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खण्डित विग्रह..१ “विजया मन्दिर”

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
आधुनिक मध्यप्रदेश का जिला विदिशा, किसी युग में यहाँ महान परमार शासकों की कीर्ति का ध्वज लहराता था। वे हीं परमार, जिनका सम्बन्ध ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के उस महान शासक विक्रमादित्य से जुड़ता है जिनके नाम से विक्रम संवत चलता है, और जिन्होंने अयोध्या में जन्मभूमि स्थान का प्राचीन मंदिर बनवाया था। इसी परमार वंश में एक शासक हुए महाराज नरवर्मन। इतिहास के पन्नों में नरवर्मन के जीवन की कोई बड़ी उपलब्धि लिखित नहीं, किन्तु उनका एक कार्य उन्हें सदैव के लिए स्थापित कर गया। वह कार्य था विदिशा के प्राचीन मंदिर का भव्य पुनर्निर्माण। चालुक्य नरेश कृष्णदेव के प्रधानमंत्री वाचस्पति द्वारा बनवाया गया प्राचीन मंदिर लगभग ध्वस्त हो चुका था, उसके स्थान पर नरवर्मन नें एक भव्य मंदिर बनवाया। यह उस समय का सबसे बड़ा मन्दिर था। श्वेत पत्थरों से निर्मित विजय की देवी माँ दुर्गा के विजया स्वरूप के गगनचुम्बी मंदिर के साथ स्वयं महाराज नरवर्मन अमर हो गए।
युग बीता, प्रत्येक सभ्यता समय के साथ बनती और समाप्त होती है, परमार वंश की कीर्ति भी समाप्त हो गयी। वह युग स्यात सभी प्राचीन सभ्यताओं की समाप्ति का काल था। प्राचीन मिस्र, रोम, फारस, यूनान सारी संस्कृतियां समाप्त हो गईं। नील, दजला-फ़रात, सिंधु सारी नदियों का जल लाल हो गया।
पर भारत भारत है। वह समय के अनुसार स्वयं को नया रूप देना जनता है, इसी लिए भारत खड़ा रहा। अरब से निकली तलवारों ने सिन्धु, गङ्गा, यमुना, चंबल सभी नदियों में जल से अधिक रक्त भर दिया, हर नगर में हिंदुओं के सरों की मीनारें बनीं, पर भारत अडिग रहा। अडिग रही यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता, महाराज नरवर्मन की अद्भुत कीर्ति “विजया मन्दिर” अब भी शीश उठाये खड़ी थी।
पर अब ध्वंस का काल आ चुका था।
विजया मन्दिर पर सबसे पहले दृष्टि गयी मोहम्मद गोरी के दास अल्तमस की। उसने सन 1233 ई. में मन्दिर पर आक्रमण किया और लूटा। पर अगले दिन विदिशा के पास के जंगलों के भील जब मन्दिर तक पहुँचे और तुर्कों को अपने तीरों की शक्ति दिखाई, तो अल्तमस की सेना कुत्तों की तरह दुम दबा कर भागी।
मन्दिर अपवित्र हो चुका था, कुछ हिस्से टूट चुके थे। पर सनातन तो सनातन है न, वह स्वयं को पुनर्स्थापित करना जानता है। मन्दिर पुनः बन कर तैयार हो गया, प्राणप्रतिष्ठा हो गयी। विजया मन्दिर के शिखर पर “विश्व कल्याण” की प्रार्थना करता सनातन का भगवा ध्वज लहरा उठा।
सन 1290 में मन्दिर पर फिर गिद्धों की दृष्टि पड़ी। अबकी बार अलाउद्दीन खिलजी था। अर्धरात्रि में जब भारत सो रहा था, तब खिलजी की सेना मन्दिर के पास बसे पुजारियों के घरों पर टूट पड़ी। घरों में किंवाड़ बाहर से बंद कर आग लगा दी गयी ताकि मन्दिर की ओर प्रकाश फैल सके। जीवित जलते पुजारियों, स्त्रियों बच्चों की करुण चीत्कार के मध्य मन्दिर तोड़ा जाने लगा। पर विजया मन्दिर इतना छोटा नहीं था कि खिलजी रात भर में तोड़ सके, प्रभात होते ही भीलों की सेना पुनः मन्दिर की रक्षा के लिए खड़ी थी। खिलजी की सेना भाग चली…
मन्दिर पुनः अपवित्र हो चुका था, पर उसे फिर खड़ा किया गया। खिलजी की सेना ने मन्दिर का सौंदर्य तनिक बिगाड़ दिया था, पर सनातन की आस्था अजर-अमर थी। मन्दिर में पुनः प्राणप्रतिष्ठा हुई, पुनः विश्व कल्याण के मन्त्र गूंजे…
