राकेश कायस्थ
आस्तीन चढ़ाकर भाषण देते राजनेता, जबरन गले मिलते, आंख मारते और फिर एक-दूसरे पर आंखे तरेरते नेता. घटिया तुकबंदी और उधार की शेरो-शायरी से काम चलाते नेता. दूसरों पर निजी हमले बोलकर, कीचड़ उछाल कर ठहाके लगाते और खुद पर किए गए मामूली कटाक्ष से आग-बबूला होते नेता. देश की राजनीति में यह सबकुछ नया नहीं है. बदलाव पहले ही आ चुका था. लेकिन इस बदलाव के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी हमारे बीच थे.
अटल जी बरसों से मौन थे. लेकिन उनकी मौन उपस्थिति भी हमेशा यह याद दिलाती रहती थी कि राजनीति अभद्र होने का नाम नहीं है. अशालीन हुए बिना भी तीखी से तीखी बात कही जा सकती है. विरोधी की कड़ी से कड़ी आलोचना करते वक्त भी अंदाज़ दोस्ताना हो सकता है. लोक-विमर्श का स्तर ही तय करता है कि लोकतंत्र कितना स्वस्थ है. अटल जी जब तक स्वस्थ थे, तब तक इस देश का लोकतंत्र भी स्वस्थ था.
अटल जी का जाना लोक-विमर्श की एक स्वस्थ और सुदीर्घ परंपरा का अवसान है. एक ऐसी परंपरा जिसमें तर्कपूर्ण स्तरीय संवाद था. विरोधी के प्रति गहरा सम्मान था. संसदीय और परंपरागत भारतीय मूल्यों के प्रति आदर था और सबसे बढ़कर एक अनोखे किस्म का हास्यबोध था. अटल जी हमेशा इन्ही परंपराओं और इसी हास्य बोध के साथ जिए.
मैं खुशनसीब हूं कि मुझे बतौर लेखक और पत्रकार अटल जी के सार्वजनिक जीवन को देखने का मौका मिला. लेकिन मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं अटल जी को किसी आम भारतीय नागरिक से ज्यादा जानता हूं. सार्वजनिक पटल पर उनकी उपस्थिति ऐसी थी कि कोई भी उन्हें ठीक तरह से देख और समझ सकता था. अटल जी की राजनीति, उनका समावेशी स्वभाव और ज़बरदस्त भाषण कला पर बातें लगातार होती रहेंगी. मैं फिलहाल सिर्फ उनके हास्यबोध यानी सेंस ऑफ ह्यूमर पर बात करना चाहूंगा.
वन लाइनर के धनी अटल
उस जमाने में सिर्फ अखबार होते थे. रेडियो और नया-नवेला टेलीविजन दोनों सरकारी थे. तब शब्दों की बड़ी अहमियत हुआ करती थी. एक-दूसरे के मुंह से सुने गए किस्से लोग अरसे तक याद रखते और दोहराते थे. यह कहानी उसी जमाने में शुरू होती है. साल शायद 1981 था और मैं कोई सात-आठ साल का बच्चा था.
विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी हमारे शहर नहीं बल्कि हमारे मुहल्ले में आए थे. एक जनसभा थी, जिसमें ढेर सारे समर्थक और कार्यकर्ता थे. जनता पार्टी टूट चुकी थी. बीजेपी बन चुकी थी. भीड़ में किसी ने वाजपेयी से पूछा-‘आखिर ढाई साल में क्यों गिर गई थी जनता पार्टी की सरकार?’
अटलजी ने जवाब दिया-
आपसी लड़ाई
कांग्रेस आई…
भीड़ ने खूब तालियां बजाईं. बड़ा हुआ तो मुझे उस वन लाइनर की अलंकारिता समझ में आई. उस समय कांग्रेस दरअसल इंदिरा कांग्रेस यानी कांग्रेस आई हुआ करती थी.
