नई दिल्ली। केंद्र की मोदी सरकार द्वारा ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाला 123वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा से पारित हो गया है. मोदी सरकार को लोकसभा में इसे पास कराने में भले ही अड़चन नहीं आई हो, लेकिन सरकार को राज्यसभा में मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है. हालांकि, यदि बीजेडी और समाजवादी पार्टी राज्यसभा में समर्थन करते हैं तो यह बिल राज्यसभा में भी पास हो जाएगा.
दरअसल यह बिल केंद्र सरकार की तरफ से दूसरी बार पेश किया गया है. इससे पहले पिछले वर्ष राज्यसभा में सरकार की किरकिरी तब हुई थी जब विपक्ष के संशोधन पास हो गए थे. लिहाजा संशोधनों के साथ दोबारा इस बिल को लाने की जरूरत पड़ गई.
मिशन 2019 है लक्ष्य !
गौरतलब है कि 2019 से पहले भारतीय जनता पार्टी पिछड़ों और दलितों की हिमायती की छवि बनाना चाहती है. इसी रणनीति के तहत केंद्र की मोदी सरकार ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने और अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून (SC/ST एक्ट) संशोधन बिल दोनों सदनों से किसी भी कीमत पर इसी सत्र में पारित कराना चाहती है. ताकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेतृत्व में बीजेपी आगामी लोकसभा चुनावों में पिछड़ों और दलितों को लुभाने के लिए एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश कर सके.
क्या है दलित-पिछड़ों का अंकगणित ?
केंद्र की मोदी सरकार को मात देने के लिए संयुक्त विपक्ष महागठबंधन का चक्रव्यूह रच रहा है. वहीं विपक्ष के इस व्यूह रचना को तोड़ने के लिए मोदी सरकार की योजना बहुसंख्यक पिछड़ों और दलितों को साधने की है. चूंकि राजनीति संख्याबल का खेल है. वहीं सरकारी आंकड़ों के अनुसार दलित-पिछड़ा समाज की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 70 फीसदी है. यही वजह है कि कोई भी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल इस वर्ग की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकता. सरकारी एजेंसी एनएसएसओ के मुताबिक देश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी कुल आबादी का 44 फीसदी है. वहीं ऐसी कोई लोकसभा और विधानसभा नहीं है जहां 40-45 फीसदी पिछड़ा वोट न हो.इसी तरह से 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 16.63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. जिनकी लोकसभा की 150 सीटों पर निर्णायक भूमिका है.
क्या जातियों में बंटा पिछड़ा वर्ग कभी एक होगा ?
देश की आबादी में भले ही ओबीसी सबसे ज्यादा हों लेकिन चुनावों में यह पूरा समाज कभी एक साथ एक वोटबैंक की तरह उभर कर नहीं आया. मंडल आंदोलन को छोड़ दें तो यह कहना मुश्किल है कि अन्य पिछड़ा वर्ग, दलितों और मुस्लिमों की भांति वोटबैंक की तरह एकमुश्त एकजुट होकर वोटिंग करता हो. इसका कारण है विभिन्न जातियों और सामाजिक स्तर पर बंटा ओबीसी समाज. उदाहरण के तौर पर यूपी में यादव और पटेल कभी एक नहीं हुए, इसी तरह बिहार में यादव, कुशवाहा और कुर्मी एक नहीं हुए. ठीक वैसे ही राजस्थान में गुर्जर और मीणा एक नहीं हुए. बता दें कि यह सभी बिरादरी सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत हैं और इनकी किसी न किसी राजनीतिक दल में प्रतिबद्धता भी है. जिसे तोड़ पाना मुश्किल है.
क्या पिछड़ा वर्ग सब कटेगराइजेशन से बनेगी बात ?
पिछड़ा वर्ग को लुभाने के लिए केंद्र की मोदी सरकार दो तरह की रणनीति पर काम कर रही है. पहला राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाना. दूसरा ओबीसी के सब-कटेगराइजेशन के लिए आयोग का गठन करना. इस आयोग का गठन 2 अक्टूबर 2017 को किया गया था. यह आयोग तय करेगा कि ओबीसी में शामिल जातियों को क्या आनुपातिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है. क्या इसमें शामिल जातियों को आरक्षण का उचित लाभ मिल पाया है या एक ही बिरादरी सारी मलाई काट रही है. मोदी सरकार की इस कवायद को यूपी, बिहार के आर्थिक तौर पर मजबूत यादवों, कुर्मियों के बरक्स दूसरी पिछड़ी जातियों को इकट्ठा करने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है.
गौरतलब है कि इस तरह का प्रयोग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर चुके है. आरजेडी प्रमुख लालू यादव के दलित वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए नीतीश ने महा-दलित वर्ग का शिगूफा छोड़ा था. जीतन राम मांझी का राजनीतिक उत्थान और मुख्यमंत्री बनना इसी की बानगी थी. लेकिन नीतीश का यह प्रयोग राजनीतिक महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ गया और जीतनराम मांझी एक बार फिर लालू खेमे के साथ खड़े हैं. इसी तरह योगी सरकार के मंत्री अनिल राजभर, राजभरों को अति पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी कैटेगरी में शामिल कराना चाहते हैं. क्योंकि राजभरों की आस्था अनिल से ज्यादा सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर के साथ है.
बहरहाल यह कहना जल्दबाजी होगा कि केंद्र की मोदी सरकार दलित-पिछड़ों को अपने साथ ला पाने में कामयाब हो पाएगी या नहीं. लेकिन यह तो तय है सरकार दलित-पिछड़ों को साधने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती. ऐसा करने के लिए मोदी सरकार के पास पर्याप्त बहुमत भी है और सरकारी तंत्र भी है.