मुझे लगता है कि बीजेपी और कांग्रेस, इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में ही पढ़े लिखे लोगों की अहमियत है, सपा-बसपा जैसे रीजनल पार्टियों में पढ़े लिखे लोगों की अहमियत नहीं
लखनऊ। मैं जब 18 साल की थी, तब मैंने हंसराज कॉलेज, नई दिल्ली में ज्वाइंट सेकेट्री का चुनाव जीता. उस समय मैं एबीवीपी और एनएसयूआई की छात्र राजनीति से काफी निराश थी. मेरी विचारधारा भाजपा से तो मिलती नहीं है और कांग्रेस में उस समय बहुत अलग तरह की राजनीति चलती थी. हमारे यहां समाजवादी छात्र सभा के लोग थे, तो चुनाव जीतने के बाद मैं समाजवादी पार्टी से जुड़ गई. उसके बाद मैं अखिलेश जी से मिली, तब वो मुख्यमंत्री बनने से पहले अपनी साइकिल यात्रा कर रहे थे.
मुझे लगता था कि समाजवादी पार्टी में छात्र नेताओं का महत्व है और उस समय पूरे प्रदेश का यूथ अखिलेश जी से जुड़ रहा था. उनकी बहुत प्रगतिशील छवि थी. उसे देखकर मैं समाजवादी पार्टी से जुड़ी. इसके बाद मैं पार्टी की स्टूडेंट और यूथ विंग के साथ काम करने लगी. इसीबीच 2013 में मैंने अखिलेश जी से कहा कि मैं ब्रेक्र लेना चाहती हूं और अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती हूं. तब वो मुख्यमंत्री थे. उन्होंने कहा कि अभी आपकी पार्टी में जरूरत है. आप यहां बने रहिए, हम आपको बड़ी जिम्मेदारी देंगे. उसके बाद 2016 में मुझे पार्टी का प्रवक्ता बना दिया गया. उस समय पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार थी और मैं समाजवादी पार्टी की पहली महिला प्रवक्ता बनी. उस समय पार्टी के दो ही प्रवक्ता थे – गौरव भाटिया और मैं.
निगेटिव कास्ट पॉलिटिक्स
अखिलेश जी का उस समय ये सोचना था कि पढ़े लिखे लोग टीवी पर दिखने चाहिए जो उनकी इमेज से मैच करे. उसके बाद उनके घर में लड़ाई हुई और पार्टी में भी. मैंने हर जगह उनका साथ दिया. जब अखिलेश जी को पार्टी से निकाला गया तो मैंने भी इस्तीफा दे दिया और कहा कि मैं इनके साथ ही काम करूंगी. मैं उनसे बहुत प्रभावित थी. मेरा मानना था कि वो देश और प्रदेश की राजनीति को बदलने वाला विजन रखते हैं.
जब से हम लोग विधानसभा का चुनाव हारे, और घर की लड़ाई हुई, तब से अखिलेश जी का राजनीतिक स्टाइल बहुत चेंज हो गया. उसके बाद उनके आसपास के लोगों ने उन्हें बहुत इनसिक्योर बना दिया कि आप किसी पर ज्यादा ट्रस्ट मत करिए. किसी से ज्यादा बात मत करिए. साथ ही एक तरह की बहुत ही निगेटिव कास्ट पॉलिटिक्स हमारी पार्टी के अंदर आ गई. उसमें अपर कास्ट के लोगों और खासतौर से ब्राह्मणों को टार्गेट किया जाता था. इसके चलते पिछले साल मेरे खिलाफ ‘हेट कैंपेन’ चलाया गया. हर दिन कई मैसेज मेरे पास आते थे, जिनमें मेरे ऊपर बहुत गंदे-गंदे कमेंट किए जाते.
महिलाओं के प्रति सोच
इस पार्टी में महिलाओं के प्रति सोच बहुत निचले स्तर की है. शायद मुझसे लोगों को सबसे ज्यादा दिक्कत यही थी कि एक महिला अपने बल पर इतना आगे कैसे बढ़ सकती है. मेरे ब्राह्मण होने से ज्यादा दिक्कत मेरे महिला होने से थी. जो आत्मनिर्भर है, जिसका कोई फैमिली बैकग्राउड नहीं है, वो इतना आगे कैसे बढ़ सकती है. यदि कोई पॉलिटिकल बैकग्राउंड की महिला होती है, तो उसे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन कोई महिला अपने आप उठकर आई है, संघर्ष करके आई है तो उसे लोग स्वीकार नहीं करते हैं. लगातार टार्गेट करते हैं. ये मानसिकता सपा में बहुत बड़े लेबल पर है और जो लोग आज मुझ पर भद्दे पोस्ट कर रहे हैं, मेरे ख्याल वो इस मानसिकता का बेहतरीन उदाहरण दे रहे हैं.
