लखनऊ। 10 सितंबर को कांग्रेस के नेतृत्व में 15 से अधिक विपक्षी दलों ने पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों और डॉलर के मुकाबले रुपये के गिरते स्तर के मुद्दे पर ‘भारत बंद‘ का आयोजन किया. मीडिया की रिपोर्ट्स के मुताबिक इसका मिला-जुला असर रहा. लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि यूपी की दो बड़ी विपक्षी पार्टियों सपा और बसपा ने इससे दूरी बनाए रखी.
मायावती ने कांग्रेस को कोसा
चलो यहां तक तो ठीक था, लेकिन इसके अगले ही दिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने पेट्रोल-डीजल के दामों में लगातार हो रही बढ़ोतरी व महंगाई के लिए केंद्र की बीजेपी सरकार के साथ-साथ कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया. मायावती ने कहा, “पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी व महंगाई के विरुद्ध हुए भारत बंद की स्थिति उत्पन्न होने के लिए हम बीजेपी एवं कांग्रेस दोनों को ही बराबर की जिम्मेदार मानते हैं. कांग्रेस ने ही यूपीए-2 के शासनकाल में पेट्रोल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का फैसला किया था और उसके बाद केंद्र की सत्ता में आई बीजेपी सरकार भी उसी आर्थिक नीति को आगे बढ़ाती रही. यही नहीं, बीजेपी ने एक कदम और आगे निकलते हुए डीजल को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिसके चलते खेती-किसानी काफी प्रभावित हुई है.”
बसपा का नया पैंतरा
यूपी में फूलपुर, गोरखपुर और कैराना लोकसभा उपचुनावों में सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद की विपक्षी एकजुटता की सफलता के बाद ये उम्मीद मानी जा रही थी कि 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी में ये विपक्षी महागठबंधन देखने को मिलेगा. लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस तरह बीजेपी के साथ कांग्रेस को कोसा, उससे खुद कांग्रेस हैरान रह गई है. मायावती ने तो अपनी प्रेस-कांफ्रेंस में बीजेपी और कांग्रेस के लिए एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जैसे मुहावरे का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा, ”कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बिग टिकट रिफॉर्म यानी बड़े आर्थिक सुधार के नाम पर पूंजीपतियों व धन्नासेठों के समर्थन में और गरीब, किसान व जनविरोधी नीतियों और फैसलों को वापस लेने के मामले एक जैसे और एक ही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगते हैं.”
सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के भीतर इस तरह के बयान के बाद बेचैनी बढ़ गई है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तो खुलकर विपक्षी महागठबंधन की पैराकारी करते दिख रहे हैं लेकिन सपा-बसपा की स्कीमों में कांग्रेस संभवतया फिट नहीं बैठती. इसकी बानगी इस बात से समझी जा सकती है कि गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में तो कांग्रेस के उम्मीदवार के उतरने के बाद सपा-बसपा ने तालमेल की बात कही. इसी तरह फूलपुर और कैराना लोकसभा उपचुनाव और नूरपूर विधानसभा चुनावों में भी सपा-बसपा ने ही सियासी ताश के पत्ते फेंटे. कांग्रेस बिना मांगे खुद से समर्थन देकर चुपचाप तमाशे को देखती रही.
सूत्रों के मुताबिक भारत बंद के आयोजन के बाद कांग्रेस के अंदरखाने ही आवाज उठ रही है कि क्या सपा-बसपा सुनियोजित तरीके से मिलकर कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं?
सीटों पर पेंच
इसके पीछे कई वजहें बताई जा रही हैं. पहला, सपा और कांग्रेस के बीच यूपी में विधानसभा चुनाव (2017) के दौरान गठबंधन हुआ था. सपा ने 403 में से कांग्रेस के लिए 100 से अधिक सीटें छोड़ दीं. लेकिन कांग्रेस केवल सात पर जीत सकी. सपा ने बाद में अपनी बड़ी हार के लिए परोक्ष रूप से इस फैक्टर को बड़ा जिम्मेदार बताया. इस पृष्ठभूमि में इस बार सपा, कांग्रेस के लिए फिलहाल बड़ी उदारता दिखाने के मूड में नहीं है.
दूसरी बात ये है कि मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि गठबंधन होने की स्थिति में वे सम्मानजनक सीटों के साथ ही मैदान में उतरेंगी. इस सूरतेहाल में माना जा रहा है कि सपा-बसपा गठबंधन होने की स्थिति में वह सपा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के संकेत दे रही हैं. इस मामले में अखिलेश यादव ने लचीला रुख अपनाया है. ऐसा होने पर कुछ सीटें रालोद के लिए भी छोड़ी जाएंगी. फिर कांग्रेस के लिए जगह कहां बचती है? मुलायम सिंह विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थे. हालांकि सपा-बसपा की दोस्ती पर मौन हैं.
तीसरी बात ये है कि यूपी में कांग्रेस को कुछ सीटें देने के बदले मायावती, कांग्रेस के साथ मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भी गठबंधन की बात कर रही है. जबकि कांग्रेस राज्यवार इस तरह के गठबंधन की इच्छुक है. यानी कि वह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो बसपा के साथ तालमेल करना चाहती है लेकिन राजस्थान में वह बसपा से गठबंधन के लिए तैयार नहीं दिखती.
समाजवादी सेक्युलर मोर्चा
इस बीच सपा के बागी नेता शिवपाल यादव ने समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बनाकर अखिलेश यादव की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. शिवपाल अपने मोर्चे में सपा में हाशिए पर मौजूद नेताओं को आमंत्रित कर रहे हैं. ऐसे में अखिलेश यादव को अपने कुनबे को बनाए और बचाए रखने की चुनौती है. इस कारण वह सियासी मजबूरी के तहत सीटों के मामले में बसपा के साथ तो थोड़ा नरम हो सकते हैं लेकिन कांग्रेस के प्रति उदारता दिखाना उनके लिए मुश्किल होगा?