चित्रकूट की महिमा को लेकर एक दोहा मशहूर है-
चित्रकूट मा बसि रहें रहिमन अवध नरेश,
जा पर विपदा परत है ते आवत एंहि देश..
कांग्रेस विपदा में है. मध्यप्रदेश में तीन पंचवर्षी से बाहर. देश के अन्य प्रांतों से भी वह मुट्ठी के रेत जैसी सरकती जा रही है. केंद्र की राजनीति से भी आधार सिकुड़ चुका है. ऐसे में जिस किसी ने राहुल गांधी को चित्रकूट भगवान कामतानाथ की शरण में जाने को कहा उसकी सराहना की जानी चाहिए. सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि कांग्रेस पालित वे बौद्धिक राम को मिथकीय चरित्र कहने से पहले अब कम से कम राहुलजी से पूछेंगे. कोर्ट में कांग्रेस के वकील यह हलफनामा देने से हिचकेंगे कि सतुबंध रामेश्वरम का सेतु भूगर्भीय संरचना नहीं है, राहुलजी की नवीन आस्था के अनुसार उसे नल-नील के नेतृत्व में राम की वानरसेना ने बनाया था.
राजनीति भुजंग की भांति कुटिल और तड़ित की तरह चंचल होती है. हमारे देवी-देवताओं और पौराणिक चरित्रों के प्रति कांग्रेस नेता में उपजी इस नूतन आस्था के लिए उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद. उम्मीद करते हैं कि यह आस्था समय के साथ और बलवती होगी. और वे सत्ता में आने के बाद भी ‘पालटिकल समरसाल्ट’ नहीं मारेंगे. राहुल जी की इस तीर्थयात्रा के सुफल हेतु अब भाजपा की भांति कांग्रेस भी इसकी पात्र बन गई है.
पर एक बात चित्रकूट के साथ और जुड़ी है कि यह सत्ता से विरक्ति की साधना स्थली है. राम ने सबकुछ त्याग कर इस क्षेत्र को चुना था. भरत भी अपना सब त्यागने यहां पहुंचे थे. चित्रकूट में आकर अयोध्या की सत्ता राम और भरत के बीच पदकंदुक बन गई थी. चित्रकूट यथार्थ से साक्षात्कार का नाम है. यहां के कोल-किरातों, वनवासियों ऋषि-मुनियों की दीन-दशा, तपस्वियों के अस्थियों के पहाड़ ने राम को राक्षस नाश के लिए उद्वेलित किया. आज भी चित्रकूट वहींं का वहीं है. दीनहीन शोषित वनवासी खनिज के लोभ में जेसीबी से पवित्र पर्वतों की अस्थिमज्जा निकालते आधुनिक विराध. खैर इससे किसी को क्या लेना. राम का नाम सत्ता तक पहुँचाता है और सरग तक भी. यह आजमाया नुस्खा है.. शायद कांग्रेस ने इसी लालसावश यहां से चुनाव अभियान की शुरुआत की हो..राम उसका भला करें.
राजनीतिक रूप से चित्रकूट की महत्ता और भी ही. भाजपा के विपदा काल में यह उसकी शक्तिपीठ था. नानाजी देशमुख ने यहां दीनदयाल शोध संस्थान और ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. जबतक नानाजी थे भाजपा में कोई पेंच फँसती तो सभी बड़े नेता यहीं भागे आते और उसे सुलझाते थे. भाजपा का ऐसा कोई छोटा,मझोला,बड़ा नेता नहीं होगा जिसने चित्रकूट की परिक्रमा न की हो. जबसे नानाजी नहीं रहे वो आकर्षण भी नहीं रहा. अब उनकी जन्म-पुण्यतिथि ही अच्छे से मन जाए वही बहुत. सत्ता पाने के बाद चित्रकूट चित्त से उतर जाता है. कांग्रेस के स्वर्णकाल में भी यह तीर्थ चित्त से उतरा था और आज भाजपा का उत्कर्ष काल है तो उसके चित्त से उतरा है. ये मैं इसलिए कह सकता हूं कि पिछले दस बारह वर्षों से रामवन गमनपथ और मंदाकिनी के संरक्षण संवर्द्धन की बातें सुन रहा हूं और उसका यथार्थ भी देख रहा हूं. राम की कसम खाकर राम को ही बिसरा देने वालों का कभी भला नहीं हो सकता यह इस इलाके की लोकमान्यता है. सो इसलिए यदि राहुल गांधी ने विंध्य की चुनावी यात्रा के लिए भगवान कामता नाथ के चरणारविन्द को चुना तो इसका भी ध्यान रखना होगा.
