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कभी एक्टर पीछे हट गए, कभी डिस्ट्रीब्यूटर ही नहीं मिले… ’72 हूरें’ के डायरेक्टर से जानिए फिल्म को रिलीज़ करने में क्यों लग गए 11 साल

संजय पूरन सिंह चौहान, 72 हूरें, फिल्म निर्देशकआतंकवाद और इस्लामी कट्टरपंथ की समस्या पर बनी फिल्म ’72 हूरें’ शुक्रवार (7 जुलाई, 2023) को रिलीज हो गई है। गुलाब सिंह तँवर द्वारा निर्मित इस फिल्म को संजय पूरन सिंह चौहान ने निर्देशित किया है। उन्हें इस दौरान 11 वर्षों में कई दौर के संघर्षों से गुजरना पड़ा, तब जाकर ये फिल्म आज थिएटरों में आई है और इसे अच्छी समीक्षाओं के साथ-साथ दर्शकों का प्यार भी मिल रहा है। ऑपइंडिया ने ’72 हूरें’ के डायरेक्टर संजय पूरन सिंह चौहान से इन्हीं मुद्दों पर बातचीत की और जाना कि इस फिल्म को बनाने के दौरान उन्हें किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

संजय पूरन सिंह चौहान के बारे में बता दें कि वो फिल्म निर्देशक होने के साथ-साथ स्क्रीनराइटर भी हैं। वो 2010 में आई फिल्म ‘लाहौर’ के लिए जाने जाते हैं। उन्हें सर्वश्रेष्ठ डेब्यू फिल्म डायरेक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिल चुका है। ICFT-UNESCO ने उन्हें गाँधी मेडल से नवाजा। गोवा में आयोजित IIFA में उन्हें स्पेशल मेंशन मिला। 1983 में भारत की क्रिकेट वर्ल्ड कप जीत पर बनी फिल्म ’83’ के लिए उन्हें IIFA में बेस्ट अडाप्टेड स्टोरी का अवॉर्ड मिला। वो फिल्मफेयर से लेकर स्टारडस्ट अवॉर्ड्स तक में नॉमिनेट हो चुके हैं। राष्ट्रीय पुरस्कारों और IFFI की जूरी में भी वो शामिल रहे हैं।

प्रश्न 1: फिल्म ’72 हूरें’ को बनने और रिलीज होने में 11 साल लग गए। आखिर इसका कारण क्या है? एक दशक से भी अधिक समय तक आपको संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ा।

