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क्या कांग्रेस को चुकानी पड़ेगी विपक्षी एकता की कीमत?

Lok Sabha Election 2024: क्या कांग्रेस को चुकानी पड़ेगी विपक्षी एकता की कीमत?नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव में अभी भले ही एक साल का वक्त बाकी हो, लेकिन अभी से सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं. नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल पूरे होने के साथ ही बीजेपी चुनावी मोड में उतर चुकी है तो विपक्षी एकता के लिए 23 जून को पटना में विपक्षी दलों की बैठक होने जा रही है. वहीं, बैठक से पहले ही अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी और अखिलेश यादव तक अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस को बहुत ज्यादा राजनीतिक स्पेस देना के मूड में नजर नहीं आ रहे हैं. ऐसे में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता होगी या नहीं, यह कांग्रेस के स्टैंड पर निर्भर करेगा?

क्षेत्रीय दलों का विपक्षी एकता फॉर्मूला

ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव तक साफ कह चुके हैं कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस को उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए, जहां पर उसका सीधा मुकाबला बीजेपी से रहा है और जिन जगह पर क्षेत्रीय दल मजबूत है, वहां पर कांग्रेस विपक्ष को समर्थन करे. इस तरह से क्षेत्रीय दल चाहते हैं कि देश की कुल 543 लोकसभा सीटों में से करीब 475 सीटों पर बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का एकलौता संयुक्त उम्मीदवार खड़ा हो. विपक्ष तेलंगाना, केरल, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, पंजाब को छोड़कर कांग्रेस के हिस्से में सवा दो सौ सीटें आती हैं. इस फॉर्मूले के तहत कांग्रेस के लिए तकरीबन सवा दो सौ और ढाई सीटों पर ही चुनाव लड़ने का विकल्प बन रहा है.

आम आदमी पार्टी के नेता और केजरीवाल सरकार में मंत्री सौरभ भारद्वाज ने गुरुवार को कहा था कि 2024 में कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी को समर्थन करे तो हम राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगे. इस तरह से सीएम ममता बनर्जी ने भी साफ कर दिया है कि बंगाल में लेफ्ट के साथ कांग्रेस की दोस्ती रहते हुए 2024 में गठबंधन नहीं किया जा सकता है. इस तरह 2024 में विपक्षी एकता के लिए विपक्षी दलों ने कांग्रेस के सामने ऐसी शर्तें रखना शुरू कर दिया है और छत्रप अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा जगह देने के लिए तैयार नहीं हैं.

ये विपक्षी दल अपने यहां कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने के मूड में नहीं दिख रहे हैं. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में ज्यादा से ज्यादा सीटें अपने पास ही रखना चाहती हैं, इसी तरह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का भी इरादा कांग्रेस को कम से कम सीटें ही देने का है. वह भी ज्यादातर सीटों को अपने पास ही रखना चाहते हैं. यही स्थिति आम आदमी पार्टी के साथ भी है. आम आदमी पार्टी दिल्ली के अलावा पंजाब में भी सत्तारुढ़ है और इन दोनों ही राज्यों में उसकी स्थिति बेहद मजबूत है और वह भी यहां से कांग्रेस को ज्यादा कुछ देने के मूड में नहीं है. हालांकि ये विपक्षी दल कांग्रेस से बड़ा दिल दिखाने की उम्मीद करते हैं लेकिन वह खुद इसके पक्ष में नहीं दिख रहे हैं.

कांग्रेस के सामने ढाई सौ सीटों का विकल्प

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने टीवी-9 भारतवर्ष से बातचीत में कहा था कि विपक्षी एकता में कई मुश्किलें हैं. कांग्रेस चाहती है कि राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कम से 272 से 300 सीटों पर चुनाव लड़े, लेकिन विपक्ष कांग्रेस को सिर्फ सवा दो सौ से ढाई सौ सीट ही देना चाहता है. ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक की मंशा है कि कांग्रेस उन्हीं सीटों पर अपनी दावेदारी करे, जिन पर 2019 के चुनाव में जीत दर्ज की थी या फिर नंबर दो के पोजिशन पर रही थी. इस लिहाज से देखें तो कांग्रेस 52 सीटें जीती थी और करीब 200 सीटों पर नंबर दो पर रही थी. इस तरह करीब ढाई सौ लोकसभा सीटें पर ही उसके चुनाव लड़ने का विकल्प बन रहा है.

