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पीएम पीवी नरसिम्हा राव और गांधी परिवार के रिश्तों में क्यों आई खटास

नई दिल्ली। पीवी नरसिम्हा राव. वह प्रधानमंत्री जिसका नाम देश में आर्थिक सुधार (इकनोनॉमिक रिफॉर्म्स) का जिक्र छिड़ते ही तपाक से लिया जाता है. यूं तो नरसिम्हा राव कांग्रेस की बांह पकड़कर सियासत की सीढ़ियां चढ़ते हुए पीएम पद तक पहुंचे, लेकिन सियासी गलियारों में अक्सर चर्चा इस बात की होती है कि राव के आखिरी दिनों में पार्टी ने उनके साथ किस तरह का सुलूक किया. आखिर ऐसी क्या वजह थी जो कांग्रेस और उससे कहीं ज्यादा गांधी परिवार और राव के रिश्तों में इतनी ज्यादा कड़वाहट घुल गई थी. राजनीतिक विशेषज्ञ इस कड़वाहट के पीछे उन्हीं आर्थिक सुधारों को देखते हैं जिसकी वजह से राव की देश-दुनिया में अलग पहचान बनी.

साल 1991 में बतौर प्रधानमंत्री राव ने आर्थिक सुधारों का दरवाजा खोला और इससे उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी. अखबार से लेकर टेलीविजन तक में सुधारों के चर्चे हुए. किताबें लिखी गईं और राव को हीरो की तरह पेश किया गया, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि कांग्रेस को इन सुधारों के पीछे राव को क्रेडिट दिया जाना पसंद नहीं आया. विनय सीतापति अपनी किताब ‘द हाफ लायन’ में इस बात का जिक्र करते हुए लिखते हैं, कांग्रेस के 125वें स्थापना दिवस पर सोनिया गांधी ने कहा कि ‘राजीव जी अपने सपनों को साकार होते हुए देखने के लिए हमारे बीच नही हैं, लेकिन हम देख सकते हैं कि वर्ष 1991 के चुनावी घोषणा पत्र में उन्होंने जो दावे किये थे वही अगले पांच वर्षों के लिए आर्थिक नीतियों के आधार बने’.

वह लिखते हैं कि राव की आलोचना के पीछे एक और वजह थी. वह है बाबरी मस्जिद कांड में उनकी कथित भूमिका. वह आगे लिखते हैं कि, ‘नरसिम्हा राव के प्रशंसकों में से एक और कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में शुमार जयराम रमेश कहते हैं कि, ‘कांग्रेस के 99.99 फीसद लोगों का मानना है कि बाबरी मस्जिद के गिरने के पीछे कहीं न कहीं राव की मिलीभगत थी. और उस घटना की कसौटी पर पूरी कांग्रेस पार्टी को कसा जाता है’. विनय सीतापति आगे लिखते हैं कि, राहुल गांधी ने तो सार्वजनिक तौर पर यह कहा कि ‘अगर उनका परिवार वर्ष 1992 में सत्ता में होता तो शायद बाबरी मस्जिद नहीं गिरती’.

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