चलिए राहुल गांधी और विंध्य की राजनीति की बात चित्रकूट से ही शुरू करते हैं. चुनावों को कवर करते हुए एक बात मेरी जिग्यासा का विषय हमेशा से रहा है खासतौर पर नब्बे के दशक तक कि धरमनगरी चित्रकूट और अयोध्या से कम्युनिस्ट पार्टी क्यों जीतती है. यूपी के हिस्से की बांदा लोकसभा सीट से रामसजीवन पटेल और फैजाबाद से मित्रसेन यादव कई बार जीते. अयोध्या में भाजपा नब्बे के बाद आई और मप्र. हिस्से के चित्रकूट में भाजपा का पहला विधायक 2003 में बना. यह यक्ष प्रश्न अभी भी घुमड़ता है कि धर्मस्थलों के वोटर धर्म की रौ में वैसा क्यों नहीं बह पाते जैसा कि अन्य क्षेत्र में?
चित्रकूट की विधानसभा सीट के लिए इसी साल हुए उप चुनाव में जीत को कांग्रेसी शुभंकर मानते हैं. वैसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो 1990 तक विंध्य ने हमेशा ही कांग्रेस के गाढ़े वक्त में साथ दिया. 77 में जब इंदिरा जी के खिलाफ जनता लहर थी तब विंध्य में जनता ने कांग्रेस को सहारा दिया. सबसे ज्यादा कांग्रेस विधायक इसी क्षेत्र से चुनकर गए. यही क्रम 1990 में दोहराया जब वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की बयार चली. दरअसल विंध्य में कांग्रेस से अपना जनाधार सहेजते नहीं बना. यह बात भी नहीं कि यहां के नेताओं को सत्ता में महत्व न मिला हो. अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी, कृष्णपाल सिंह, बैरिस्टर गुलशेर अहमद से लेकर अजय सिंह राहुल तक सभी को पद प्रतिष्ठा मिली. लेकिन इसके उलट जनाधिकार लगातार सिकुड़ता रहा. मेरी समझ में उसकी वजह यह थी कि कांग्रेस नेताओं ने यहां सिर्फ अपनी-अपनी राजनीतिक इलाकेदारी चलाई.विंध्यक्षेत्र के स्वाभिमान को गंभीरता से नहीं लिया.
पांच साल तक विंध्यप्रदेश एक भरापूरा प्रदेश था. तब रीवा के मुकाबले भोपाल कुछ भी नहीं था. रीवा की हैसियत लखनऊ, पटना, भुवनेश्वर से कम नहीं थी. विंध्यप्रदेश के सियासी कत्ल के बाद यह क्षेत्र लगातार पिछड़ता गया. रीवा की औकात दो टके की कर दी गई. जो विंध्य खनिज और वनसंपदा में पूरे प्रदेश को एक तिहाई हिस्सा देकर पालता है, जो विंध्य अपने कोयले से देशभर के घर रोशन करता है, जिस विंध्य के लाइमस्टोन की सीमेंट देश के हर दसवें घर की दीवार जोड़ती है, कांग्रेस के सत्ताकाल में विकास के पैमाने पर किसी ने उसकी कोई बखत नहीं समझी. यहां कांग्रेस का जनाधार सिंकुड़ने की वजह जातिवर्ग की राजनीति तो है ही, पिछड़ेपन का दंश भी है.
भाजपा ने यहां दोनों मोर्चों पर काम किया. विकास के मोर्चे और जातिवर्ग के मोर्चे पर भी. यही वजह है कि उसने कांग्रेस के धरातल को छीन लिया. यह बात राहुल गांधी को बताना चाहिए कि विंध्य में भाजपा के मूलाधार भाजपाई नहीं पुराने समाजवादी और उपेक्षित कांग्रेसी ही हैं. नब्बे से पहले तक भाजपा यहां एक एक सीट के लिए तरसती थी. उसका थोड़ा बहुत आधार सतना जिले में था, शेष हिस्से में कांग्रेस ही राज करती आई है. आज की स्थिति में वोटों के लिहाज से स्थिति का आंकलन किया जाए तो बसपा कांग्रेस की बराबरी में चल रही है, कहीं-कहीं तो काफी आगे . सो इसलिए विंध्य में कांग्रेस की पुनर्प्राणप्रतिष्ठा इतनी आसान नहीं.
