माधवन नारायणन
मंगलवार को रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल अपने 4 मातहत डिप्टी गवर्नरों के साथ दिल्ली में सत्ता के केंद्र नॉर्थ ब्लॉक में दाखिल हुए. रिजर्व बैंक के अधिकारी असल मे वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद की बैठक में शामिल होने आए थे. मगर उन सभी के साथ आने का एक इशारा ये भी था कि वित्त मंत्रालय के साथ छिड़ी जंग में रिजर्व बैंक के गवर्नर और उनके डिप्टी एक साथ हैं. उनका साथ आना अपनी बौद्धिक ताकत और एकजुटता का संदेश देना था. मजे की बात ये है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर जब इस बैठक के बाद ब्रिटिश राज की शानदार इमारत से निकले, तो वो पिछले दरवाजे से बाहर आए. शायद उनका मकसद मीडिया से बचना था.
सरकार के साथ लगातार छिड़े सत्ता संघर्ष के बाद ये अफवाह जोर पकड़ रही है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर इस्तीफा दे सकते हैं. सत्ता के साथ इस जंग में उर्जित पटेल को देश के आर्थिक रूप से ताकतवर तबके की सहानुभूति खूब मिल रही है. आर्थिक विशेषज्ञ उर्जित पटेल का समर्थन इसलिए कर रहे हैं कि वो रिजर्व बैंक की स्वायत्तता और आजादी बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं. ताकि, देश का केंद्रीय बैंक अपनी जिम्मेदारी निभा सके.
आमने-सामने
एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल और वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास इस बात की पर्याप्त वजहें हैं कि इस जंग में जीत के लिए वो लोगों का भरोसा जीतें. फिल्मकार अनुराग कश्यप को यूं तो आर्थिक मुद्दों का शायद कम ही अंदाज़ा हो. मगर जिस तरह से देश के बैंकिंग सेक्टर के एक बड़े हिस्से की मालिक सरकार, उसके नुमाइंदों और केंद्रीय बैंक के बीच जिस तरह का संघर्ष छिड़ा हुआ है, उस पर, ‘गैंग्स ऑफ बलार्ड एस्टेट’ के नाम से फिल्म बनाई जा सकती है.
रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के बीच छिड़े युद्ध में जहां वित्त मंत्रालय तेजी से आर्थिक तरक्की का लक्ष्य हासिल करना चाहता है, वहीं केंद्रीय बैंक ये चाहता है कि देश की वित्तीय व्यवस्था तय मानकों के हिसाब से ही चले, क्योंकि आगे चल कर यही देश की अर्थव्यवस्था के हित में होगा.
रिजर्व बैंक का लेन-देन के नियंत्रण के लिए अलग नियामक व्यवस्था बनाने की सरकार की कोशिश का विरोध बिल्कुल वाजिब है. जब सरकार बीमार गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों यानी एनबीएफसी में और पूंजी लगाने की कोशिश करती है, तो भी रिजर्व बैंक का विरोध वाजिब लगता है. वहीं दूसरी तरफ रिजर्व बैंक में सरकार के नुमाइंदे अगर ये चाहते हैं कि रिजर्व बैंक अपने लबालब भरे खजाने से कुछ पैसा वित्तीय व्यवस्था में डाले, तो वो सरकार का स्टैंड भी सही लगता है. आखिर वित्तीय सिस्टम के नियामक यानी रिजर्व बैंक को अपने पास इतना पैसा रखने की क्या जरूरत है?
क्या है मुश्किल?
इस संघर्ष को गहराई से समझने के लिए हमें 3 डी यानी डेमोक्रेसी, डेमोग्राफिक्स और डेवेलपमेंट की जरूरत होगी. 1969 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के बैंकिंग सिस्टम के एक बड़े हिस्से का राष्ट्रीयकरण करने का विवादित फैसला लिया, तो उसके पीछे यही तीन मकसद हासिल करने का इरादा था.
