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करुणानिधि के ग्‍लैमर वर्ल्‍ड से निकलकर राजनीति का बड़ा खिलाड़ी बनने की कहानी

करुणानिधि का राजनीतिक जीवन भी अपने आप में किसी मिसाल से कम नहीं है। यह उनका व्‍यक्तित्‍व ही था जिसकी बदौलत वह राज्‍य और केंद्र की राजनीति में कभी नजरअंदाज नहीं किए जा सके।

नई दिल्‍ली। दक्षिण भारत की राजनीति में एम करुणानिधि सिर्फ एक नाम ही नहीं है बल्कि हर खास और आम के लिए वह एक दमदार शख्सियत रहे हैं। इसको इत्तफाक ही कहा जाएगा कि तमिलनाडु की राजनीति में आने वाले तीन बड़े चेहरे न सिर्फ कभी ग्‍लैमर वर्ल्‍ड में एक साथ थे बल्कि तीनों ने ही राजनीति में बड़ा मुकाम हासिल किया। इनमें एनटी रामाराव, जयललीता और खुद करुणानिधि का नाम आता है। रामाराव और जयललीता जहां फिल्‍मी पर्दे पर अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरते दिखाई देते थे, वहीं करुणानिधि अपनी कलम का कमाल दिखाते थे। रामाराव और जयललीता की कई फिल्‍मों के लिए उन्‍होंने कहानी लिखी हैं। लेकिन ग्‍लैमर वर्ल्‍ड के बाहर ये एक दूसरे के खिलाफ ही नजर आए। बहरहाल, करुणानिधि का राजनीतिक जीवन भी अपने आप में किसी मिसाल से कम नहीं है।

उनका 78 साल लंबा राजनीतिक जीवन काफी कुछ बयां करता है। इस दौरान उनकी धमक राज्‍य से लेकर केंद्र तक में सुनाई दी। तमिलनाडु के पूर्व मुख्‍यमंत्री करुणानिधि ने तमिलनाडु की राजनीति के साथ साथ देश की राजनीति को भी काफी प्रभावित किया है। गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के साथ करुणानिधि का दिल्ली की राजनीति में प्रवेश हुआ था। वे तमिलनाडु में कांग्रेस-विरोध के ध्रुव के रूप में उभरे और अपनी एक अलग पहचान बनाई। उन्‍होंने महज 14 साल की उम्र में राजनीति और आंदोलन का ककहरा सीखा था। यह दौर था हिन्दी-विरोधी आंदोलन का। यही से उन्‍होंने अपने राजनीति करियर की शुरुआत की और फिर कभी पलट कर नहीं देखा।

यह बात और थी कि वह उस वक्‍त कतार में सबसे आखिरी में खड़े हुए एक आदमी थे। न सिर्फ हिंदु विरोधी आंदोलन बल्कि द्रविड आंदोलन के समय में भी करुणानिधि की भूमिका काफी अहम रही। यह आंदोलन रामामी पेरियार ने समाज में व्याप्त जाति और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ शुरू किया था। करुणानिधि ने इस आंदोलन को अपनी फिल्मों व राजनीति के माध्यम से आगे बढ़ाया। यह भी इत्‍तफाक ही है कि आज जिस मिड डे मील योजना को हम देखते हैं उसकी शुरुआत का श्रेय भी इसी आंदोलन को जाता है।
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पहली बार मिली तमिलनाडु में सत्ता 
1967 के बाद से तमिलनाडु की राजनीति एआईएडीएमके और डीएमके के बीच विभाजित रही। कांग्रेस तमिलनाडु में इन दोनों के बीच कोई मजबूत विकल्‍प कभी नहीं बन पाई। 1969 में करुणानिधि पहली बार तमिलनाडु की सत्‍ता पर काबिज हुए। हालांकि उनका राजनीतिक जीवन कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। इमरजेंसी के बाद 1977 में करुणानिधि की डीएमके ने केंद्र में मौजूद जनता पार्टी का साथ दिया। इसी वक्‍त एआईएडीएमके विपक्ष में कांग्रेस के साथ खड़ी थी। उस वक्‍त डीएमके सीटों के लिहाज से एआईएडीएमके से कहीं पीछे खड़ी थी। डीएमके को उस वक्‍त महज एक सीट और एआईएडीएमके को 19 सीटें मिली थीं।

