सर्वेश तिवारी श्रीमुख
प्राचीन काल में भारत एक धर्मप्रधान देश था, अब एक तुक प्रधान देश है। यहाँ विमर्श भी तुक मिला कर होते हैं। आपने देखा, लोटा से प्रारम्भ हुई यात्रा नोटा होते हुए जलोटा तक पहुँच चुकी है। वस्तुतः नोटा का जलोटा से बड़ा ही प्रगाढ़ सम्बन्ध है। महान संत मोतीझील वाले बाबा ने कहा है,” कोई भी व्यक्ति तब तक ही नोटावादी होता है, जबतक उसे जलोटावादी होने का मौका नहीं मिलता। विश्वामित्र तब तक ही ब्रह्मचारी होते हैं जबतक कि उन्हें कोई अप्सरा न मिल जाय।” आप अपने चतुर्दिक निहारिये, सारे गर्लफ्रेंड विहीन तरुण घोर नोटावादी होते हैं। उनसे आप पूछिये कि प्रेम क्या है? वे कहेंगे-प्रेम चारित्रिक दुर्बलता है, यह हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं। हमें प्रेम से सौ कदम दूर रहना चाहिए…
उसी तरुण को यदि कोई प्रेयसी मिल जाय, तो वह चट से जलोटा हो जाता है। तब उससे पूछिये कि प्रेम क्या है? वह कहेगा- प्रेम मनुष्य की आत्मा की मूक अभिव्यक्ति है, यह हृदय की सबसे कोमल भावना है। प्रेम ही भारतीय सभ्यता का मूल मंत्र है, प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में किसी न किसी ने प्रेम करना चाहिए।
सच पूछिए तो नोटा से जलोटा होने की यही कला बुद्धिजीविता है।
मितरों! हर व्यक्ति बचपन से ही जलोटा बनना चाहता है, सुविधाओं का अकाल उसे नोटा की ओर मोड़ देता है।
मुझसे किसी ने पूछा- बाबा नोटा वाद और जलोटावाद में मूल अंतर क्या है?
मैंने कहा-नोटावाद राष्ट्रवाद का अंग है, जबकि जलोटावाद वामपंथ है। एक नोटावादी घोर दक्षिणपंथी होता है, उसे केवल स्वयं की चिंता होती है। वह प्रेम भी करता है तो अपने प्रिय को सात पर्दे में छुपा कर रखता है। वह यदि मछली खाना छोड़ दे तो गाँव के सारे पोखरों में जहर डालता फिरता है। उसे यदि अपनी पोस्ट पर मनवांछित लाइक नहीं मिले, तो सभी लाइकधारियों को “मट्ठा, या दद्दा” कह कर मजाक उड़ाता है। मुझे याद है बचपन में हम जब क्रिकेट खेलते थे, तब पड़ोस का नीरज मिश्र नामधारी एक दुष्ट लड़का घोर नोटावादी हुआ करता था। खिलाड़ी तो इतना जब्बर था कि भले एक ओवर में छह बार उसका मुह फुट जाय, रन एक भी नहीं लगता था, पर जिस दिन हमलोग उसे नहीं खेलाते, उस दिन सन्ध्या काल में पीच के बीच में ही स्वच्छता अभियान की ताता थैया कर देता था। उसमें भी ईमानदारी यह कि पीच के किसी भी हिस्से के साथ कोई भेदभाव नहीं होता, अत्यल्प ही सही पर समान और निरपेक्ष भाव से पूरे साढ़े बाइस गज जमीन को थोड़ा थोड़ा हिस्सा दे आता था। वस्तुतः अपने अधिकारों के प्रति यह सजगता ही नोटावाद है।
वहीं एक जलोटावादी घोर जनवादी होता है। उसके अंदर स्वयं के लिए कोई लालच नहीं होता। वह प्रेम भी करता है तो जगत कल्याण के लिए, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय… वह अपने प्रियतम को छुपाता नहीं, बल्कि समूचे जगत को बता देना चाहता है कि मेरे प्रिय के कपोलों में सुक्रोज की मात्रा साढ़े तेरह प्रतिशत से भी अधिक है, मतलब उनमें गन्ने से भी अधिक मिठास है। वह चिल्ला चिल्ला कर कहना चाहता है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए मेरे प्रिय के दहकते अधर ही जिम्मेवार हैं।
वास्तव में जलोटावाद प्रेम की नहीं, जनवादिता की धारा है।
नोटा और जलोटा की चर्चा में इसी तुक का एक महत्वपूर्ण शब्द छूट जाता है- सोटा। सच पूछिए तो यह सोटा ही एक ऐसी वस्तु है जिसके भय के कारण हर वाद कांपता है। वह नोटावादी हो या जलोटावादी, सोटा देख कर समान भाव में काँपते हैं। यदि कोई घोर जलोटावादी व्यक्ति भी अपनी प्रेयसी के संग बैठ कर कुमार विश्वास की कविता “भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा” पर विमर्श छेड़ रहा हो, और अचानक उसे प्रेयसी के मुस्टंडे भाई आते दिख जांय, तो वह सटाक से सर्वेश तिवारी श्रीमुख की कविता ” हिजड़े हैं, सब हिजड़े हैं, इस देश की सत्ता हिजड़ी है..” का ओजस्वी स्वर में पाठ करने लगता है। आपने देखा होगा कि कैसे “भारत तेरे टुकड़े होंगे” कहने वाले लोग वकीलों से चार सोटा खाते ही भारत माता की जय कहने लगे थे। आपको स्मरण होगा एक क्रांतिकारी संत के लँगोटा पर जब सोटा गिरने को हुआ तो वे कैसे भागे थे। वस्तुतः सोटा के आगे नोटा, लँगोटा, लोटा, या जलोटा सबकुछ छोटा लगता है। सोटा ही सबसे मोटा होता है।
चुनाव का वर्ष है। लोटा से प्रारम्भ हुई यात्रा जलोटा तक पहुँची है, पर मुझे विश्वास है कि जल्द ही यह यात्रा लँगोटा तक चहुपेगी। जब सभी दल के लोग एक दूसरे की लँगोट खींचने लगें तभी लोकतंत्र अपने रंग में आता है। उम्मीद है कि वह शुभदिन शीघ्र आएगा।
तब तक के लिए जय नोटा, जय जलोटा…