हर बात पर एक आशु कविता रच डालना अटलजी की फितरत थी. वे इसी संवाद शैली में अवाम से रू-ब-रू होते थे. आजादी के बाद से पढ़े-लिखे सुसंस्कृत नेताओं की इस देश में एक लंबी परंपरा रही है. लेकिन वाजपेयी शायद इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने जनता को भाषाई संस्कार दिए. एनडीए सरकार के मुखिया रहते हुए रूठे हुए गठबंधन साझीदारों पर टिप्पणी करते हुए `समता और ममता दोनों को मना लेंगे’ से लेकर `ना टायर्ड हूं ना रिटायर्ड हूं’ जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के अनगिनत वन लाइनर ऐसे हैं जो लोगों को अभी तक याद हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी का नाता उस पीढ़ी से था, जिसकी राजनीतिक बहसों का स्तर बहुत ऊंचा था. 1957 में वाजपेयी पहली बार लोकसभा में चुनकर आए और 2004 में रिटायरमेंट तक भारतीय संसद से उनका नाता बना रहा. इस दौरान उन्होंने यादगार भाषण ही नहीं दिए बल्कि अपने चुटीले अंदाज़ से विरोधियों तक को ठहाके लगाने को मजबूर किया. भाषणों के दौरान सदस्यों की टोका-टाकी का वे कभी बुरा नहीं मानते थे, बल्कि चुटीले अंदाज़ में कुछ ऐसा जवाब देते थे कि सामने वाला आदमी भी लाजवाब हो जाए.
खुद पर हंसने वाले राजनेता
हंसी अटल बिहारी वाजपेयी के लिए एक बहुत पवित्र किस्म की चीज़ थी. इसलिए वे खुद पर भी हंसना जानते थे. उनका एक फेवरेट डायलॉग था- ‘अध्यक्ष महोदय 40 साल तक प्रतिपक्ष में रहा हूं, कभी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया.’
एक बार वे गलती से बोल गए-‘ 40 साल तक प्रतिपक्ष में रहा हूं, कभी मर्यादाओं का पालन नहीं किया है.’
लोकसभा में हंसी का सैलाब उमड़ पड़ा. अटलजी खुद भी अपनी हंसी नहीं रोक पाए और बोले- ‘अध्यक्ष महोदय, यह चमड़े की जुबान है, कभी-कभी फिसल जाती है.’
बतौर प्रधानमंत्री संसद में वाजपेयी के लिए स्थितियां हमेशा अनुकूल नही रहीं. पांच साल सरकार चलाने के अलावा वे दो बार 13 दिन और 13 महीने वाली सरकारों के मुखिया भी रहे. दोनों बार उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विपक्ष के तीखे हमले झेलने पड़े. लेकिन गिरती हुई सरकार के प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन्होंने अपना हास्यबोध बनाए रखा.
सरकार के बचाव में दिए गए उनके भाषणों में गंभीर राजनीतिक विमर्श के साथ गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर भी था. ये वह दौर था, जब देश की संसद में लालू प्रसाद यादव जैसे ठेठ देसी शैली के हंसोड़ नेताओं की एंट्री हो चुकी थी. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान लालू ने एनडीए सरकार पर तीखी हमला बोला. अपनी शैली में उन्होंने प्रधानमंत्री को नसीहत दी- ‘आज बहुत शुभ दिन है, अटल जी. जाइए नहा-धोके चूड़ा दही खाइए और इस्तीफा दे आइए, देर मत कीजिए.’ मुझे याद है इस नसीहत पर भी वाजपेयी दिल खोलकर हंसे थे.
खुद पर हंसने वाला ये अंदाज़ प्रधानमंत्री की कुर्सी जाने के बाद भी कायम रहा. 2004 के चुनाव में नाटकीय हार के कुछ महीने बाद वाजपेयी छुट्टियां मनाने मनाली गए. वहां कुछ औरतें और बच्चियां उन्हे राखी बांधने आईं. अटलजी ने उन्हे दक्षिणा दी और बच्चियों की तरफ देखते हुए बोले- ‘ज्यादा पैसे नहीं हैं, मेरे पास. तुम्हारे मामा अब बेरोजगार हो गए हैं, उनकी नौकरी चली गई है.’
जिंदगी, जिंदादिली और मस्ती से भरे अटल
वाजपेयी रसिक और रस मर्मज्ञ थे. वे खुलकर जीने में यकीन रखते थे. उन्होंने अपनी निजी जिंदगी पर बहुत चर्चा नहीं की, लेकिन कुछ छिपाने की कोशिश भी नहीं की. `मैं एक कुंवारा हूं, मगर ब्रह्मचारी नहीं’ जैसे उनके बयान पुराने पत्रकारों को ज़रूर याद होंगे.