वीपी सिंह को पीएम बनाने में अहम रोल
करुणानिधि की दमदार शख्सियत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1989 में वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने में चौधरी देवीलाल के साथ मिलकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह सब कुछ तब था जब इस चुनाव में उनकी पार्टी को कोई सीट नहीं मिल सकी थी। इसके बाद भी उन्‍होंने संसदीय दल की बैठक में देवीलाल को प्रधानमंत्री के लिए चुना था। लेकिन देवीलाल ने यह पद अस्‍वीकार करते हुए वीपी सिंह को नेता बनाने का प्रस्ताव पेश किया था जिसका बाद में करुणानिधि ने खुलकर समर्थन किया था। मंडल आयोम की रिपोर्ट को लागू करवाने में भी करुणानिधि की भूमिका काफी अहम थी। आपको बता दें कि तमिलनाडु में अन्नादुराई के जमाने से पिछड़ों को आरक्षण मिला है। हालांकि यह सरकार ज्‍यादा लंबी नहीं चली और गिर गई।

1991 का लोकसभा चुनाव
लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार 1991 में डीएमके अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी। इसी दौरान पार्टी को तमिलनाडु में जयललीता के हाथों करारी हार मिली थी और वो सत्ता से बाहर हो गई थी। यह दौर पार्टी के लिए काफी मुश्किलों भरा था। ऐसा इसलिए क्‍योंकि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तमिलनाडु में एलटीटीई के हाथों हत्‍या करवा दी गई थी। तत्‍कालीन नरसिंहराव की सरकार के मंत्री अर्जुन सिंह ने खुलकर डीएमके नेताओं पर इस हत्‍या में शामिल होने और इसका षड़यंत्र रचने का आरोप लगाया था। लेकिन करुणानिधि ने इसके बाद भी हार नहीं मानी और आरोपों का जबरदस्‍त बचाव किया और अपनी पार्टी का पक्ष मजबूती से रखा। यही वजह थी कि जो पार्टी बीते दो लोकसभा चुनाव में अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी उसने 1996 के लोकसभा चुनाव में 17 सीटें हासिल की।

वहीं उसकी सहयोगी तमिल मनीला कांग्रेस को 20 सीटें मिली थीं। ऐसे में करुणानिधि का कद राजनीति में और बढ़ चुका था। इस वक्‍त भी करुणानिधि वीपी सिंह को पीएम बनाना चाहते थे, लेकिन इसके लिए वीपी सिंह तैयार नहीं हुए। इसके बाद उन्‍होंने पीएम के तौर पर एचडी देवेगौड़ा को चुना था। देवेगौड़ा के बाद उन्‍होंने इंद्रकुमार गुजराल को पीएम बनाने में अहम भूमिका निभाई।


अटल बिहारी वाजेपयी सरकार 
1998 में एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने से अटल बिहारी वाजेपयी की सरकार गिर गई। 1999 में डीएमके एनडीए का हिस्सा बनी। 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले ही डीएमके ने एनडीए का साथ छोड दिया और यूपीए का गठन करने में अहम भूमिका निभाई। मनमोहन सरकार में करुणानिधि का दबदबा पहले से कहीं अधिक था। उनके पार्टी सांसदों को उनकी पसंद के मंत्रालय दिलवाने में करुणानिधि की अहम भूमिका थी। इस दौर में एक बार फिर करुणानिधि के सामने मुश्किलें आनी शुरू हुई जब 2जी घोटाला मामले में डीएमके सांसद और केंद्रीय मंत्री ए राजा और खुद करुणिानिधि की बेटी कनिमोझी को जेल तक जाना पड़ा। यही वो दौर था जब डीएमके प्रमुख करुणानिधि के मन में कांग्रेस को लेकर काफी घृणा की भावना दिखाई दी।

कम नहीं हुई करुणानिधि की सक्रियता 
बीते लोकसभा चुनाव और तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में भी करुणानिधि की सक्रियता कम नहीं हुई। जयललीता से छत्‍तीस का आंकड़ा रखने वाले करुणानिधि ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करके हुए कहा कि उनका नाम हमेशा लोगों के बीच रहेगा। उन्‍होंने कहा था कि इसमें कोई दोराय नहीं है कि जयललिता ने पार्टी के भविष्य और बेहतरी के लिए कड़े फैसले लिए। हालांकि कम उम्र में उनका निधन हो गया है लेकिन उनका नाम और शोहरत हमेशा बरकरार रहेगी। इसको इत्तफाक ही कहा जाएगा कि जिस वक्‍त जयललीता अस्‍पताल में थीं उसी वक्‍त से करुणानिधि की भी हालत खराब है। तब से लेकर आज तक करीब डेढ़ वर्ष से अधिक गुजर चुका है करुणानिधि की सेहत लगातार गिरती ही चली गई। हाल ही में कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी और उपराष्‍ट्रपति भी उनका हालचाल जानने अस्‍पताल गए थे।

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