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निजी प्रतिशोध के लिए हो रहा SC/ST एक्ट का इस्तेमाल: जानिए इलाहाबाद हाई कोर्ट को क्यों करनी पड़ी ये टिप्पणी, रद्द किया केस

इलाहाबाद हाई कोर्टदेश में एससी-एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग को लेकर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। ये सवाल यूँ ही नहीं उठाए जाते हैं, इसके ऐसे कई उदाहरण हैं कि फर्जी SC-ST के कारण कई लोगों की जिंदगी हमेशा के लिए तबाह हो गई। कई लोगों के जीवन के अनमोल वर्ष जेल में बीते और बाद में पता चला कि केस झूठा था। ऐसे ही एक मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया है और कठोर टिप्पणी की है।

एक मामले की सुनवाई करने के दौरान इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (SC/ST Act) के दुरुपयोग को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की। इसके साथ ही उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक सरकारी कर्मचारी के इशारे पर एक पति-पत्नी के खिलाफ दर्ज एफआईआर और पूरी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

जस्टिस प्रशांत कुमार ने कहा, “अगर उत्तर प्रदेश में इस प्रकार की गतिविधियों की अनुमति किसी और के द्वारा नहीं, बल्कि सरकारी कर्मचारी के द्वारा दी जाती है तो यह न्यायालय अपने कर्तव्य में असफल होगा। यहाँ भू-माफियाओं, राजस्व अधिकारियों और तत्कालीन एसएचओ की मिलीभगत है, जिसमें एक जोड़े को गलत तरीके से आपराधिक कार्यवाही में फंसाया गया है और उन्हें दर-दर भटकने के लिए मजबूर किया गया।”

याचिकाकर्ता अलका सेठी और उनके पति ध्रुव सेठी द्वारा दायर याचिका पर FIR रद्द करने का आदेश कोर्ट ने दे दिया। याचिकाकर्ताओं पर आरोप था कि सतपुड़ा में सड़क के खसरा नंबरों का लेखपाल निरीक्षण कर रहा था। इस दौरान अलका और उनके पति से लेखपाल का सामना हुआ। याचिका के अनुसार दोनों दंपत्ति ने लेखपाल को जातिसूचक गालियाँ दीं।

इसके बाद पूरे आपराधिक कार्यवाही के साथ-साथ विशेष न्यायाधीश (एससी/एसटी अधिनियम), सहारनपुर द्वारा पारित समन एवं आरोप पत्र को चुनौती देते हुए पति-पत्नी ने अदालत का रुख किया। इस पर तर्क दिया गया कि ध्रुव सेठी ने जमीन का एक टुकड़ा खरीदा था और म्युटेशन के बाद सीमांकन के लिए आवेदन किया था। सीमांकन के आदेश के बावजूद राजस्व अधिकारियों ने इसे पूरा नहीं किया।

अधिकारी सीमांकन नहीं कर रहे थे और इसके लिए आवेदकों को इधर-उधर दौड़ा रहे थे। जब उन पर दबाव डाला गया तो उन्होंने आश्वासन दिया कि सीमांकन पक्षों के सामने कराया जाएगा, लेकिन हैरानी की बात यह है कि उन्होंने आवेदकों की अनुपस्थिति में सीमांकन करना शुरू कर दिया। जब इसका विरोध किया गया तो हाथापाई शुरू हो गयी।

दंपति ने कोर्ट को बताया कि स्थानीय भू-माफिया, जिनका उस क्षेत्र में और राजस्व पर भी प्रभाव था, और स्थानीय पुलिस अधिकारी ने एक साजिश रची। वे उनकी जमीन हड़पना चाहते थे। इसी वजह से उनके खिलाफ FIR दर्ज कराई गई थी। इसके साथ ही दंपति ने कहा कि उन्हें नहीं पता था कि लेखपाल की जाति क्या है और ना ही जाति से संबंधित उन्होंने कोई बात कही।

कोर्ट ने कहा कि यह विश्वास करना कठिन है कि आवेदकों ने लेखपाल के खिलाफ जाति-संबंधी शब्दों का इस्तेमाल किया था। राजस्व अधिकारी को बाँधने की घटना को भी कोर्ट ने अविश्वसनीय बताया और कहा कि एक महिला एवं एक पुरुष इतने लोगों कैसे हावी हो सकते हैं और एक व्यक्ति को बाँध सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि FIR पढ़ने से कोई मामला नहीं बनता। इसलिए इसे रद्द किया जाता है।

SC/ST Act के दुरुपयोग को लेकर कई कोर्ट सख्त

यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी कोर्ट ने ST/SC ऐक्ट के गलत इस्तेमाल पर इस तरह की कठोर टिप्पणी की है। इससे पहले इस तरह के कई मामले सामने आ चुके हैं। फरवरी 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐसे ही व्यक्ति को निर्दोष करार दिया था, जो पिछले 20 वर्षों से जेल में कैद था। व्यक्ति को बलात्कार के आरोप और SC/ST एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था।

