अनुराग शुक्ला
आरबीआई की बोर्ड बैठक में सरकार और आरबीआई के बीच चल रही जंग में भले ही युद्ध विराम घोषित हो गया, लेकिन इससे पहले हालात ऐसे हो गए थे कि आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल का इस्तीफा होते-होते बचा. जानकार मानते हैं कि आरबीआई-सरकार विवाद में सरकार के बैकफुट पर आ जाने की वजह गवर्नर उर्जित पटेल की इस्तीफे की चेतावनी ही रही. क्योंकि अगर स्वायत्तता के नाम पर गवर्नर का इस्तीफा होता तो दुनिया भर में आरबीआई की साख रसातल में चली जाती.
तलवारें फिलहाल भले ही म्यान में चली गईं हो, लेकिन यह तो जगजाहिर हो चुका है कि उर्जित पटेल और नरेंद्र मोदी सरकार के बीच अब तालमेल जैसी चीज नहीं रही. बाकी, आरबीआई के रिजर्व पर सरकार को आंख न गड़ाने की नसीहत देने वाले डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य तो सरकार में किसी को भी फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं. इससे पहले भी महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अर्थशास्त्रियों से मोदी सरकार की नहीं बनी और वे एक-एक कर उससे विदा लेते रहे. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, फिर नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया और आखिर में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ‘सरकारी कूचे’ से निकल गए. नोटबंदी केे समय देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ने नोटबंदी को देश के लिए एक आर्थिक झटकाबताकर इशारों में यह जाहिर कर दिया है सरकार के इस फैसले से उनकी सहमति नहीं थी.
रघुराम राजन के बारे में तो यह माना जा सकता है कि उनकी नियुक्ति कांग्रेस सरकार ने की थी, लेकिन बाकी सभी को तो नरेंद्र मोदी सरकार ने खुद नियुक्त किया था. सवाल उठता है कि पूरे कार्यकाल के दौरान उसकी इन अर्थशास्त्रियों से भी पटरी क्यों नहीं बैठी?
मोदी सरकार ने चुनाव से पहले ‘मिनीमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का नारा दिया था. तब उद्योग जगत के साथ-साथ तमाम आर्थिक जानकारों को लगा कि मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर तेजी से काम करने को प्रतिबद्ध दिख रही है. लेकिन सत्ता में आने के बाद वह बदली-बदली नजर आई. आर्थिक जानकार कहते हैं कि कुछ सरकार की राजनीतिक मजबूरियों (कई विधानसभा चुनावों के कारण सरकार चुनावी मोड में थी) और फिर धीरे-धीरे आरएसएस की स्वदेशी समर्थक लॉबी के दबाव ने उसका आर्थिक एजेंडा तय करना शुरू कर दिया.
शुरुआत रघुराम राजन से हुई. जब ऐसा लगा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नापसंद नहीं हैं तो उन्हें नया कार्यकाल न मिले, इसके लिए एक सुनियोजित पेशबंदी की गई. इसके तहत स्वदेशी लॉबी ने उन्हें ‘अमेरिका समर्थक’ अर्थशास्त्री बताना शुरू कर दिया. कहा गया कि अमेरिका में पढ़े किसी अर्थशास्त्री के बजाय ‘भारतीय जड़ों’ से जुड़ा अर्थशास्त्री आरबीआई का गवर्नर बने.
दबाव रंग लाया और रघुराम राजन को दूसरे कार्यकाल की पेशकश नहीं की गई. सरकार के साथ काम कर रहे पेशेवर अर्थशास्त्रियों के लिए यह फैसला एक झटका था कि राजन जैसे दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री को भारत सरकार क्यों जाने दे रही है? लेकिन फिर इस बात से संतोष कर लिया गया कि राजन की नियुक्ति कांग्रेस सरकार में हुई है और इसलिए यह फैसला उतना भी अजीब नहीं था.
लेकिन बात शायद इससे कहीं ज्यादा थी. जानकार मानते हैं कि भारतीय विशेषज्ञों के नाम पर जो जोर था, वह आरएसएस और स्वेदशी जागरण मंच के ‘बौद्धिक प्रकोष्ठ’ को सत्ता में सेट करने की मुहिम भी थी. आर्थिक जानकार कहते हैं कि स्वेदशी नीतियों के नाम पर यह दबाव लगातार बढ़ता रहा और तमाम महत्वपूर्ण पदों पर पेशेवर लोगों की जगह राजनीतिक लोगों को तरजीह मिलने लगी. इसने पेशेवर तरीके से काम करने वालों को असहज कर दिया. और धीरे-धीरे वे सरकार से अपनी सम्मानजनक विदाई का रास्ता खोजने लगे.
आर्थिक मुद्दों पर नज़र रखने वाले जानकर मानते हैं कि अकादमिक आर्थिक जानकारों को विश्व बैंक और आईएमएफ की नीतियों का वाहक बताकर उनकी छवि खराब की गई. लेकिन आरबीआई के मौजूदा गवर्नर तो लंबे समय से भारत में काम कर रहे हैं, फिर उनके साथ विवाद क्यों खड़ा हुआ है? इसके पीछे वजह यह मानी जा रही है कि सरकार और स्वेदशी लॉबी चाहती है कि महत्वपूर्ण आर्थिक पदों पर बैठे लोगों के काम करने का तरीका पेशेवर होने के बजाय सरकारी इच्छा को गति देने वाला होना चाहिए. और सरकारी इच्छा स्वदेशी को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए. स्वदेशी लॉबी के एक प्रमुख विचारक गुरुमूर्ति आरबीआई-सरकार विवाद में जिस तरह मुखर थे वह सब साफ कर देता है.