एक चर्चित टीवी शो के एंकर ने उनसे पूछा- ‘आपका पूरा व्यक्तित्व की अंतर्विरोधों से भरा है. यह आपके नाम से शुरू होता है. आप अटल भी हैं और बिहारी भी. यह कैसे संभव है?’
अटलजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- ‘जहां अटल होने की ज़रूरत है, वहां अटल हूं और जहां बिहारी होने की ज़रूरत है, वहां बिहारी हूं.’
अपनी शादी को लेकर बनने वाले लतीफों पर भी वे जमकर ठहाके लगा लेते थे. मशहूर नृत्यांगना उमा शर्मा ने कैफी आज़मी और गोपाल दास नीरज के साथ अटल जी की कविताओं पर भी कथक का एक कार्यक्रम किया था. दिल्ली के फिक्की सभागार में तीनों कवि उस कार्यक्रम में मौजूद थे. प्रतिपक्ष के नेता वाजपेयी बिना किसी खास सुरक्षा के आए थे. वाजपेयी ने कहा- ‘जब मैंने कविता लिखी थी, तब यह नहीं सोचा था कि मेरी कविता गाई जाएगी और एक दिन नाची भी जाएगी. उसके बाद उमा शर्मा के साथ हुए उस श्रृंगारिक नोक-झोंक ने शाम को यादगार बना दिया था.’
यू ट्यूब पर पड़े कई पुराने वीडियो वाजपेयी की रसरंग में डूबी हाजिरजवाबी की कहानी कहते हैं. ऐसा ही एक पुराना वीडियो है, जिसमें रिपोर्टर ने उनसे अमिताभ बच्चन के लोकसभा से इस्तीफे के बारे में पूछा. वाजपेयी जी ने कहा- ‘नेताओं को हराने के लिए अभिनेता बुलाना अच्छी बात नहीं है. अगर मैं दिल्ली से लड़ता तो अमिताभ मेरे खिलाफ खड़े होते. फिर मैं क्या करता? मुझे रेखा से प्रार्थना करनी पड़ती कि वे मेरी ओर से लड़ें.’
सोनिया गांधी की राजनीति में एंट्री पर चुटकी लेते हुए वाजपेयी ने कहा था- ‘वे कह रही है कि मैं एक महिला हूं और विधवा हूं. इस पर क्या कहा जाए? मैं यह भी तो नहीं कह सकता कि मैं एक पुरुष हूं और कुंवारा हूं.’ अगर मौजूदा दौर का मीडिया होता तो शायद इस बयान को एक राष्ट्रीय मुद्दा बना देता. लेकिन आज से बीस साल पहले लोग हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही गई बातों को उसी तरह लेते थे.
पलटते हुए भी क्यूट लगते थे अटलजी
अटल बिहारी वाजपेयी ने इस देश को गठबंधन धर्म सिखाया. उन्होंने यह बताया कि अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा वाली पार्टियां भी टकराव छोड़कर कुछ साझा उदेश्यों के लिए एक साथ आ सकती हैं और सरकार चलाकर दिखा सकती हैं. लेकिन गठबंधन चलाने की यह कवायद कभी आसान नहीं थी. एनडीए के बाकी गठबंधन साझीदार वाजपेयी के उदार चेहरे की वजह से साथ आए थे. लेकिन वाजपेयी संघ के एजेंडे को पूरी तरह दरकिनार नहीं कर सकते थे. ये वही दौर था जब बीजेपी के ताकतवर महासचिव गोविंदाचार्य ने अटल को मुखौटा और आडवाणी को मुख बताया था.
एनडीए और आरएसएस के एजेंडे मे संतुलन बनाए रखने के चक्कर में कुछ विवादास्पद बयान दिए, फिर उससे पलटे भी. राम-मंदिर को उन्होंने राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण बताया और अगले दिन उस पर सफाई दी. ऐसा ही कुछ हुआ जब उन्होने कहा कि गुजरात दंगों की वजह से लोकसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा और तत्कालीन मुख्यमंत्री को ना हटाना एक गलती थी. लेकिन बाद में आडवाणी कैंप के दबाव में अटल जी को भी यह बयान बदलना पड़ा. लेकिन वाजपेयी शायद इकलौते ऐसे राजनेता थे, जो पलटी मारते या अर्धसत्य बोलते वक्त भी क्यूट लगते थे.