समय बीता… अब भारत पर मुसलमानों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था। वे शक्तिशाली हो चुके थे। सन 1532 ई में गुजरात के शासक बहादुरशाह नें पुनः मन्दिर पर आक्रमण किया। मन्दिर का सौंदर्य और प्रभावित हुआ, कुछ भाग और तोड़ दिए गए। पर सनातन अब भी खड़ा था। बहादुर शाह के जाते ही मन्दिर पुनः शुद्ध किया गया, पूजा पुनः प्रारम्भ हो गयी…
समय और बीता। अब मुगल सल्तनत के रूप में भारत और सनातन का सबसे भयावह कालखण्ड आया। औरंगजेब ने मन्दिर तोड़ने के लिए सेना का एक अतिरिक्त प्रकोष्ट बनाया, और देश के लगभग साठ हजार मन्दिर तोड़ डाले गए। यह कार्य एक पूरा विभाग काम करता था, जिसके जाँच के लिए सैकड़ों अधिकारी रखे गए थे। पूरे देश से लाखों मूर्तियों को तोड़ कर दिल्ली मंगाया गया, और सड़क के नीचे दबा दिया गया।
इसी क्रम में जब सन 1682 ई. में औरंगजेब की मूर्तिभंजक सेना विदिशा पहुँची, तो वह इसबार मन्दिर को पूर्णतः समाप्त करने की योजना साथ थी। इसबार न भीलों का संघर्ष काम आया, न आम नगरवासियों का प्रतिरोध! विदिशा के पास कोई ऐसा प्रान्तीय शासक भी नहीं था जो प्रतिरोध कर सकता। औरंगजेब की सेना ने मन्दिर से पहले आस-पास के गांवों पर धावा बोला, और हजारों लोग काट डाले गए। जो बचे, उनके मुह में गोमांस ठूस कर उन्हें मुसलमान बनाया गया। दो दिन तक भयानक नरसंहार करने के बाद जब औरंगजेब की सेना मन्दिर के पास पहुँची, तो कहीं से हल्के प्रतिरोध की भी सम्भावना नहीं बची थी। तोप लगा कर मन्दिर के शिखर को उड़ा दिया गया। अष्टकोणीय मन्दिर के चारो ओर नई दीवाल खड़ी की गई और मन्दिर के सभी विग्रहों को उसी दीवाल से दबा दिया गया। ध्वस्त मन्दिर के पत्थरों से ही मीनार खड़ी की गई, और पूरे प्रांगण को मस्जिद का आकार दे दिया गया।
अपना कार्य समाप्त करने के बाद औरंगजेब की विजयी सेना वापस लौट गई।
इसबार मन्दिर की प्रतिष्ठा पूरी तरह समाप्त हो गयी थी। अब मन्दिर की पुनर्स्थापना नहीं हुई। विदिशा के पास ऐसा कोई नहीं था जो विजया मन्दिर का पुनरुद्धार कर पाता।
पर सनातन तो सनातन है न! समय बीता, और सन 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। फिर विदिशा में जो हुआ वह भारत में इससे पूर्व कभी नहीं हुआ था। औरंगजेब की सेना द्वारा धर्मभ्रष्ट किये गए लोगों ने उसी ध्वस्त मन्दिर के बिखरे पत्थरों को छू कर स्वयं का पुनरुद्धार किया, और उसी ध्वस्त मन्दिर के प्रांगण में पुनः पूजा प्रारम्भ हुई। कोई शासकीय सहयोग नहीं, क्रांति का कोई हल्ला नहीं, यह एक प्रताड़ित सभ्यता की दरिद्र प्रजा द्वारा किया गया स्वयं का उद्धार था।
युग बीते… ध्वस्त मन्दिर के प्रांगण में पूजा चलती रही, लोगों की आस्था बनी रही। पर अरबी आतंक की कथा लोग धीरे धीरे भूल गए।
बीसवीं सदी के दूसरे दशक में आई एक बाढ़ के समय अंग्रेज कलक्टर ने वहाँ मुसलमानों को नमाज पढ़ने की इजाजत दे दी। तबसे ईद के दिन मुस्लिम लोग मन्दिर को ईदगाह की तरह प्रयोग करने लगे।
कहते हैं, प्रकृत कभी किसी के साथ अन्याय नहीं होने देती, बल्कि समय समय पर वही न्याय करती है। सन 1991 ई. में एक दिन आसमान से मेघ सत्य की स्थापना के लिए बरसे, और ऐसे बरसे की मन्दिर के पीछे की दीवाल भहरा गयी। और साथ ही गिरीं दीवाल के पीछे दबाई गयी अनेक मूर्तियां…
औरंगजेब की क्रूरता पुनः एक बार भारत के समक्ष खड़ी थी। भारत ने घृणा के साथ उन क्रूर मूर्तिभंजकों के नाम पर थूक दिया।
ध्वस्त विजया मन्दिर अब भी है। उसके शिखर पर सनातन का ध्वज नहीं, पर उसके अवशेष प्राचीन भारत के वैभव और अद्भुत स्थापत्य कला का ध्वज लिए खड़े हैं, और खोज रहे हैं किसी दूसरे नरवर्मन को…
” ईश्वर जाने विदिशा को दूसरा नरवर्मन कब मिलेगा।”

 

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