राजेश श्रीवास्तव
भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार इन दिनों अपनी ही बनायी गयी एक रणनीति में फंस गये हैं और अब उससे बाहर निकालने के लिए ऐसी जुगत की तलाश में हैं जिससे पहले की गयी गलती से निजात भी मिल जाये और किरकिरी भी न हो।
यानि कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। दरअसल बात हो रही है एससी-एसटी एक्ट की। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने देश भर में मोदी के विरोध में खड़े हो रहे गठबंधन की काट ढूंढ़ने के लिए एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार कर संशोधन को लागू कर दिया।
उसने एक्ट में अहम बदलाव कर दिये ताकि मायावती व अति पिछड़ों के वोटों को सहेजा जा सके और महागठबंधन के मंसूबों पर पलीता लगाया जा सके। अब जब एक्ट में संशोधन लागू हो गया तो जो परिणाम सामने आये उससे भाजपा के रणनीतिकारों की पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं।
नाम का खुलासा न करने की शर्त पर उप्र भाजपा से जुड़े इसी वर्ग के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि केंद्र ने एससी-एसटी एक्ट तो लागू कर दिया लेकिन इस समाज के लोग इस एक्ट के चलते भाजपा को वोट देंगे , यह कह पाना बेहद मुश्किल है। क्योंकि अनुसूचित जाति-जनजाति समाज का वोट एक विश्ोष राजनीतिक दल के साथ है।
वह यह कहने से भी गुरेज नहीं करते कि हमें इसका लाभ कम और नुकसान ज्यादा दिख रहा है। अपनी बात को और अधिक पुख्ता करने के लिए कहते हैं कि एससी-एसटी एक्ट में सबसे ज्यादा ओबीसी वर्ग के लोगों के खिलाफ ही मामले दर्ज होते हैं। वह बिजनौर का उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं कि देख लीजिए पहला मामला आया वह भी यादव के विरुद्ध। क्योंकि अनुसूचित जाति-जनजाति का वर्ग सबसे ज्यादा ओबीसी वर्ग से ही पीड़ित दिखता है।
ऐसे में केवल सवर्ण की नाराजगी ही नहीं बल्कि पिछड़ा, सामान्य, अल्पसंख्यक सभी वर्ग इस एक्ट के चलते भाजपा को निशाने पर रख रहा है।
अब भारतीय जनता पार्टी ने इस नियम को लागू करके जो गलती की है। वह उसके गले की हड्डी बन गया है जो न खाते बन रहा है और न निगलते। भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार अब इस जुगत में लगे हैं कि कैसे इसमें बदलाव किया जाए कि एससी-एसटी वर्ग नाराज भी न हो और सवर्णों को लगे कि सरकार उनके प्रति भी संजीदा है।
इसीलिए बीते 6 सितंबर को जब सवर्णों ने एससी-एसटी एक्ट के विरोध में भारत बंद का आहवान किया तो भाजपा शासित किसी भी राज्य में बंद समर्थकों के विरुद्ध कहीं सख्ती नहीं की गयी। बल्कि प्रदर्शन के दौरान हर जगह पुलिस मूक दर्शक बनी रही।
भाजपा को उम्मीद नहीं थी कि सवर्ण समुदाय भारत बंद जैसा आयोजन कर सकने की हिम्मत कर सकता था। लेकिन अब जब धीरे-धीरे सवर्ण समुदाय आंदोलन के बाद खड़ा हो रहा है और तब से लेकर लगातार हर दिन कहीं न कहीं एससी-एसटी एक्ट के विरोधी प्रदर्शन कर रहे हैं तो भाजपा नेताओं की चिंता बढ़ना स्वाभाविक ही है।
भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में भी जब यह मुद्दा उठा तो अमित शाह ने सबको यह कहकर शांत करने की कोशिश की कि 2०19 के चुनाव में हम मोदी वैतरिणी के सहारे ही पार कर लेंगे। एक्ट का 2०19 के चुनाव में कोई असर नहीं होने वाला है।
शाह कुछ भी कहें पर भाजपा के बलिया के विधायक सुरेंद्र सिंह भी जिस तरह भारत बंद के दौरान समर्थकों के साथ सड़क पर उतरे उससे साफ है कि सवर्ण विधायकों की चिंता जायज है। कभी भाजपा को लगता था कि सवर्ण समुदाय के पास भाजपा के सिवाय कोई विकल्प नहीं है।
यह बात अनेक मौकों पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के अहम भरे बोल में दिखायी भी पड़ती है। लेकिन अब जिस तरह से सवर्ण समुदाय भाजपा से नाराज दिखायी पड़ रहा है। उससे साफ दिखने लगा है कि विकल्प बेहतर न भी हो तो भाजपा को चुनने की मजबूरी अब कम से कम सवर्णों की नहीं दिख रही है।
सवर्णों का मानना है कि भाजपा धर्म और देश की बात करके वोट मांगती है लेकिन जब हम जेल में होंगे या फिर नहीं होंगे तो और कुछ के होने या न होने के क्या मायने हैं ? अब भाजपा के रणनीतिकारों को तय करना है कि एससी-एसटी एक्ट में किस तरह का बदलाव करें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने छह सप्ताह का नोटिस केंद्र सरकार को थमाया है लेकिन अगर जल्दी ही परिणाम न आया तो 2०19 की नाव फंस सकती है।