जवाब: हमलोग इसके ऊपर लंबे समय से काम कर रहे थे – आईडिया से लेकर लेकर कहानी लिखने तक, सही प्रक्रिया में एक लंबा समय लगा। अक्सर ऐसा होता है कि जब हम कुछ नॉन-कन्वेंशनल काम करते हैं तो फंड्स की समस्या आती है। हमारे जो निर्माता थे, वो पहली बार किसी इस तरह की चीज पर काम कर रहे थे। गुलाब सिंह इस फिल्म का निर्माण कर रहे थे, फिर अशोक पंडित इसमें आकर जुड़े। गुलाब सिंह इस फिल्म को फंड कर रहे थे। बीच-बीच में किसी न किसी कारण से काम रुक जाता था। कई बार अभिनेता भी पीछे हट जाते थे, क्योंकि उन्हें डर होता था कि उनका विरोध होगा, उनके ऊपर समस्या आ जाएगी क्योंकि फिल्म का चेहरा तो वही होंगे। एक-दो बार ऐसा हुआ। हमने इसे जल्दी-जल्दी पूरा करने की सोची, लेकिन उस जल्दी में भी वक्त लग गया। इसके बाद पवन मल्होत्रा के पास हमलोग गए। वो उस समय दूसरे कामों में व्यस्त थे। उन्होंने कहा कि वो इस फिल्म में काम करना तो चाहते हैं, लेकिन थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा। ये 2014-15 के आसपास की बात रही होगी। पवन मल्होत्रा पूर्व से निश्चित फिल्मों में व्यस्त थे। फिल्म पूरा शूट ही नहीं हो पाता था, कोई हिस्सा शूट कर लेते थे, फिर समस्या आ जाती थी। लेकिन, शूटिंग से भी ज्यादा समस्या पोस्ट-प्रोडक्शन में आई। फिल्म तैयार हो गई थी। काफी सारी चुनौतियाँ थीं। इनसे निपटने में भी काफी समय लगा। गुलाब सिंह अपने ही पैसों से फिल्म बना रहे थे, कोई स्टूडियो वगैरह की बैकिंग इसे नहीं थी। जो बड़े प्रोडक्शन हाउस हैं, वो तो इस तरह की हार्ड हीटिंग कंटेंट में हाथ डालते नहीं हैं। हम आउटसोर्सिंग से काम चला रहे थे – किसी से एक काम करवाया, किसी से दूसरा। अंततः, 2019 में हमारी फिल्म तैयार थी और ‘इंडियन पैनोरमा फिल्म फेस्टिवल’ में भी इसे दिखाया जाना था। हमलोग जुलाई 2019 तक तैयार थे, लेकिन दुर्भाग्य से जब हम तैयार हुए तो कोविड-19 महामारी ने दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। दुनिया भर में कई फिल्म फेस्टिवल्स में हमें जाना था। कोरोना के दौरान और उसके बाद भी कुछ समय तक लोग इतने परेशान हो चुके थे कि इस तरह की हार्ड हीटिंग फिल्म के लिए तैयार नहीं थे। फिर जब थिएटर वापस खुलने लगे और दशकों की संख्या भी बढ़ने लगी, फिर हमने डिस्ट्रीब्यूटर्स और एक्सहिबीटर्स ढूँढ़ने शुरू किए। लेकिन, हमें कोई मिला नहीं। फिर हमने इसे छोटे स्तर पर खुद ही डिस्ट्रीब्यूट करने का निर्णय लिया। तभी ‘The Kerala Story’ के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह सामने आए और उन्होंने डिस्ट्रीब्यूशन का बीड़ा उठाया। उनकी कंपनी और उनका दफ्तर इसमें इन्वॉल्व हुआ। वो चाहते हैं कि इस तरह की फ़िल्में दर्शकों के बीच जाएँ। इसके बाद अशोक पंडित भी हमसे जुड़े, जिन्होंने पोस्ट-प्रोडक्शन को आगे बढ़ाने में हमारी काफी मदद की। उन्होंने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। इस साल के शुरू से ही हम रिलीज के लिए सोच रहे थे, लेकिन विशेषज्ञों से सलाह ली जाती है कि फिल्म को कब रिलीज किया जाए। इन्हीं सब में इतना वक्त लग गया।

जवाब: एक बात तो स्पष्ट थी कि जो फिल्म इंडस्ट्री के टॉप एक्टर्स कहे जाते हैं वो तो इस तरह की फ़िल्में करेंगे नहीं। उनकी अपनी एक सोच होती है और वो एक खास तरह का सिनेमा करते हैं, कमर्शियल फ़िल्में करते हैं। उनकी एक छवि होती है, जिस हिसाब से वो प्रोजेक्ट्स चुनते हैं। इसके बाद आते हैं बेहतर एक्टर्स, जो किरदार को उम्दा तरीके से निभाते हैं और लोगों के बीच छाप छोड़ते हैं, लेकिन उनमें से भी कई इस फिल्म को करने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्हें अपने करियर का ख़तरा लग रहा था। जो लोग तैयार भी हुए, उनमें से कुछ ने अंत समय में बैकआउट कर दिया। वो कहने लगे कि इस फिल्म को करने में वो सहज नहीं हैं, उनका परिवार सहज नहीं है। उनका कहना था कि कल को कोई बात न हो जाए, धमकियाँ मिलने लगेंगी।

प्रश्न 3: 2014 के बाद देश में सरकार बदल गई। क्या अपनी फिल्म बनाने के दौरान आपने दोनों दौर में कोई अंतर महसूस किया? क्या माहौल कुछ बदला?

