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चार कारण जिनके चलते मोदी सरकार और आरबीआई आमने-सामने हैं

नई दिल्ली। केंद्र सरकार और आरबीआई के बीच घमासान खुलकर सामने आ चुका है. पहले भी सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच तनातनी होती रही है, लेकिन बयानबाज़ी इतनी खुलकर सामने नहीं आती थी. आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के भाषण के बाद यह तनाव सतह पर आया. उन्होंने बीते हफ्ते कहा था कि केंद्रीय बैंक टेस्ट मैच खेल रहा है और सरकार टी-20. जानकारों के मुताबिक यह एक तरह से सरकार को आरबीआई जैसे संस्थान में दखल न देने की चेतावनी थी. विरल आचार्य ने यह भी कहा कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता में दखल के परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं.

इस बयान पर प्रतिक्रिया में सरकार ने पहले संयम दिखाया. जानकारों के मुताबिक इसकी वजह यह थी कि यह विवाद ठीक उसी समय हो रहा था जब सरकार सीबीआई में हो रहे घमासान को लेकर विपक्ष के निशाने पर थी. लेकिन सरकार की चुप्पी ज्यादा दिन कायम नहीं रह पाई. मंगलवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फंसे हुए कर्जों के लिए आरबीआई को जिम्मेदार ठहराया. स्वायत्त संस्थाओं की बात पर उन्होंने कहा, ‘किसी भी सरकार या संस्था से ज्यादा देश महत्वपूर्ण है.’ अब खबर आ रही है कि उर्जित पटेल ने 19 नवबंर को बैंक के बोर्ड की बैठक बुलाई है.

फिलहाल सरकार के रुख को देखते हुए लगता है कि आरबीआई में नीतिगत दखल के लिए नियम-कानून के पन्ने भी पलटे जा रहे हैं. तनाव इस कदर बढ़ चुका है कि कुछ जानकर मान रहे हैं कि हो सकता है कि आरबीआई के मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल अपना कार्यकाल भी न पूरा कर पाएं. एक समय मोदी सरकार के पसंदीदा बताये जा रहे उर्जित पटेल के इस्तीफे की भी चर्चा चल रही है. आखिर सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच एकाएक तनाव इस कदर क्यों बढ़ गया है?

कर्ज बांटने में सख्ती

बैंकिंग व्यवस्था में सुधार के तहत आरबीआई ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्ज देने पर खासी सख्ती कर दी है. 11 सार्वजनिक और एक प्राइवेट बैंक को कर्ज बांटने में कड़ाई बरतने के निर्देश दिए गए हैं. जानकारों के मुताबिक चुनावी साल में सरकार यह नहीं चाहती कि लोगों को कर्ज मिलने में इतनी परेशानी हो. सरकार चाहती है कि छोटे और मंझोले उद्योग को आसानी से कर्ज दिए जाएं. कुछ की मानें तो सरकार मुद्रा योजना के तहत आसानी से लोन बांटकर इसे अगले चुनाव में उपलब्धि की तरह पेश करना चाहती है. इसके अलावा नोटबंदी और जीएसटी से नाराज छोटे कारोबारियों को खुश करने का रास्ता भी कर्ज की आसान उपलब्धता हो सकता है.

लेकिन आरबीआई की बैंकों की सेहत सुधारने की मुहिम सरकार की इच्छा के आड़े आ रही है. आर्थिक जानकारों के मुताबिक वित्त मंत्री का यह कहना कि यूपीए की सरकार के समय बांटे गए खराब कर्जों पर आरबीआई ने लगाम नहीं लगाई, दरअसल इस खीझ से उपजा है कि आरबीआई अब मौजूदा सरकार को ऐसा क्यों नहीं करने दे रही है.

चुनावी साल में सरकार ज्यादा पैसा चाहती है

कई विश्लेषकों के मुताबिक सरकार के साथ आरबीआई की खींचतान की एक और वजह यह है कि वह केंद्रीय बैंक के लाभांश में और ज्यादा हिस्सेदारी चाहती है. सरकार आरबीआई से काफी समय से यह मांग कर रही है कि लाभांश के तौर पर उसे ज्यादा रकम उपलब्ध कराने के लिए नियमों में बदलाव किया जाए. चुनावी साल होने के चलते केंद्रीय बैंक पर यह दबाव और बढ़ रहा है क्योंकि बजट के तमाम वादों को पूरा करने के लिए सरकार को ज्यादा पैसों की जरूरत होगी. लेकिन आरबीआई का मानना है कि मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए अपनी बैलेंस शीट मजबूत रखना ज्यादा जरूरी है.