अटलजी अक्सर कहा करते थे कि राजनीति के रेगिस्तान में आकर मेरी कविता की धारा सूख गई. उनकी कविताओं में जीवन के रंग हैं, आशावाद है, एक पूरा दर्शन है. लेकिन मैं यहां सिर्फ अटल जी के हास्यबोध की बात कर रहा हूं, इसलिए चर्चा हास्य रस में डूबी उनकी कुछ रचनाओं पर.
गीत नए गाने और हंसने-हंसाने वाला कवि
इमरजेंसी के दौरान अटल जी लंबे समय तक अंडरग्राउंड रहे. इस समय का उन्होंने भरपूर इस्तेमाल कविताएं लिखने में किया. `हार नही मानूंगा रार नई ठानूंगा’ और `ठन गई, ठन गई मौत से ठन गई’ जैसी रचनाओं के ज़रिए जो लोग कवि अटल को जानते हैं, उन्हे शायद पता नहीं होगा कि उन्हे राजनीतिक व्यंग्य की कविताएं भी लिखी हैं.
इमरजेंसी के बाद वे खुद को कैदी कविराय कहा करते थे. नेताओं को नजरबंद किए जाने पर लिखी गई उनकी एक कविता के तेवर देखिए-
नज़रबंद किए नेता जिनकी नज़रें तेज़
नज़र ना लग जाए कहीं, नज़रों से परहेज़
नज़रों से परहेज़, उतारो नज़रें इनकी
नज़र मिलाकर पानी-पानी नज़रें जिनकी
कह कैदी कविराय नज़रबंदी नज़राना
टेढ़ी नज़रें सीधी ले जाती जेलखाना
इमरजेंसी के बाद बनी जनता सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई. इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गईं. उस दौरान महाराष्ट्र के ताकतवर नेता यशवंत राव चव्हाण की सरकार में नंबर दो की हैसियत हुआ करती थी. लेकिन चव्हाण इससे इनकार करते थे. इंदिरा सरकार की इस हालत पर तंज करते हुए वाजपेयी ने लिखा—
पूछा श्री चव्हाण से कौन है नंबर दो
भौंचक-भौंचक से रहे पल भर साधा मौन
पल भर साधा मौन न कोई नंबर दो है
केवल नंबर एक, शेष सब जो है सो है
कह कैदी कविराय नई गणना द्वाक्षरी
नारी नंबर एक पुरुष सब दस नंबरी
वाजपेयी की कविताएं राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं. विदेश मंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी एक रचना साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका के लिए भेजी. रचना किसी वजह से छप नहीं पाई. इस पर वाजपेयी ने संपादक और हिंदी के जाने-माने लेखक मनोहर श्याम जोशी को एक दिलचस्प पत्र लिखा। कविता ना छापने का उलाहना देते हुए पत्र के अंत में एक कुंडली लिखी गई थी-
कैदी कवि लटके हुए
संपादक की मौज
कविता हिंदुस्तान में
मन है कांजी हौज
मन है कांजी हौज
सब्र की सीमा टूटी
तीखी हुई छपास
करें क्या टूटी-फूटी
कह कैदी कविराय
कठिन कविता कर पाना
लेकिन उससे कठिन
कहीं कविता छपवाना
नेताजी कहिन, कसप और कुरु-कुरु स्वाहा जैसी चर्चित किताबों के लेखक मनोहर श्याम जोशी ने कविता ना छप पाने का खेद और वाजपेयी से उसी अंदाज़ में जताया और कविता छाप दी. जोशी ने वाजपेयी को लिखा-
कह जोशी कविराय
सुनो जी अटल बिहारी
बिना पत्र के कविवर
कविता मिली तिहारी
कविता मिली तिहारी
साइन किंतु ना पाया
हमने सोचा चमचा कोई
खुद ही लिख लाया
कविता छपे आपकी
यह तो बड़ा सरल है
टाले से कब टले
जब नाम स्वयं अटल है
देश के एक चर्चित राजनेता और एक बड़े संपादक के बीच इस अंदाज़ में पत्राचार हो सकता है, इस बात की कल्पना आज के जमाने में भला कहां संभव है! अब ना तो अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेता हैं, ना साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिका और ना मनोहर श्याम जोशी जैसा कोई संपादक. वाजपेयी का जाना एक युग की विदाई है. एक ऐसा युग जो अब सिर्फ किस्से-कहानियों और किंवदंतियों में ही जिंदा रहेगा.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं. )