जवाब: हमने तो बहुत पहले ही ’72 हूरें’ पर काम शुरू कर दिया था, 2014 से बहुत पहले। लेकिन, हमें वक्त लग गया। हमारा संघर्ष लगातार चलता ही रहा, एक दशक से भी अधिक समय तक चला। 2014 के बाद थोड़ा-बहुत फर्क तो आया है, जिसका फायदा ‘द कश्मीर फाइल्स’ या ‘द केरल स्टोरी’ को मिला। ये भी फर्क आया कि लोगों में उत्साह दिखा, लोग इस तरह की फिल्म देखने के लिए जाने लगे। कन्वेंशनल प्रोडक्शन हाउस या स्टूडियो तो ऐसी फिल्मों को नॉन-कमर्शियल बता कर इन्हें बैक करते नहीं, न ही वो इन मुद्दों पर फिल्म बनाना चाहते हैं। हालाँकि, लोगों ने ये कहा कि अगर आप सच दिखाओगे तो हम आपकी फिल्म देखने आएँगे। इससे कहीं न कहीं हमारे डिस्ट्रीब्यूटर्स हैं, उनमें भी आत्मविश्वास जगा कि लोग इस फिल्म को देखने आएँगे।

प्रश्न 4: फिल्म ’72 हूरें’ को लेकर तो चर्चा चलती रहेगी, लेकिन इस दौरान लोग ये भी जानना चाहेंगे कि आपने जब ये फिल्म बनाना शुरू किया और अब तक 11 वर्षों का जो संघर्ष है, इस दौरान परिवार को धमकियाँ वगैरह मिलीं या परिवार में किसी ने कुछ डर जताया?

जवाब: मैं मुंबई में अपनी पत्नी के साथ रहता हूँ, मेरे माता-पिता का निधन हो चुका है। पहले तो इस फिल्म के बारे में किसी को मालूम ही नहीं था कि क्या हो रहा है। जैसे ही ये रिलीज होने आई, वैसे ही धमकियों का दौर शुरू हो गया। मेरी पत्नी को फिल्म के बारे में बहुत डिटेल्स में पता नहीं था कि किस तरीके से चीजें हो रही हैं। अब जब धमकियाँ आ रही हैं तो परेशानी होना स्वाभाविक बात है, चिंता होती ही है।

प्रश्न 5: फिल्म को ब्लैक एन्ड व्हाइट रखने का क्या कारण है? ये साधारण बात नहीं लग रही, ऐसा सुन कर ही लग रहा है कि इसके पीछे कोई बौद्धिक विमर्श रहा होगा?? इस बारे में हम अधिक जानना चाहेंगे।

जवाब: फिल्म की कहानी या फिर नैरेटिव को कहने का ये तरीका है। 2 आत्माओं, 2 मृत लोग जिनके पास शरीर नहीं है… दुनिया और रंग देखने के आँखें चाहिए, शरीर चाहिए। बारिश या ऐसी किसी चीज को महसूस करने के लिए त्वचा चाहिए। लेकिन, जब आपके पास कोई बायोलॉजिकल बॉडी नहीं है और आप बिना इसके घूम रहे हैं तो आप कुछ देख ही नहीं पा रहे हैं। आपके जीवन से रंग चले गए, एहसास चले गए, फीलिंग्स चली गईं। क्योंकि ये जो दुनिया है, वो बहुत खूबसूरत है और ये आँखें खोलने पर पता चलता है, जन्नत यहीं है, आँखें बंद करने पर नहीं। जिनके पास शरीर नहीं है, तो ब्लैक एन्ड व्हाइट में उनके नजरिए से इसे कहने की कोशिश की गई है जिनके जीवन में कोई रस और रंग बाकी नहीं है।