हाईकोर्ट ने आरोपित की रिहाई की बात कहते हुए मामले पर तल्ख़ टिप्पणी भी की है। हाईकोर्ट के मुताबिक़ दुराचार का आरोप साबित नहीं हो पाया। मेडिकल रिपोर्ट में ज़बरदस्ती के कोई सबूत नहीं मिले हैं। मामले की रिपोर्ट भी घटना के तीन दिन बाद लिखाई गई थी। इस मामले में बलात्कार का झूठा आरोप ही नहीं, बल्कि SC/ST ऐक्ट का भी झूठा इस्तेमाल करते हुए दुरुपयोग किया गया था।

SC व्यक्ति ने सीनियर पर प्रताड़ना का आरोप लगाकर दे दी थी जान

इसी तरह के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति के व्यक्ति को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में एक व्यक्ति के खिलाफ लगाए गए 22 साल पुराने आपराधिक मामले को रद्द कर दिया। यह आरोप कन्नौज जिले में जिला बचत अधिकारी के रूप में कार्यरत प्रभात मिश्रा नाम के एक व्यक्ति पर लगा था। मृतक प्रभात मिश्रा का जूनियर था। इसके साथ ही आरोपित पर से कोर्ट ने ST-SC कानून की धाराएँ भी हटा दीं।

सुसाइड नोट पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मृतक काम के दबाव के कारण निराश था और आरोपित द्वारा सौंपे गए अपने आधिकारिक कर्तव्यों को लेकर आशंकित था। सुसाइड नोट में व्यक्त की गई आशंकाएँ किसी भी कल्पना से आरोपित को आत्महत्या के लिए उकसाने के तत्वों के रूप में कार्य करने के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं मानी जा सकती हैं।

सिर्फ गाली देने से नहीं लग सकता SC/ST ऐक्ट

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST Act को लेकर बड़ी टिप्पणी की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सिर्फ अभद्र भाषा का प्रयोग किसी व्यक्ति के खिलाफ ST/ST Act लगाने के लिए काफी नहीं है। अदालत ने व्यक्ति के खिलाफ लगाए आरोप को खारिज कर दिया था। इसमें एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (एक्स) के तहत एक व्यक्ति के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया था।

बेंच ने कहा था कि यदि कोई व्यक्ति किसी को सार्वजनिक रूप से ‘बेवकूफ’ या ‘मूर्ख’ या ‘चोर’ कहता है तो यह आरोपित द्वारा अपशब्द कहे जाने का कृत्य माना जाएगा। यदि यह SC/ST व्यक्ति को कहा गया है, तब तक धारा 3(1)(एक्स) के तहत व्यक्ति को आरोपित नहीं किया जा सकता, जब तक कि इस तरह के शब्द जातिसूचक टिप्पणी के साथ नहीं कहे गये हों।

अदालत ने कहा था कि इस संबंध में ना ही प्राथमिकी में और ना ही आरोप पत्र में जिक्र है कि मौखिक विवाद के दौरान शिकायतकर्ता की जाति का कोई संदर्भ नहीं दिया गया था। अदालत ने कहा कि जिस समय घटना हुई, उस समय शिकायतकर्ता के अलावा उसकी पत्नी और बेटे ही उपस्थित थे। कोर्ट ने कहा कि पत्नी-बेटे की उपस्थिति में कही गई बात को सार्वजनिक नहीं कहा जा सकता।

SC/ST Act का गलत इस्तेमाल कानून का दुरुपयोग

इसी तरह के एक मामला में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तीन प्रोफेसरों के खिलाफ लगाए गए SC/ST Act को लेकर कड़ी टिप्पणी की थी। उच्च न्यायालय ने पाया कि यह मामला फर्जी है। इसके साथ ही आरोप लगाने वाली प्रोफेसर पर कोर्ट ने 15 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया था।

दरअसल, प्रोफेसरों ने महिला प्रोफेसर को समय पर आने और ढंग से पढ़ाने के लिए कहा था। इसके बाद उस महिला प्रोफेसर ने तीन अन्य प्रोफेसरों पर आरोप लगाते हुए FIR दर्ज करा दी थी और अपनी शिकायत में कहा था कि उसे अपमानित, परेशान और निशाना बनाया जा रहा है।

गलत सबूतों से ST/SC में फाँसी हुई तो शिकायतकर्ता भी नहीं बचेगा

SC/ST Act के लगातार बढ़ रहे दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी चिंता जता चुका है। पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST Act के एक प्रावधान की वैधता की जाँच करने पर सहमति जताई। इस प्रावधान के तहत उस व्यक्ति के लिए मौत की सजा है, जिसके झूठे साक्ष्य की वजह से SC या ST समुदाय के किसी निर्दोष सदस्य को दोषी ठहराया गया और फाँसी दी गई।

याचिकाकर्ता ने न्यायमूर्ति कांत और न्यायमूर्ति विश्वनाथन की पीठ को बताया कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(2) (I) में प्रावधान है कि यदि एससी या एसटी समुदाय के किसी निर्दोष सदस्य को ऐसे झूठे या मनगढ़ंत साक्ष्य के परिणामस्वरूप दोषी ठहराया जाता है और उसे फाँसी दी जाती है, तो ऐसे झूठे साक्ष्य देने या गढ़ने वाले व्यक्ति को मौत की सजा दी जाएगी।

इस प्रावधान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ इस सुनवाई कर रही थी। अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह सरकार से परामर्श करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई जुलाई के लिए टाल दी।

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