विधानसभा चुनाव में हार के बाद सपा के लोग कहने लगे कि इस ब्राह्मण लड़की को निकालो. क्या सपा में पिछड़ों की लड़की नहीं है. मेरे लुक्स को लेकर कमेंट होते थे. अखिलेश जी को भी इसमें टार्गेट किया जाता था. बहुत ही गंदा और कास्टिस्ट एंगल देने की कोशिश की गई. ये भी कोशिश की गई कि हार की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी जाए, क्योंकि आपने एक ब्राह्मण महिला को पार्टी का प्रवक्ता बनाया, इसलिए आप चुनाव हार गए.
हेट कैंपेन
मेरे खिलाफ हेट कैंपेन चलाने वालों में कई अखिलेश जी के करीबी थे. वो खुद सीधे कमेंट नहीं करते थे, लेकिन अपने लोगों को ऐसे कमेंट करने के लिए बढ़ावा देते थे. वो ट्रोल्स को मेरे खिलाफ फंड भी करते थे. मेरे घर में सभी लोग ये देख रहे थे और सब बहुत परेशान थे. मुझे भी लगा कि अपमान के साथ यहां काम नहीं किया जा सकता. इसलिए मैंने पिछले साल अप्रैल में ही इस्तीफा दे दिया था. जब मैंने इस्तीफा दिया तो अखिलेश जी ने मुझे बुलाया और कहा कि मैं जानता हूं ये कौन कर रहा है. हम इसे ठीक करेंगे. तुम परेशान न हो. मैंने उनसे कहा कि मैं यहां तभी रुक सकती हूं जब मेरा आत्मसम्मान बना रहे. मैंने इंतजार किया और जब मैंने देखा कि चीजें जस की तस हैं, तो मैंने इस्तीफा दे दिया.
मेरे इस्तीफे के बाद मेरे ऊपर सोशल मीडिया में जो कमेंट हुए, उससे मेरी बात प्रूव हो गई कि आज सपा में माहौल बहुत खराब हो गया है और पार्टी में बहुत निगेटिव- बहुत निचले स्तर की राजनीति होती है. मैं इसी राजनीति की बात कर रही थी.
भाई-भतीजावाद
मुझे लगता है कि बीजेपी और कांग्रेस, इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में ही पढ़े लिखे लोगों की अहमियत है. वहां अच्छे लोगों को मेरिट के आधार पर आगे लाया जाता है. हम सपा-बसपा की बात करें, तो रीजनल पार्टियों में ये कमी रह जाती है. यहां बहुत अधिक भाई भतीजावाद है. आप नेता के लड़के-लड़की हैं, या किसी ब्यूरोक्रेट के बच्चे हैं, तभी आगे बढ़ेंगे. आप अखिलेश जी के चारो तरफ भी ऐसे लोगों को ही पाएंगे. यहां टैलेंट की कद्र नहीं है, लेकिन नेशनल पार्टियों में टैलेंट की कद्र होती है.
जहां तक मेरी खुद की बात है, मैंने अभी किसी राजनीतिक दल में जाने के लिए सोचा नहीं है. भाजपा से तो मेरी राजनीतिक सोच मैच ही नहीं करती है. अगर मैं अखिलेश जी की पार्टी में नहीं होती तो भी मैं भाजपा की विचारधारा का समर्थन नहीं करती. बाकी पार्टी के बारे में मैं सोच सकती हूं, लेकिन तभी जब मुझे लगेगा कि मुझे काम करने का मौका मिलेगा और मुझे वो सम्मान मिलेगा, जिसकी एक महिला के रूप में मैं हकदार हूं.
उम्मीद कायम है
तमाम तरह की निराशा के बावजूद मुझे ऐसा लगता है कि आज मेनस्ट्रीम मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया के जमाने में पढ़े लिखे युवाओं का राजनीति में आना थोड़ा आसान हो गया है. पहले आप छात्र राजनीति में कई साल संघर्ष करते थे और फिर एक लेबल तक पहुंचते थे. लेकिन आज हम देख रहे हैं कि बहुत सारे लोग जो किसी दूसरे प्रोफेशन में हैं या टेक्निकल फील्ड में हैं, जब राजनीतिक पार्टियां देखती हैं कि वो अच्छा काम कर रहा है, तो उसे बुलाकर अपने संगठन में जगह दे देती हैं.