कांग्रेस के अतीत को झांकें तो इंदिरा जी ने जरूर इस क्षेत्र से गहरा रिश्ता जोड़कर रखा था. वे सिरमौर मनगंवा क्षेत्र से लड़ने वाली चंपादेवी को मुँहबोली बहन ही मानती थींं. उनके विधानसभा चुनाव में प्रचार करने खास तौरपर आती थीं. यह इंदिरा जी के लिए चाहे साधारण सी बात रही हो पर उनके इस क्षेत्र से रिश्ते का गौरव समूचा विंध्य महसूस करता था. कांग्रेस नेता शत्रुघ्न सिंह तिवारी का जब निधन हुआ तो इंदिरा जी उनके घर पहुंचीं, उनके बच्चों के साथ घंटों बिताए. इंदिरा जी का यही करिश्मा था जिसे पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी याद करते हैं. फर्ज करिए राहुल गांधी यदि एक हफ्ते पहले श्रीनिवास तिवारी के जन्मदिन पर आ जाते तो एक भावनात्मक आवेग उनसे सीधे जुड़ जाता. पर उन्होंने चिट्ठी से ही काम चलाना मुनासिब समझा. तिवारीजी के निधन पर शिवराजसिंह चौहान सबसे पहले आए , कांग्रेस के अष्टधातुई नेताओं को आने में आठ-दस दिन लग गए. राहुलजी भला एक चुके हुए नेता को ग्लोरीफाई करने क्यों आते..! जीवन के उत्तरार्द्ध में अर्जुन सिंह भी ऐसे ही उपेक्षित रहे.
विंध्यक्षेत्र में कांग्रेस की बात अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के स्मरण के बिना नहीं की जा सकती. राहुल गांधी की सतना की सभा का पूरा जीवंत प्रसारण देखा. इनका कहीं कोई जिक्र सुनने को नहीं मिला. अर्जुन सिंह सतना से लोकसभा सदस्य रहे. सोनिया गांधी की प्रतिष्ठा के लिए नरसिंह राव से बैर लिया. केंद्र में दूसरे नंबर की हैसियत वाले मंत्री पद को छोड़कर अलग कांग्रेस बनाई. इतने हकदार तो थे ही कि उनकी राजनीतिक कर्मभूमि पर उन्हें वे याद करते. जमीन से जुड़ने के लिए उस जमीन की बात तो जरूरी हो जाती है, यह बात राहुल जी के रणनीति कारों को समझनी चाहिए.
रीवा और सतना के उनके भाषणों में लगभग वही सारी बातें दोहराई गईं जो इन दिनों उनके एजेंडे में है. राफेल डील के जरिए नरेन्द्र मोदी को चोर ठहराने की बात वे शताधिक बार कह चुके हैं यहां भी वही सबकुछ कहा. नई बात रही शिवराज सिंह चौहान पर व्यापम व अन्य मुद्दों को लेकर घेरने की. युवाओं को रोजगार, किसानों की कर्जमाफी जैसे चुनावी वायदे तो थे ही. राहुल गांधी एक ऐतिहासिक पार्टी के अध्यक्ष हैं इसलिए उनकी उपस्थिति से ठहरे हुए पानी में हलचल तो मचेगी ही.
यहां भाजपा की केंद्र व राज्य सरकार के खिलाफ सबसे ज्यादा जो माहौल है वह प्रमोशन में आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट को लेकर है. इस क्षेत्र की तासीर सवर्णों की उग्र प्रतिक्रिया की है लिहाजा राजनीति का तवा गरम है. पर इन मुद्दों से दोनों पार्टियां बच रही हैं. लोग इन्हीं दोनों मुद्दों को लेकर कांग्रेस का आधिकारिक स्टैंड जानना चाह रहे थे, लेकिन निराश हुए. उनके भाषण में कुछ नयापन नहीं था लेकिन वे आत्मविश्वास और जोश से लबरेज़ थे. और हाँ कमलनाथ को एक नया नाम जरूर मिल गया “कमलनाश”. सतना की सभा में उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए कहा भी..मध्यप्रदेश में हमारे कमलनाथ कमल का समूल नाश करेंगे. क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि खुदा न खास्ता प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनते-बनते बनी तो उसकी बागडोर किसके हाथों में होगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)