किंशुक प्रवल
मोदी विरोध की राजनीति के दौर में नरेंद्र मोदी को दोबारा पीएम बनने से रोकने के लिये अब राजनीति ने नया अर्थशास्त्र गढ़ा है. नोबल पुरस्कार से सम्मानित ‘भारत रत्न’ अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी विरोधी गैर सांप्रदायिक पार्टियों से एकजुट होने की अपील की है ताकि एनडीए को सत्ता में आने से रोका जाए.
अमर्त्य सेन की इस अपील का आखिर राज़ क्या है? क्या ये विपक्षी दलों में एकता फूंकने की ‘कौटिल्य-नीति’ है? आखिर मोदी विरोध की नीति के पीछे अमर्त्य सेन का कौन सा दर्द छिपा हुआ है?
अमर्त्य सेन ने बीजेपी पर हमला करते हुए उसे एक वो बीमार पार्टी बताया जिसने 55 फीसदी सीटों के साथ सत्ता हासिल कर ली जबकि उसे केवल 31 फीसदी वोट ही हासिल हुए थे. सेन बीजेपी को गलत इरादों से सत्ता में आई पार्टी मानते हैं. क्या माना जाए कि अमर्त्य सेन के मुताबिक देश की जनता ने ‘गलत इरादों वाली पार्टी’ को देश सौंपा है?
साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अब अमर्त्य सेन साल 2014 की ही तरह एक्टिव हो गए हैं. एक बार फिर अर्थशास्त्री और बीजेपी आमने-सामने हैं. सवाल उठता है कि आखिर अमर्त्य सेन को एनडीए या फिर मोदी सरकार से क्या नाराजगी है? दरअसल साल 2014 में भी अमर्त्य सेन ने मोदी के पीएम पद की दावेदारी का जोरदार विरोध किया था.
अमर्त्य सेन की अपील विपक्ष के लिये अमर-वाणी हो सकती है. लेकिन पिछले पांच साल से बीजेपी को सेन के शब्दों के एक-एक बाण गहरे तक लग रहे हैं. तभी बीजेपी ने पलटवार करते हुए अमर्त्य सेन की तुलना उन बुद्धिजीवियों से की है जिन्होंने हमेशा समाज को गुमराह किया.
अमर्त्य सेन को साल 1998 में अर्थशास्त्र के लिये नोबल पुरस्कार मिला था. बंगाल की मिट्टी से उभरे अर्थशास्त्र के नायक अमर्त्य सेन ने गरीबों, स्वास्थ और शिक्षा को लेकर अपने विचारों से दुनिया में सबका ध्यान खींचा था. लेकिन आज वो एनडीए को सत्ता में आने से रोकने की अपील कर देश में सबका ध्यान खींच रहे हैं. खासबात ये है कि अमर्त्य सेन को एनडीए सरकार ने ही ‘भारत-रत्न’ दिया था. उस वक्त एनडीए सरकार के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी थे.
लेकिन साल 2014 आते आते अमर्त्य सेन की एनडीए को लेकर मानसिकता बदल गई. साल 2014 में जब बीजेपी ने गुजरात के तत्तकालीन सीएम नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया तो अमर्त्य सेन ने इसका विरोध किया. सेन ने मोदी की पीएम पद की दावेदारी पर सवाल उठाए. जिसके बाद बीजेपी के पश्चिम बंगाल से नेता चंदन मित्रा ने ‘भारत-रत्न’ वापस लेने तक की मांग कर डाली थी. अमर्त्य सेन के विचारों को निजी विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता कर कांग्रेस और वामदलों ने बीजेपी पर जमकर हमला बोला था.
इसके बाद से लगातार ही अमर्त्य सेन मोदी सरकार पर सवाल उठाते रहे हैं. उन्होंने यहां तक कहा कि पीएम मोदी को आर्थिक विकास के मामलों की समझ नही हैं. उन्होंने नोटबंदी को दिशाहीन मिसाइल कहते हुए गलत फैसला बताया.
अमर्त्य सेन के पीएम मोदी के खिलाफ राजनीतिक विचार अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हैं तो उनके निजी विचार मोदी के प्रति उनके निजी मतभेदों को ही जताते हैं. नालंदा यूनिवर्सिटी से कुलपति पद से इस्तीफा देने के बाद से अमर्त्य सेन की अभिव्यक्ति की आजादी में तल्खी बढ़ती ही जा रही है.