प्रश्न 6: हिन्दू धर्म को लेकर कई ऐसी फ़िल्में बनी हैं, जिनमें तरह-तरह के सन्देश दिए जाते हैं। सुधारवादी फ़िल्में बनती हैं और धर्म को लेकर अच्छा-बुरा बताया जाता है। खास बात ये है कि अधिकतर हिन्दू निर्माता-निर्देशकों ने ही ऐसी फ़िल्में बनाई हैं। लेकिन, इस्लाम में जो कुरीतियाँ हैं उन पर कोई मुस्लिम निर्माता या निर्देशक फिल्म बनाने की कोशिश क्यों नहीं करता? वो भी तब, जब बॉलीवुड में कई मुस्लिम निर्देशक शीर्ष पर हैं।

जवाब: इस पर अशोक पंडित और गुलाब सिंह के साथ मेरी चर्चा भी हुई। उन दोनों ने भी कहा कि समाज में जो कुरीतियाँ होती हैं, समय के साथ उन पर फ़िल्में बनती हैं, चर्चा होती है, लोग बात करते हैं। अगर ये समस्या है मेरे देश में, आतंकीवाद की, तो मैं इस पर बात क्यों नहीं कर सकता? आप इससे मुझे कैसे रोक सकते हैं? हमारे ही फिल्मकारों ने बाल विवाह से लेकर सती प्रथा और जाति प्रथा के अलावा कई चीजों पर बात की है। लेकिन, ये कैसा अलग कानून बना दिया आपने कि इस पर बात नहीं हो सकती? ये बार-बार दोहराया जाता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, फिर अचानक से मजहब को निशाना बनाने की बातें करने लग जाते हैं। हम तो शुरू से स्पष्ट हैं कि हम सिर्फ आतंकवाद की ही बात कर रहे हैं, आप फिल्म देखिए और इस पर रिएक्ट करिए। हम आपके मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं। आपको 32 मिलें, 72 मिलें, 94 मिलें, हमें कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन, आप ये जो कर रहे हैं उसके लिए ये तरीका गलत है। यही बात इस फिल्म में दिखाई गई है, मानवता की बात की गई है। ये फिल्म देशहित को लेकर है। एक राष्ट्रीय समस्या है, उस पर बात की गई है।

प्रश्न 7: युवाओं में कट्टरपंथ का प्रसार एक बड़ी समस्या है। ’72 हूरें’ फिल्म के ट्रेलर से भी पता चलता है कि इसमें इस समस्या को छुआ गया है। आपकी नजर में युवाओं को कट्टरपंथी बनाए जाने की समस्या का कारण और निदान क्या है? आपने फिल्म बनाने के दौरान काफी रिसर्च किया है, इसीलिए हम आपका अनुभव जानना चाहेंगे।

जवाब: मुझे ये लगता है कि जब आप किसी को बरगला देते हैं, बहका देते हैं, समाज में किसी भी परिस्थिति को बहाना बना कर कुछ लोग अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए एक साजिश का इस्तेमाल करते हैं, जोड़-तोड़ करते हैं। किसी के भी हाथ में AK-47 आने से पहले उसके जेहन में एक विचार डाला जाता है। जन्नत और शहादत के कॉन्सेप्ट उनमें प्लांट कर दिए जाते हैं। बहुत सारे लोग रहे हैं जो कसाब का जो या फिर अन्य आतंकी रहे हों, पूछताछ के दौरान सामने आता है कि कई आतंकियों ने ’72 हूरों’ का जिक्र किया। उन्हें एक खास ट्रेनिंग दी जाती है, जिसमें बताया जाता है कि मौत के बाद उन्हें क्या-क्या मिलेगा। इस बारे में उन्होंने खुद पूछताछ में बताया है।

प्रश्न 8: फिल्म ’72 हूरें’ के ट्रेलर को सेंसर बोर्ड से सर्टिफकेट मिलने में काफी परेशानी हुई और इस दौरान फिल्म के कुछ दृश्य हटाने को कहे गए। इस विवाद को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

