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सोनिया गांधी लोकसभा चुनाव लड़ने के बजाय राज्‍यसभा के ‘सेफ मोड’ में क्‍यों चली गईं?

सोनिया गांधी का राज्‍यसभा में जाना चौंकाने वाली खबर हो सकती है, लेकिन लोकसभा चुनाव की चुनौती के बीच खड़ी कांग्रेस के लिए इस खबर में खुशी ढूंढना मुश्किल है.सोनिया गांधी का 25 वर्षीय संसदीय सफर अब नया मोड़ लेने जा रहा है. खबर आई है कि सोनिया गांधी राज्‍यसभा में जाएंगी. कहा ये भी जा रहा है कि उन्होंने चुनावी राजनीति से संन्‍यास ले लिया है. उनके राज्‍यसभा जाने की खबर के साथ उनकी रायबरेली सीट को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं. प्रियंका गांधी को उनका स्वाभाविक उत्‍तराधिकारी माना जा रहा है. सोनिया गांधी के उत्तराधिकार, अमेठी-रायबरेली सीट पर चर्चा करने से पहले जानते हैं कि आखिर सोनिया ने राज्‍यसभा जाने का फैसला क्‍यों लिया?

चुनावी राजनीति से सम्‍मानजनक विदाई

सोनिया के चुनाव न लड़ने की वजह उनका खराब स्‍वास्‍थ्‍य नहीं हो सकता. क्‍योंकि उन्‍होंने बीमारी से जूझते हुए ही 2014 और 2019 का चुनाव लड़ा. इतना ही नहीं, उन्‍होंने कांग्रेस के भीतर उठी G-23 वाली बगावत की लहर को भी अंतरिम अध्‍यक्ष के रूप में थामा. कांग्रेस पार्टी अब मानने लगी है कि सोनिया गांधी ने बहुत तपस्‍या कर ली. अब उनको और किरकिरी से रूबरू नहीं कराया जा सकता. दो महीने पहले C-voter ने रायबरेली में सर्वे किया, जिसके नतीजे में सामने आया कि सोनिया के लिए 2024 का चुनाव मुश्किल हो सकता है. जबकि उनकी जगह प्रियंका को मैदान में उतारा जाता है तो 49 फीसदी लोगों का मानना है कि वे चुनाव जीत जाएंगी, जबकि 42 फीसदी लोग मानते हैं कि यह सीट कांग्रेस हार जाएगी. प्रियंका को रायबरेली से चुनाव लड़ाया जाएगा या नहीं, इस पर भी अभी सस्‍पेंस है.

इतना तय कर लिया गया कि सोनिया गांधी को भी यूपी के भंवर से बाहर निकाल लिया जाएगा. हालांकि, सोनिया गांधी के लिए इस फैसले के लिए रजामंदी देना आसान नहीं रहा होगा. खासतौर पर तब जबकि उन्‍होंने अटल बिहारी की राजनीति के चरम में कांग्रेस में एंट्री ली थी. और पहले ही चुनाव में उन्‍होंने दो सीटों (कर्नाटक की बेल्‍लारी और यूपी की अमेठी) से जीत दर्ज की. लेकिन, 2004 में न सिर्फ उन्‍होंने अटल सरकार को सत्‍ता से उखाड़ फेंका, बल्कि यूपीए का नेतृत्‍व करके एक मजबूत और प्रभावी सरकार की नींव रखी.

सत्‍ता की राजनीति करते हुए उन्‍होंने यूपी कांग्रेस में ऐसी जान फूंकी कि पहले 10 के करीब सीटें जीत पाने वाली उनकी पार्टी 2009 में 21 सीटें जीत गई और भाजपा को 10 सीटों तक सीमित कर दिया. यूपीए-2 के दौरान ही सोनिया ने राहुल को कांग्रेस नेतृत्‍व में अपनी जगह देनी शुरू की, और इसका फायदा नरेंद्र मोदी ने बखूबी उठाया. 2014 की मोदी लहर में बीजेपी ने यूपी में 71 सीटें जीतीं तो कांग्रेस ने 2 सीट. जबकि 2019 में सिर्फ सोनिया ही शेष बचीं. एक प्रभावशाली राजनीतिक जीवन जीने वाली सोनिया गांधी के लिए यूपी की एक सीट के लिए जद्दोजहद करना उचित नहीं लगता. ऐसे में तर्कसंगत हो जाता है कि वे चुनावी राजनीति को अलविदा कह दें.

