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डीएमके जल्द ही सत्ताधारी एआईएडीएमके की तरह हिस्सों में बंट सकती है

नई दिल्ली। तमिलनाडु के मुख्य विपक्षी दल डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) की कमान औपचारिक तौर एमके स्टालिन के हाथ में आ गई. चेन्नई स्थित डीएमके मुख्यालय में मंगलवार को पार्टी की सामान्य सभा की बैठक हुई जिसमें उन्हें निर्विरोध अगला अध्यक्ष चुन लिया गया. स्टालिन जनवरी 2017 से अब तक पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष थे. हालांकि उन्हें जनवरी 2013 में ही तत्कालीन डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि ने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था.

हालांकि स्टालिन के बड़े भाई एमके अलागिरी अब भी उन्हें चुनौती देते दिख रहे हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर उन्हें पार्टी में वापस नहीं लिया गया तो नतीजे अच्छे नहीं होंगे. अलागिरी को 2014 में करुणानिधि ने पार्टी से निष्कासित कर दिया था. अब उनका कहना है कि उनके पिता उन्हें पार्टी में दोबारा वापस लाना चाहते थे लेकिन उनके छोटे भाई स्टालिन और पार्टी के अन्य सदस्य यह होने नहीं दे रहे. इससे पहले उन्होंने यह भी कहा था कि डीएमके के असली कार्यकर्ता और उनके पिता के समर्थक उनकी तरफ हैं.

तो क्या डीएमके जल्द ही सत्ताधारी एआईएडीएमके (अखिल भारतीय अन्नाद्रविड़ मुनेत्र कड़गम) की राह पर जा सकती है यानी दोफाड़ हो सकती है? वैसे ऐसी आशंकाएं पहले भी बनती रही हैं. लेकिन इनको डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि के तौर पर मौज़ूद ढाल हमेशा छिन्न-भिन्न करती रही. पर इसी महीने की सात तारीख़ को वह ढाल हट गई. करुणानिधि दुनिया छोड़ गए. उनके साथ उनका लिहाज़ भी जाता रहा. पिता के निधन के बाद पखवाड़ा बीतते दो सगे भाई पार्टी पर प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ में दिखने लगे हैं.

67 वर्षीय अलागिरी को जनवरी 2014 में पार्टी विरोधी गतिविधियों की वज़ह से डीएमके से निकाल दिया गया था. वे अभी पार्टी से संबद्ध नहीं हैं फिर भी मदुरै और उसके आसपास अच्छा असर रखने वाले नेता माने जाते हैं. वे डीएमके की ओर से केंद्र में यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) की सरकार में मंत्री रह चुके हैं. इसी सबके मद्देनज़र माना जा रहा है कि वे शायद आसानी से स्टालिन की राह से हटेंगे नहीं.

तो ऐसे में ऐसे कुछ सवाल उठने स्वाभाविक हैं – अलागिरी अब क्या कर सकते हैं? वे डीएमके में ही दावेदारी जताएंगे या फिर अलग पार्टी बनाएंगे? इनके ज़वाब अभी देने से बेहतर है अतीत की कुछ घटनाओं पर नज़र डाली जाए. शायद ज़वाबों के सूत्र भी वहां से मिल जाएं.

साल-सवा साल पहले की एआईएडीएमके की कहानी

ज़्यादा पुराना नहीं साल-सवा साल पहले का किस्सा है. दिसंबर-2016 में एआईएडीएमके की तत्कालीन प्रमुख जयललिता के निधन के बाद उनकी पार्टी में भी ऐसी ही स्थितियां बनी थीं. जयललिता के निधन के 15 दिन बाद पार्टी ने उनकी नज़दीकी सहयोगी रहीं शशिकला नटराजन को महासचिव चुन लिया था. उन्होंने जयललिता के विश्वस्त ओ पन्नीरसेल्वम (ओपीएस) को राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी भी सौंप दी. लेकिन दो महीने के भीतर ही ऐसा कहा जाता है कि किसी ‘ऊपरी प्रभाव’ में आकर ओपीएस ने शशिकला के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी.

इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में शशिकला को दोषी ठहरा दिया. उन्हें चार साल की सजा सुनाई गई. लेकिन वे पार्टी की कमान छोड़ने को तैयार नहीं थीं. उन्होंने जेल जाने से पहले अपने भतीजे टीटीवी दिनाकरण को पार्टी का उपमहासचिव बना दिया. अबकी बार जयललिता के खास ओपीएस की जगह उन्होंने अपने विश्वस्त ईके पलानिसामी (ईपीएस) को पार्टी विधायक दल का नेता बनवाया और लगभग निश्चिंत होकर जेल चली गईं. लेकिन फिर ‘ऊपरी प्रभाव’ का असर दिखा और वह सब हुआ जो शशिकला ने सोचा तक नहीं था.