विपक्षी एकता की कीमत क्या कांग्रेस चुकाएगी

रशीद किदवाई कहते हैं कि कांग्रेस को विपक्षी एकता के लिए जहर का घूंट पीना पड़ेगा और बीजेपी को हराना है तो उसकी कीमत भी उसे ही चुकानी पड़ेगी. दिल्ली, पंजाब और गुजरात में कुल 46 लोकसभा सीटें आती है. पिछली बार कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ी थी, लेकिन विपक्षी एकता करनी है तो उसे आम आदमी पार्टी के साथ समझौता करना होगा. इस तरह से महाराष्ट्र में कुल 48 लोकसभा सीटें है, यहां पर कांग्रेस और एनसीपी के बीच पहले सीटों बंटती थी, लेकिन अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी शामिल है. 2019 में कांग्रेस राज्य 25 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन इस बार उसे 15 सीटों पर चुनाव लड़ना पड़ सकता है. इसी तरह से बिहार में पिछली बार कांग्रेस ने आरजेडी के साथ सीट बंटवारा किया था. कांग्रेस 8 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन इस बार आरजेडी, जेडीयू से लेकर लेफ्ट दलों तक के बीच सीट बंटवारा करना होगा. ऐसे में कांग्रेस को पिछली बार से कम सीटें मिल सकती हैं. इसी तरह से झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्यों में भी उसे समझौता करना पड़ सकता है.

कांग्रेस कितनी सीटों पर होगी रजामंद

आजादी के बाद से कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती रही है. पिछले चुनाव को लेकर ही देखें तो 2014 में 543 सीटों में से 464 और 2019 के लोकसभा चुनाव में 421 सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. 2019 में कांग्रेस 52 सीटें जीती थी और 200 सीटों पर नंबर दो पर रही थी. यही वजह है कि कांग्रेस 2024 के चुनाव में कम से कम 300 सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बना रही है, क्योंकि उसे पता है कि सवा दो सौ और ढाई सौ सीटों पर चुनाव लड़कर सत्ता में किसी भी सूरत में नही आ सकती है. कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला वाली सीटों नतीजे देखें तो उनमें से 90 फीसदी सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं कि कांग्रेस इस बात को बाखूबी समझती है कि अगर विपक्ष के फॉर्मूले पर चलती है तो फिर सत्ता के सिंहसान तक नहीं पहुंच सकती. ऐसे में 300 सीटों पर ही लड़कर वो सवा सौ सीटें जीतने की स्थिति बनती है.

कम से कम 272 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है कांग्रेस

रशीद किदवई ने बताया कि 2024 में कि बीजेपी के खिलाफ वन टू वन की फाइट होती है. ऐसे में कांग्रेस अगर दो सौ सीटों पर चुनाव लड़ती है तो फिर बहुत बेहतर स्थिति में नहीं होगी. इसीलिए कांग्रेस चाहती है कि कम से कम 272 सीटों पर चुनाव लड़े, जिसमें से सवा सौ सीटों पर उसकी जीत की संभावना बन सकती है. इसके अलावा ढाई सौ सीटों पर लड़ती है तो 75 से 100 के बीच ही रह जाएगी. बीजेपी को सत्ता से तभी बेदखल किया जा सकता है जब कांग्रेस कम से कम 125 सीटें जीते और गैर-बीजेपी क्षेत्रीय दल डेढ़ सौ सीटें जीते. इसके लिए महज कांग्रेस को ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों को भी समझौते करने होंगे.

कर्नाटक नतीजों के बाद हौसले बुलंद

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के हौसले बुलंद है और खुलकर पीएम मोदी पर हमले कर रही है. राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी तक सक्रिय है और देश भर में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में जुटे हैं. कांग्रेस इस बात को जानती है कि उसके बिना विपक्षी एकता संभव नहीं है, इस बात को नीतीश कुमार से लेकर तमाम विपक्षी नेता भी बाखूबी समझ रहे हैं. इसी वजह से कांग्रेस को साथ लेने की कोशिश हो रही है, लेकिन क्षेत्रीय दल बहुत ज्यादा कांग्रेस को सियासी स्पेस नहीं देना चाहते हैं. इसकी वजह यह है कि केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव और ममता बनर्जी तक जिस सियासी आधार पर खड़ी है, वो कभी कांग्रेस का हुआ करता था. ऐसे मे कांग्रेस को उभरने से उन्हें अपनी सियासी जमीन खिसकने का भय सता रहा है.

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