सोनिया के लिए पराजय से बुरा होता पलायन

1999 का चुनाव अमेठी से जीतने वाली सोनिया गांधी ने 2004 में यह सीट अपने बेटे राहुल के लिए छोड़ी थी. लेकिन, 2019 में अमेठी का किला हारने के बाद राहुल ने केरल के वायनाड में ठिकाना बना लिया. अब सोनिया गांधी के पास दो ही रास्‍ते थे, या तो वे रायबरेली में ही हार की आशंका के बीच संघर्ष करतीं या फिर दक्षिण भारत की किसी सुरक्षित सीट से लोकसभा के लिए चुनकर आतीं. वैसे एक पखवाड़ा पहले ही तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने राज्‍य की खम्‍मम, मेडक और नलकोंडा सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्‍ताव केंद्रीय नेतृत्‍व के पास भेजा था. सोनिया चाहतीं तो रायबरेली और दक्षिण भारत की किसी एक सीट से चुनाव लड़ सकती थीं. लेकिन, सोनिया के लिए दो सीट से चुनाव लड़ने का फैसला भी रायबरेली हारने के समान ही होता. ऐसे में उन्‍होंने पलायन को सिरे से खारिज कर दिया.

एक शानदार और अपराजेय राजनीतिक सफर के इस पड़ाव पर पलायन करके वे पीठ नहीं दिखाना चाहतीं. अमेठी चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने जिस तरह से यूपी से मुंह मोड़ा है, उसने प्रदेश में कांग्रेस  के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है. यूपी के रहे सहे कांग्रेस वोटरों में भी यह मैसेज पूरी तरह पहुंच गया है कि राहुल अब केरल शिफ्ट हो गए हैं. बीच-बीच में प्रियंका को यूपी में लांच किया गया, लेकिन यह सब इतना अधूरे मन से हुआ कि वे चाहकर भी अपनी छाप नहीं छोड़ सकीं. बहन-भाई की इस उठापटक के बीच मां सोनिया पूरी तरह नेपथ्‍य में चली गईं. अब रायबरेली में अकेले किला लड़ाना, उनके लिए वैसे भी खास प्रासंगिक नहीं रह गया है.

राज्‍यसभा में जाने से सोनिया गांधी और कांग्रेस को क्‍या फायदा?

लोकसभा और राज्‍यसभा की राजनीति में जमीन-आसमान का फर्क नजर आता है. लोकसभा में जहां विपक्ष बिखरा-बिखरा सा है, वहीं राज्‍यसभा में यह ज्‍यादा संगठित नजर आता है. चुनाव के बाद लोकसभा की सूरत कैसी होगी, शायद यह कांग्रेस के लिए कोई बहुत बड़ा सस्‍पेंस नहीं है. ऐसे में सोनिया के लिए लोकसभा में संघर्ष करने से बेहतर है कि वे राज्‍यसभा में चली जाएं. राज्‍यसभा से भी तो वे संसदीय दल को नेतृत्‍व दे ही सकती हैं.  और उनके इस फैसले से लोकसभा में राहुल गांधी को ज्‍यादा एक्‍सपोजर मिलेगा. सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में वे ज्‍यादा जिम्‍मेदारी महसूस करें. इस तरह लोकसभा और राज्‍यसभा दोनों में भाजपा के सामने एक-एक गांधी तो होगा ही. यदि लोकसभा और राज्‍यसभा में कांग्रेस का एक-एक ही सांसद बचे, और यदि वो गांधी हो तो भी कांग्रेस के दोबारा जीवित होने की उम्‍मीद रहेगी. क्‍योंकि, कांग्रेस का डीएनए गांधी-परिवार से ही बनता है. यदि इस परिवार की एक कोशिका भी बची रही, तो उससे एक पूरी कांग्रेस तैयार की जा सकती है.

सोनिया के लोकसभा से राज्‍यसभा जाने को कैसे देखें?

लोकसभा चुनाव में हारे कई नेताओं ने समय-समय पर लोकसभा में शरण ली है. अटल बिहारी वाजपेयी 1984 का चुनाव हार गए, फिर 86 में राज्‍यसभा पहुंचे. 2019 का लोक सभा चुनाव हारने वाले मल्लिकार्जुन खरगे अब राज्‍यसभा के सदस्‍य हैं. दिग्विजय सिंह भी उसी श्रेणी में आते हैं. लेकिन, सोनिया गांधी यदि राज्‍ससभा में जाती हैं, तो वे इस श्रेणी में नहीं आएंगी. उनका ये ट्रांसफर सम्‍मानजनक तो रहेगा, लेकिन कांग्रेस की दृष्टि से ज्‍यादा फायदेमंद नहीं होगा. ऐसे समय में जब कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता एक के बाद एक पार्टी छोड़ते जा रहे हैं, सोनिया गांधी के राज्यसभा में जाने का फैसला डिफेंसिव ही कहा जाएगा. उत्तर भारत के जिन राज्‍यों में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां तो पार्टी का सूपड़ा ही साफ होता दिख रहा है. जबकि पंजाब जैसे राज्‍य में भी वह अपनी सीटें गंवाती नजर आ रही है. ऐसे में सोनिया गांधी का रायबरेली सीट छोड़ना उत्‍तर भारत में कांग्रेस वोटरों की आखिरी उम्‍मीद तोड़ता है.

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