मुझे लगता है कि आज के दौर में हर राजनीतिक दल पढ़े लोगों की अहमियत समझ रहा है. जब इंडिया अगेस्ट करप्शन वाला मूवमेंट आया, उसके बाद बहुत सारे युवा राजनीतिक रूप से जागरुक हुए. इस तरह 2011-12 से राजनीतिक दल भी पढ़े लिखे युवाओं का महत्व समझ रहे हैं. लेकिन वही बात है कि उन्हें राजनीति में कितनी हिस्सेदारी मिलेगी, ये देखने की बात है.
राजनीतिक के जोखिम
पढ़े लिखे लोग राजनीति में नहीं आते, इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यहां पर कोई श्योरिटी नहीं है. यहां इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आप अच्छा काम करेंगे, मेहनत करेंगे, तो आपको रिजल्ट मिलेगा ही. शायद इसीलिए राजनीति को ऐसी नजर से देखा जाता है कि यहां पढ़े लिखे लोगों को नहीं आना चाहिए. क्योंकि ये बहुत बड़ा रिस्क है कि आप अपना एक स्टेबल करियर या स्टेबल जॉब छोड़कर यहां आते हैं. लेकिन अगर हम कहेंगे कि ये रिस्क पहले नहीं था तो बात सही नहीं होगी. ये रिस्क तो पुरानी जनरेशन ने भी लिया था और हम लोगों को भी लेना पड़ेगा.
आप नेहरू जी के समय से ही देख लीजिए तो उस समय राजनीति में जो लोग थे, वो बहुत पढ़े लिखे लोग थे. वो भी कुछ और कर सकते थे. तो ये रिस्क हमेशा रहा है. लेकिन मेरा मानना है कि आज राजनीति में पहले के मुकाबले बहुत अधिक स्कोप है. आज अगर जो लोग राजनीति में आने के बाद उसे छोड़ रहे हैं, तो वो भी अपना कोई थिंक टैंक, अपना कोई राजनीतिक दल, अपना कोई प्रेशर ग्रुप बना ले रहे हैं.
पढ़े-लिखे लोग ले सकते हैं रिस्क
आम आदमी पार्टी या अन्ना मूवमेंट की मैं बात करूं तो बहुत लोग जो टूटे, आज वो अलग-अलग ग्रुप चला रहे हैं. कोई बेरोजगारों के साथ काम कर रहा है, कोई एनवायमेंट के मुद्दे पर काम कर रहा है, तो बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपना एक क्षेत्र चुन लिया और क्या पता आने वाले समय में हम इन्हें एक नई ऊंचाइयों पर देखेंगे. इसलिए मेरा मानना है कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों के लिए स्कोप पहले से ज्यादा है.
आज समाजवादी पार्टी से इस्तीफा देने के बाद मैं जिस स्थिति में हूं, वहां से आगे का रास्ता नहीं जानती हूं, लेकिन मैं इस बात में विश्वास रखती हूं कि पढ़े लिखे लोगों को राजनीति में जाना चाहिए. हम लोग ही हैं जो रिस्क ले सकते हैं. हम लोग ही हैं जो खुलकर बोलने का रिस्क ले सकते हैं. सपा में ही बहुत से लोग हैं जो इसी फीलिंग से गुजर रहे हैं, जहां उनकी मेहनत को सम्मान नहीं मिल रहा है. उन्हें अपमानित किया जा रहा है. लेकिन उनमें बोलने की हिम्मत नहीं है क्योंकि वो एक टिपिकल पॉलिटिकल सेटअप में फंसे हुए हैं, जहां से वो बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. दूसरी ओर हम जैसे लोग जो अपनी मेहनत से अपनी च्वाइस से यहां तक आए हैं, वो रिस्क ले सकते हैं. जहां हमें इज्जत नहीं मिलेगी, हम खुलकर बोल सकते हैं, कुछ नया बना सकते हैं. तो मेरा मानना है कि नई पीढ़ी ही रिस्क ले सकती है. पुराने लोग रिस्क नहीं ले सकते.
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार पंखुड़ी पाठक के निजी विचार हैं)