जिस तरह से सेन ने साल 2014 में मोदी की उम्मीदवारी पर सवाल उठाए थे उसी तरह साल 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर अब वो बीजेपी पर सवाल उठा रहे हैं. सेन का कहना है कि लोकतंत्र खतरे में है और निरंकुशता के खिलाफ विरोध जताना चाहिए. लेकिन इस बार चंदन मित्रा की जगह मोर्चा संभाला है पश्चिम बंगाल से बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष ने. घोष ने कहा कि वाम विचारधारा का अनुसरण करने वाले सेन जैसे बुद्धिजीवी वास्तविकता से दूर रहे हैं.
अमर्त्य सेन मोदी सरकार के विरोध में अपने बयान देने में ‘मुखर’ अर्थशास्त्री हैं. उन्हें जब भी मोदी सरकार को घेरने का मौका मिला वो निशाना लगाने से नहीं चूके हैं. जेएनयू में देशद्रोह के मामले में भी अमर्त्य सेन की राय सरकार के बेहद खिलाफ थी. सेन ने कहा था कि जिन छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया उन पर आरोप साबित नहीं हुए और छात्रों की कस्टडी में पिटाई कानून के खिलाफ हैं. सेन ने देश में अराजकता और असहिष्णुता जैसे हालातों का हवाला देते हुए कहा कि देश में लोगों को इंसाफ नहीं मिल रहा है.
आज अमर्त्य सेन जिस तरह से मोदी सरकार पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहे हैं, वो उनके पूर्वाग्रह को ही परिभाषित करता है. यूपीए सरकार में सलाहकार रहने वाले अमर्त्य सेन को 84 के सिख दंगे या फिर भागलपुर और मुजफ्फरनगर के दंगे नहीं दिखाई देते हैं. वो पश्चिम बंगाल में होने वाली सांप्रदायिक हिंसा पर चुप रहना ठीक समझते हैं. केरल में बीजेपी या फिर संघ के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर उन्हें निरंकुश होती सत्तासीन ताकतों की क्रूरता नहीं दिखाई देती.
अमर्त्य सेन का ये बयान निजी विचारों के बावजूद किसी राजनीतिक दल के नजरिये से मेल खाते हैं. तभी बीजेपी उन पर किसी पार्टी के प्रवक्ता के तौर पर बोलने का आरोप लगाती आई है.
दुनिया अमर्त्य सेन को उनके आर्थिक सिद्धांतों की वजह से जानती है. हिंदुस्तान के विकास और विकास के मॉडल पर नजर रखने वाले अमर्त्य सेन मोदी सरकार पर स्वास्थ और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों पर सवाल उठाते रहे हैं. लेकिन ये विडंबना ही है कि यूपीए सरकार को आर्थिक सुधारों,स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में सलाह देने की जरूरत नहीं महसूस हुई.
अमर्त्य सेन ने अपनी किताब ‘भारत और उसके विरोधाभास’ पर चर्चा के वक्त कहा था कि साल 2014 के बाद से देश गलत दिशा में आगे बढ़ रहा है. हाल ही सेन ने कहा था कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से सामाजिक क्षेत्रों से ध्यान हटा है और देश में जरूरी और बुनियादी मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
अमर्त्य सेन की छवि एक आम अर्थशास्त्री से अलग है. जहां उन्होंने अर्थशास्त्रों के नए सिद्धांतों की व्याख्या की तो वहीं उन्होंने स्त्री-पुरुष असमानता, गरीबी, विकास और अकाल पर भी किताबें लिखी हैं. ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि एक सम्मानित शख्सीयत होते हुए क्या उन्हें राजनीतिक विचार रखने चाहिये या खुद को किसी खास विचारधारा से जुड़ी पार्टी के प्रवक्ता की तरह पेश करना चाहिये?
सेन वामदलों की विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित हैं. उन्हें सिमटते वामदल की चिंता सता रही है. अमर्त्य सेन विकास के गुजरात मॉडल को खारिज कर केरल को विकास का मॉडल मानते और बताते रहे हैं. ऐसे में पश्चिम बंगाल में बीजेपी के बढ़ते प्रभुत्व का भी असर उनके बयानों में दिखाई देता है. कहीं न कहीं सेन ये नहीं चाहेंगे कि पश्चिम बंगाल की जमीन पर वामपंथ बीजेपी की वजह से पूरी तरह हाशिए पर चला जाए. शायद तभी लगता है कि वो गैर-सांप्रदायिक पार्टियों के नाम पर दरअसल बीजेपी को रोकने की बात कर वामपंथ को बचाने की भी गुहार लगा रहे हैं.