आरबीआई बोर्ड में नियुक्ति पर टकराव

आरबीआई बोर्ड में नियुक्तियों को लेकर भी सरकार और केंद्रीय बैंक में मतभेद रहे हैं. लेकिन यह विवाद उस समय गहराया जब मोदी सरकार ने बोर्ड से निदेशक नचिकेत मोर को बिना किसी सूचना के हटा दिया और स्वदेशी जागरण मंच के एस गुरुमूर्ति समेत चार अन्य निदेशकों की नियुक्ति कर दी. नचिकेत मोर सरकार के आरबीआई में दखल के सख्त आलोचक थे. नचिकेत मोर को जिस तरह हटाया गया, उसने आरबीआई का प्रबंधन भी नाराज था. स्वदेशी समर्थक गुरुमूर्ति छोटे और मध्यम कारोबारियों को आसानी से कर्ज बांटने के समर्थक हैं और जानकार बताते हैं कि आरबीआई की एक बैठक में उन्होंने कर्जों पर सख्ती को लेकर गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य से नाराजगी जताई थी. इसी के बाद विरल ने टी-20 और टेस्ट मैच वाला बयान दिया.

पेमेंट रेगुलेटर पर भी मतभेद

इन सारी बातों के अलावा नए भुगतान नियामक पेमेंट रेगुलेटर की स्थापना को लेकर भी सरकार और आरबीआई में मतभेद है. भुगतान नियमन का काम आरबीआई अपने ही हाथ में रखना चाहता है. उसे लगता है कि किसी अन्य नियामक की जरूरत नहीं है. जानकारों के मुताबिक इसकी वजह यह मानी जा रही है कि कुछ औद्योगिक घरानों ने पेमेंट बैंक के लाइसेंस लिए हैं और अगर अलग नियामक बनाया गया तो उसके नियमों में बदलाव कर इन पेमेंट बैंकों का दायरा बढ़ाया जा सकता है. इसका आरबीआई समेत तमाम कारोबारी जगत विरोध कर रहा है. कुछ जानकारों का मानना है कि पेमेंट बैंक और पेमेंट नियामक के जरिये सरकार कुछ कारोबारी घरानों को बैंकिंग सेक्टर में घुसाना चाहती है.

इसके अलावा आईएल एंड एफएस संकट के बाद नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों के सामने नगदी का संकट बढ़ा है. सरकार चाहती है कि आरबीआई दखल देकर इस संकट से निपटे, लेकिन उसने इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है.

एक ऐसे वक्त जब अर्थव्यवस्था की हालत जरा नाजुक दिख रही है ,सरकार और आरबीआई के बीच विवाद को जानकर चिंताजनक मान रहे हैं. मौजूदा साल में संस्थागत विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से इस साल 97000 करोड़ रुपये निकाल चुके हैं. मौजूदा विवाद के चलते इसमें और तेजी आ सकती है.

क्या सरकार सेक्शन-7 की तैयारी कर रही है?

केंद्रीय बैंक और केंद्र सरकार के बीच बढ़ते टकराव के बीच आरबीआई एक्ट के सेक्शन-7 की चर्चा भी गर्म है. बताया जा रहा है कि सरकार अब यह प्रावधान लागू करने की सोच रही है. अगर ऐसा हुआ तो केंद्रीय बैंक के करीब 83 साल के इतिहास में यह पहली बार होगा. बल्कि कुछ मीडिया रिपोर्टों की मानें तो वित्त मंत्रालय ने इस दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है और हाल में सेक्शन-7 के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए उसने रिज़र्व बैंक के साथ इससे संबंधित चर्चा भी शुरू कर दी है. इसमें नकदी प्रवाह से लेकर एनपीए तक कमाम मुद्दों पर बात हुई है.

रिज़र्व बैंक अपने आप में एक स्वायत्त संस्था है. यानी यह सरकार से अलग फैसले लेने के लिए आजाद है. लेकिन कुछ विशेष हालात में इसे सरकार के निर्देश सुनने पड़ते हैं. आरबीआई एक्ट का सेक्शन-7 सरकार को रिज़र्व बैंक को निर्देश जारी करने का अधिकार देता है. इसके मुताबिक केंद्र सरकार जनहित को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय बैंक को निर्देश जारी कर सकती है. जानकारों के मुताबिक सेक्शन-7 लागू होने के बाद रिजर्व बैंक के कारोबार से जुड़े फ़ैसले गवर्नर के बजाय रिज़र्व बैंक का निदेशक मंडल यानी ‘बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स’ लेगा.

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