज की है। वहीं जिला परिषद के चुनावों में 323 सीटों पर भाजपा को विजय मिली और कॉन्ग्रेस 246 सीटों पर जीती। पिछले एक दशक में ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी सत्ताधारी पार्टी को पंचायत चुनावों में हार मिली हो। निर्दलीयों को भी 422 सीटें मिली हैं। कॉन्ग्रेस को ग्रामीण इलाकों में फजीहत का सामना करना पड़ा है।

प्रदेश अध्यक्ष डोटासरा के लक्ष्मणगढ़ में 25 में से भाजपा ने 13 सीटें जीत कर बहुमत प्राप्त किया, वहीं कॉन्ग्रेस 11 पर अटकी रह गई। पूर्व उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट के एरिया टोंक में भाजपा ने 19 में से 9 सीटें जीती, तो कॉन्ग्रेस 7 पर आकर रुक गई। स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा के अजमेर में तो 11 में से 9 सीटें भाजपा ले गई। सहकारिता मंत्री उदयलाल आंजना के निंबाहेड़ा में 14 में से 14 सीटें भाजपा को मिलीं।

खेल मंत्री अशोक चांदना के हिण्डोली में 23 में से 13 पंचायत समिति की सीटों पर भाजपा ने जीत का परचम लहराया। उप मुख्य सचेतक महेंद्र चौधरी के नाँवा में 21 में से 14 सीट भाजपा ने झपट लिए। प्रदेश और जिला स्तर तक कॉन्ग्रेस संगठन में न वो जोश दिखा और न ही सक्रियता। जयपुर, कोटा और जोधपुर नगर निगम चुनावों की गलतियाँ दोहराते हुए विधायकों को सिंबल दे दिया गया और उन्होंने अपने रिश्तेदारों में टिकट बाँट दिए।

टिकट बेचने तक के भी आरोप लगे हैं। परिवारवाद के आरोपों के बीच कॉन्ग्रेस को घाटा हुआ। अगले साल होने वाले विधानसभा उपचुनाव से पहले पार्टी के मनोबल को ठेस पहुँची है। आने वाले दिनों में पार्टी संगठन में होने वाली नियुक्तियों में इसका असर देखने को मिल सकता है और हार का ठीकड़ा फोड़ने के लिए सिर-फुटव्वल हो सकती है। अब बात करते हैं अशोक गहलोत के गढ़ पाली की, जहाँ 10 साल पहले कॉन्ग्रेस का दबदबा था।

पाली में जिला परिषद के 33 वार्डों में से 30 पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया। वहीं पंचायत समिति की बात करें तो 10 में से 9 सीटें जीत कर भाजपा ने बड़ा बहुमत प्राप्त किया। कॉन्ग्रेस अब तक गहलोत-पायलट गुट में ही बँटी हुई है और पार्टी नेतृत्व का फायदा संगठन को नहीं मिला। संगठन में समन्वय नहीं दिखा। कई नेताओं ने जनता के बीच निकलना भी ठीक नहीं समझा। वहीं भाजपा ने गंभीरता से चुनाव लड़ा।

भाजपा के जनप्रतिनिधि बूथों तक पहुँचे। संगठन के नेताओं ने सर्वसम्मति से ही टिकट बँटवारे का निर्णय लिया। बड़े पदाधिकारियों और नेताओं ने अपने क्षेत्रों तक सीमित रह कर वहाँ जीत सुनिश्चित की। पीएम मोदी के चेहरे के अलावा राम मंदिर और अनुच्छेद-370 पर केंद्र के फैसलों को भाजपा ने मुद्दा बनाया। गहलोत सरकार कोरोना को लेकर किए गए कार्यों को गिनाते रही, जिससे जनता संतुष्ट नहीं दिखी।

इससे पहले अक्टूबर 2020 में अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ उनके ही एक विधायक ने मोर्चा खोल दिया था। कॉन्ग्रेसी विधायक बाबूलाल बैरवा ने आरोप लगाया था कि सरकार में न तो दलित विधायकों की बात सुनी जाती है और न ही कर्मचारियों की कोई सुनवाई होती है। उन्होंने कहा था कि सरकार में जो ब्राह्मण मंत्री बैठे हुए हैं वह दलितों के काम नहीं करते हैं। कठूमर विधानसभा क्षेत्र से आने वाले कॉन्ग्रेस के विधायक बाबूलाल बैरवा दलित हैं।

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