गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई थी. हत्या के जुर्म में गोडसे और आप्टे को मौत की सजा हुई. सावरकर को बरी कर दिया गया और बाकियों को उम्र कैद हुई. उच्च न्यायालय में अपील के बाद दो आरोपितों परचुरे और किष्टैया की सजा माफ हो गई जबकि बाकी की सजा बरकरार रही. गोडसे और आप्टे के लिए 15 नवंबर 1949 फांसी की तारीख तय हुई. इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय का विकल्प बचता था. लेकिन देश में तब सर्वोच्च न्यायालय नहीं था. उन दिनों उच्च न्यायालय के बाद अपील करनी हो तो मुकदमा इंग्लैंड स्थित प्रिवी काउंसिल में जाता था. बताते हैं कि गोडसे नहीं चाहता था कि उसकी जान बचाने के लिए आगे अपील की जाए, लेकिन उसके घरवालों ने उसे बिना बताए अपील कर दी. यह अक्टूबर 1949 की बात है. प्रिवी काउंसिल ने सुनवाई से मना कर दिया. उसका तर्क था कि 26 जनवरी 1950 को भारत में सर्वोच्च न्यायालय अस्तित्व में आ जाएगा और उससे पहले उसके लिए मुकदमा खत्म करना संभव नहीं होगा. लिहाजा उसकी सुनवाई का कोई मतलब नहीं बनता. इसके बाद गोडसे के परिजनों ने तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी से उसकी सजामाफी की अपील की जो खारिज हो गई. यह सात नवंबर 1949 की बात है. इसके बाद गोडसे और आप्टे को अंबाला जेल में फांसी दे दी गई.

इस मुकदमे के बारे में एक दिलचस्प बात यह भी है कि इसके तीन आरोपितों का कभी कोई पता नहीं चला. ये थे गंगाधर दंडवते, गंगाधर जादव और सूर्यदेव शर्मा. वे फरार हो गए थे और आज तक कोई नहीं जानता कि उनका क्या हुआ.