तब से अब तक भारत गणराज्य के इन लक्ष्यों में कोई बदलाव नहीं आया है. हालांकि 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की नियामक व्यवस्था यानी रिजर्व बैंक ने ‘विकासवादी बैंकिंग’ पर ज़ोर देने के बजाय खुद को पश्चिमी देशों की तर्ज पर ढालने की कोशिश की है. हालांकि ये बात जितनी सैद्धांतिक रूप से सही है, शायद जमीनी स्तर पर उतना बदलाव नहीं हुआ.
आदर्श स्थिति तो ये होनी चाहिए थी कि, गैर-समाजवादी सोच रखने वाली बीजेपी को 1991 के बाद की वैश्विक नीति के हिसाब से चलना चाहिए था. लेकिन, जब रोजगार न बढ़ रहे हों, तरक्की की रफ्तार धीमी हो रही हो, निर्यात घट रहा हो और महंगाई बढ़ रही हो, तो इन सब का ठीकरा सरकार के ऊपर ही फूटता है. बीजेपी को ये बात सत्ता में आने के बाद समझ में आई.
क्यों नाराज है सरकार?
और यहीं पर गिटार बजाने के शौकीन रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर से वित्त मंत्रालय की नाराजगी की वजह साफ हो जाती है. विरल आचार्य ने हाल ही में रिजर्व बैंक की स्वायत्तता की खुली वकालत से वित्त मंत्रालय की दुखती रग पर हाथ रख दिया. नतीजा ये है कि रिजर्व बैंक पर सरकार ने हमले तेज कर दिए हैं. अब रिजर्व बैंक स्वायत्तता की मांग कर रहा है, मगर जिम्मेदारी सरकार की बनती है. सत्ताधारी दल जनता और संसद के प्रति जवाबदेह है.
आर्थिक अखबारों में छपे संपादकीयों में सरकार को जो नुस्खे सुझाए जा रहे हैं, वो कई राज्यों में अहम चुनाव का सामना करने जा रही सरकार के लिए मुफीद नहीं हैं. फिर सत्ताधारी बीजेपी को अगले साल निर्णायक आम चुनावों का भी सामना करना है.
नेहरू के प्रति बीजेपी का विरोध जगजाहिर है. यही वजह है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत को कम दिखाने के लिए पार्टी ने उनके सहयोगी रहे सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा लगाई है. लेकिन अब जबकि बीजेपी सरकार रिजर्व बैंक से इस बात के लिए लड़ रही है कि वो गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों को और कर्ज बांटने की इजाजत दे, उसमें पूंजी निवेश करे. तो, ऐसा कर के मोदी सरकार असल में नेहरूवादी आर्थिक सोच पर ही चल रही है. सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक बैंकों के कर्ज बांटने पर नियंत्रण करने वाली व्यवस्था यानी पीसीए (त्वरित सुधारात्मक कदम-Prompt Corrective Action) में ढील दे. ये बिल्कुल नेहरूवादी आर्थिक सोच है.
नेहरू ही तो थे…
आखिर वो नेहरू ही तो थे जिन्होंने देश की वित्तीय व्यवस्थआ में सार्वजनिक क्षेत्र को सब से ऊंचे दर्जे पर रखने की वकालत की थी! मोदी ने खुद एक इंटरव्यू में माना था कि वो सरकारी सेक्टर को पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकते. अब तो ये कहने में कोई हिचक नहीं कि बीजेपी असल में नेहरूवादी सोच से भी ज्यादा व्यवस्था पर नियंत्रण चाहती है, न कि निर्देश देना. रिजर्व बैंक के बोर्ड में सियासी दोस्तों को भेजने का सरकार का फैसला इसकी बड़ी मिसाल है.
हकीकत ये है कि मोदी सरकार आज भारत की अर्थव्यवस्था की कई तल्ख सच्चाइयों से रूबरू है. बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक मकसद ये भी था कि कर्ज हासिल करने की पात्रता न रखने वालों जैसे किसानों, छोटे कारोबारियों और घर खरीदारों को भी विकासवादी बैंकिंग के तहत लोन मुहैया कराया जा सके. 1972 में नेशनल क्रेडिट काउंसिल ने कर्ज बांटने में प्राथमिकता देने वाले सेक्टर निर्धारित किए थे. ये नियम निजी क्षेत्र के बैंकों पर भी लागू होते थे.