मुख्यमंत्री बनने के चार-पांच महीने बाद ही ईपीएस ने भी शशिकला से बग़ावत कर दी. उन्होंने पार्टी से दूर होकर अलग दल बनाने की तैयारी कर रहे ओपीएस से हाथ मिला लिया. ओपीएस की शर्त मानकर शशिकला और उनके भतीजे दिनाकरण को पार्टी से बाहर निकाल दिया गया. आज ईपीएस सरकार के प्रमुख यानी मुख्यमंत्री हैं और ओपीएस उनके डिप्टी. ऐसे ही ओपीएस पार्टी के प्रमुख हैं तथा वहां ईपीएस उनके सहयोगी. और ये दोनों मिलकर उस ‘ऊपरी ताक़त’ के सहयोगी बने हुए हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने ही उन्हें इस मुक़ाम तक पहुंचाया.

सहयोग के इस लगातार लेन-देन का ही असर था कि दिनाकरण चाहकर और लाख कोशिश करने के बावज़ूद एआईएडीएमके पर कब्ज़ा नहीं कर पाए. उसे तोड़ नहीं पाए. सो थक-हारकर उन्होंने एएमएमके (अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़गम) के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली. ज़ाहिर तौर पर इस पार्टी में अधिकांश वही नेता और कार्यकर्ता हैं जो कभी एआईएडीएमके में जयललिता के साथ हुआ करते थे. लिहाज़ा एक हिसाब से कहा जा सकता है कि एआईएडीएमके तकनीकी तौर पर न सही, पर व्यावहारिक रूप से दो हिस्सों में बंट चुकी है.

तो क्या ‘ऊपरी ताक़त’ यही कहानी डीएमके में दोहरा सकती है?

इसका ज़वाब भी कुछ तथ्यों में खंगालना होगा. पहला तथ्य- साल 2014 से ही एमके अलागिरी अनेकानेक मौकों पर भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी की खुलकर तारीफ़ करते रहे हैं. मार्च 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने भी नहीं थे तो अलागिरी ने कहा था, ‘देश में नरेंद्र मोदी की लहर है. मैं निजी तौर पर इस पक्ष में हूं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए.’ फिर अभी पिछले साल के आख़िर में जब नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री चेन्नई पहुंचे तो बीमार करुणानिधि का हाल-चाल पूछने अचानक ही उनके घर भी चले गए.

अलागिरी उस वक़्त चेन्नई में नहीं थे. लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि नरेंद्र मोदी उनके पिता का हाल-चाल पूछने आए थे तो उन्होंने उन्हें एक भावुक पत्र लिख भेजा. यह नवंबर-2017 की बात है. पत्र में अलागिरी ने लिखा, ‘मैं आपको निज़ी तौर पर इसके लिए धन्यवाद करना चाहता हूं कि आपने मेरे पिता का हाल-चाल पूछने के लिए वक़्त निकाला.’ पत्र में इसी तरह की और भी तमाम बातों के बाद अंत में उन्होंने इस टिप्पणी के साथ दस्तख़त किए कि ‘देश को आगे ले जाने के प्रति आपकी दृष्टि और प्रतिबद्धता की मैं प्रशंसा करता हूं.’

दूसरी बात- सत्याग्रह के ही एक अन्य लेख के मुताबिक 2019 में तमिलनाडु की 39 सीटें बड़ी अहम होने वाली हैं. इस राज्य की बड़ी खासियत यह है कि यह हर बार एकतरफा मतदान करता है. यानी किसी एक पार्टी (कभी डीएमके तो कभी एआईएडीएमके) को एकमुश्त सीटें देकर दिल्ली में असर डालने का मौका देता है. और अक़्सर पार्टियों की अलटी-पलटी करता रहता है. सो पिछली बार 2014 में यह मौका अगर एआईएडीएमके को मिला था तो 2019 में डीएमके को मिल सकता है.

ऐसे में डीएमके दिल्ली में सरकार के गठन में अहम भूमिका निभा सकती है. ख़ास तौर पर उस समय जब किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत न मिले. यहां इसी पृष्ठभूमि में यह भी याद रखा जा सकता है कि अलागिरी के उलट स्टालिन का झुकाव अब तक कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए की तरफ़ ज़्यादा रहा है.

सो अब इन्हीं संदर्भ और प्रसंगों को ज़ेहन में रखते हुए भविष्य के संकेतों को पकड़ने की कोशिश कीजिए. क्या पता कोई संकेत हक़ीक़त की शक़्ल में सामने आ जाएं. वैसे कहा तो जाता ही है कि इतिहास अक़्सर ख़ुद को दोहराता रहता है.

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