जवाब: असल में पिक्चर को 2019 में ही सेंसर बोर्ड से पास कर दिया गया था और हमें A सर्टिफिकेट मिला था। फिल्म में कुछ बदलाव करने और काट-छाँट करने के बाद एक तय प्रक्रिया के तहत सब काम हुआ था। हमें फिल्म फेस्टिवल्स में जाना था, इसीलिए इसे सेंसर से पास कराया गया। मुझे लगता है कि काम खत्म हो गया था। उस समय रिलीज के लिए हम तैयार नहीं थे तो ट्रेलर बनाया ही नहीं गया था। अब जब रिलीज की योजना बनी तो ट्रेलर पर काम शुरू हुआ। हमने एक अच्छा ट्रेलर बनाया। फिर हमने 18 जून, 2023 को दिल्ली में सेंसर बोर्ड में इसे पास करने के लिए अप्लाई कर दिया, क्योंकि फिल्म भी दिल्ली से सेंसर हुई थी। फिर हमें बताया गया कि फिल्म स्क्रीन हो गई है। फिल्म की रिलीज से तो सामान्यतः एक महीने पहले ट्रेलर जारी कर दिए जाते हैं, 10 दिन तो बहुत कम समय है। इसीलिए, हमें ट्रेलर की रिलीज की तारीख़ बदलनी पड़ी। 26 जून को PVR में इसे रिलीज किया जाना था, लेकिन फिर 28 को करने का निर्णय लिया गया। ये खबर मीडिया में भी आई थी। उस दिन दोपहर में सेंसर बोर्ड ने हमें चिट्ठी भेजी कि हम आपको पास कर देंगे, लेकिन आप इन-इन चीजों को काट दीजिए (जैसे लाश के पाँव वाला सीन और कुरान शब्द)। हमारा तर्क ये था कि ट्रेलर में तो वही चीजें हैं, जिन्हें फिल्म में पहले ही सेंसर की जा चुकी हैं। फिर काट-छाँट करने को क्यों कहा गया? दूसरी बात, जब ट्रेलर रिलीज के लिए तैयार था तो अंतिम समय में हमें ये क्यों बताया गया, पहले भी बताया जा सकता था। हमारे पास पहले से ही कम समय था। आप 1 दिन पहले बोलोगे तो कैसे एक दिन में एडिट कर के इसे सब्मिट किया जा सकता है? इसमें कई प्रक्रियाएँ होती हैं। इन्हें पूरा करने में तो फिल्म की रिलीज डेट ही निकल जाती। ऐसे में हमने डिजिटल पर ट्रेलर रिलीज किया और हम इसे थिएटरों में नहीं ले जा सके। इससे पता चलता है कि कुछ चीजों को इस तरह से करना चाहिए कि कम से कम परेशानी लोगों को हो। एक फिल्म बनाने में पहले से ही काफी संघर्ष होता है, ऊपर से परेशानियाँ और बढ़ा दी जाएँ तो ये ठीक नहीं है।

प्रश्न 9: फिल्म ’72 हूरें’ के बाद आप किस प्रोजेक्ट पर काम करेंगे? आपके दिमाग में अगला प्रोजेक्ट क्या है, क्या तैयारियाँ शुरू हैं?

जवाब: मैं कुछेक चीजों पर काम कर रहा हूँ, लेकिन मैंने अभी कुछ फाइनल नहीं किया है कि किस प्रोजेक्ट को लेकर आगे बढ़ा जाएगा। जैसे ही कुछ फाइनल हो जाएगा, मैं खुद इसके बारे में बताऊँगा।

फिल्म ’72 Hoorain’ की ट्रेलर में ही दिखाया गया था कि कैसे एक मौलाना कह रहा होता है कि ‘तुमने नेकी और जिहाद का रास्ता चुना है, ये तुम्हें जन्नत की तरफ लेकर जाएगा’। जैसा कि फिल्म के डायरेक्टर संजय पूरन सिंह ने बताया, फिल्म आतंकवाद की समस्या पर बात करती है। ये नई बात नहीं है कि कई तकरीरों में मौलानाओं ने अक्सर लोगों को भड़काते हुए ये कहा है कि अगर वो इस्लाम के लिए ‘जिहाद’ का रास्ता अपनाएँगे तो उन्हें ’72 हूरें’ मिलेंगी। कई तो इन हूरों की विशेषताएँ बता कर लालच देते हैं।

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