हालांकि निजी बैंकों ने खुद को उस वक्त लगने वाले ‘लोन मेला’ यानी अंधाधुंध कर्ज बांटने के आत्मघाती कदम से बचा लिया. वरना उनकी बैलेंस शीट भी बिगड़ जाती. शेयर मार्केट के लिए मुनाफे में चल रहे एचडीएफसी बैंक जैसे बैंक मुफीद हैं. लेकिन सियासी रूप से अहम सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने का बोझ तो सरकारी बैंकों पर ही पड़ता है. और कई बार सरकारी बैंक राजनैतिक रूप से विवादित कर्ज भी किसानों और छोटे कारोबारियों को बांटते हैं.
विरल आचार्य और उर्जित पटेल, दोनों ही बैंकर 1991 के बाद के दौर की सोच रखते हैं. दोनों पर अमेरिका के फेडरल रिजर्व बैंक और यूरोपियन सेंट्रल बैंक की नीतियों की गहरी छाप है. ऐसी सोच से प्रभावित ये दोनों ही अधिकारी ये भूल जाते हैं कि न तो देश के जमीनी हालात और न ही रिजर्व बैंक एक्ट इस बात की इजाजत देते हैं. भारत में आबादी तेजी से बढ़ रही है. तो, देश की जरूरतों के हिसाब से विकास को रफ्तार देने की जरूरत है.
इस सवाल का जवाब कौन देगा
आज रिजर्व बैंक से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब तेल के दाम इंटरनेशनल मार्केट में कम थे, और रुपया मजबूत होने की वजह से विदेशी निर्यात पर बुरा असर पड़ रहा था, तो बैंक ने क्या कदम उठाए थे? जब हेज फंड के मैनेजरों ने कमोडिटी की कीमतों में उतार-चढ़ाव के चक्र को समझ कर जरूरी एहतियाती कदम उठाए थे, तो आखिर रिजर्व बैंक ने एक्सचेंज रेट यानी मुद्राओं के लेन-देन पर वाजिब नियंत्रण क्यों नहीं रखा?
विरल आचार्य ने लोगों को अर्जेंटीना की मिसाल देकर डराया क्योंकि वहां पर केंद्रीय बैंक को आजादी हासिल नहीं थी. लेकिन, भारत की तुलना तो अक्सर चीन की तरक्की की तेज रफ्तार से होती है. चीन का बैंक तो वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के इशारे पर ही चलता है. चीन ने जिस बनावटी तरीके से अपनी मुद्रा का वाजिब एक्सचेंज रेट रोक रखा है, उससे ही पिछले तीन दशक से दुनिया की अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज रही है.
ऊर्जित पटेल ने भगवान शिव के विष पीने की मिसाल देकर ये समझाने की कोशिश की कि वो जहर पीकर देश के बैंकिंग सिस्टम में सुधार ला रहे हैं. शायद रामराज्य का वादा कर के सत्ता में आई बीजेपी के लिए शिव की मिसाल समझना मुश्किल है. लेकिन ये साफ है कि उर्जित पटेल पश्चिमी देशों की मिसाल पर चलने वाले बैंकर हैं. उन्होंने सुनील गावस्कर की याद दिला दी, जिन्होंने 1975 के क्रिकेट विश्व कप के पहले मैच में पूरे साठ ओवर की पारी खेलकर महज 36 रन बनाए थे. टी-20 के जमाने में रिजर्व बैंक का टेस्ट मैच की तरह से खेलने का तरीका कदमताल के बिगड़ने का संकेत है.
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाय वी रेड्डी का वो बयान मशहूर है जिसमें उन्होंने कहा था रिजर्व बैंक ‘कुछ पाबंदियों के साथ आजाद’ है. उनका 2008 का एक मजाकिया जुमला बहुत मशहूर है: ‘मैं बहुत आजाद हूं. रिजर्व बैंक को पूरी स्वायत्तता हासिल है. मैने ये बात आप को बताने के लिए वित्त मंत्री से इजाजत ले ली है.’ पर, दिक्कत ये है कि जहां वाय वी रेड्डी ‘मेड इन इंडिया’ बैंकर थे, वहीं ऊर्जित पटेल ‘इम्पोर्टेड’ हैं.