विशेषज्ञों के मुताबिक, नीति निर्माण में मदद करने वाले पेशवरों से कमोबेश ऐसी उम्मीद सभी सरकारें रखती हैं, लेकिन उनसे पेश आने और उन्हें अपनी इच्छा जताने का एक सम्मानजनक तरीका होता है. लेकिन मोदी सरकार में मंत्रियों से लेकर नौकरशाह तक इस मामले में उतने संवेदनशील नहीं रहे और कई बार सरकार से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने खुद को उपेक्षित महसूस किया.
इसका सबसे ताजा उदाहरण आरबीआई और सरकार के बीच विवाद में देखा जा सकता है. वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने एक ट्वीट में आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की नकल कर एक तरह से उनका मजाकउड़ाया. विरल ने अपने चर्चित भाषण में कहा था कि अगर सरकार आरबीआई की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करती है तो उसे ‘बाजार के कोप’ का सामना करना पड़ेगा. आर्थिक मामलों के सचिव ने इस विवाद के दौरान रुपये में सुधार और आर्थिक प्रगति दर्शाने वाले कुछ अन्य आंकड़े पेश करते हुए लिखा था कि क्या यही ‘बाजार का कोप’ है. उन्होंने अंग्रेजी के ठीक वही शब्द इस्तेमाल किये थे जो विरल ने कहे थे. जानकारों का मानना है कि यह उसी तरह से जवाब देना था, जैसे नेता एक-दूसरे को रैलियों में देते हैं. जाहिर है एक सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर इतना हो सकता है तो भीतर का हाल आर्थिक पेशेवरों के लिए और भी उलझन भरा रहा होगा.
यह ताजा मामला है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक पेशेवर सलाहकारों पर नौकरशाही का दबाव और उसे तरजीह मिलना मोदी सरकार की पुरानी समस्या है. सूत्रों के मुताबिक, मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम वित्त मंत्री अरुण जेटली की पसंद थे, लेकिन कई बार महत्वपूर्ण फैसलों में अधिकारी उन्हें लूप में नहीं रखते थे. वित्त विभाग के आंतरिक सूत्रों के मुताबिक, वित्त मंत्री की बीमारी के दौरान वित्त मंत्रालय के अफसर उन्हें पूरी तरह दरकिनार करने लगे, ऐसे में उन्होंने पद छोड़ना ही बेहतर समझा.
हालांकि मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद से इस्तीफा देने के बाद अरविंद सुब्रमण्यम ने इसकी वजह निजी और पारवारिक बताई थी. लेकिन उन्होंने अपनी आने वाली किताब में नोटबंदी को भारतीय व्यवस्था के लिए करारा झटका बताया हैै. गुरुवार को उनकी किताब ‘अॉफ काउंसिल : द चैलेंज अॉफ द मोदी-जेटली’ के कुछ अंश सामने अाए, जिसमें उन्होंने नोटबंंदी को लेकर पूरा एक अध्याय शामिल किया गया है. इस अध्याय में उन्होंने लिखा है कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को खासा प्रभावित किया, बाजार से 86 फीसद मुद्रा हट जाने सेे विकास दर तेेजी से गिरकर आठ फीसद से 6.8 फीसद तक आ गई. उनका यह इशारा साफ करता है कि नोटबंदी को लेकर न तो उनसे सलाह ली गई और न वे इसके हक में थेे. जाहिर हैै सरकार न तो उनकी सुन रही थी और न महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनसे चर्चा की जा रही थी. यह सारा प्रकरण साफ करता है कि सुब्रमण्यम के इस्तीफे की वजह विशुद्ध पारिवारिक और निजी नहीं मानी जा सकती.
आर्थिक जानकारों का कहना है कि नीति निर्माण के स्तर पर काम करने वाले अर्थशास्त्रियों के साथ यह समस्या भी बनी रही कि वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सरकार आर्थिक सुधारों को गति देकर उदारीकरण को रफ्तार देना चाहती है या संरक्षणवाद को बढ़ावा देकर स्वेदशी जागरण मंच को खुश करना चाहती है.
कांग्रेस की समाजवादी आर्थिक नीतियों का प्रतिबिम्ब रहे योजना आयोग को भंग कर जब नीति आयोग बनाया गया तो लोगों को लगा कि अब आर्थिक सुधार का नया दौर शुरू होगा. लेकिन नीति आयोग को जोर-शोर से गठित करने की इवेंट के बाद सरकार ने इसकी भूमिका तय करने में कोई रुचि नहीं ली. नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने इस्तीफे की वजह निजी बताई थी, लेकिन जानकार मानते हैं कि अमेरिका के विश्वविद्यालयों के ये पेशेवर अकादमिक इस बात से भी नाराज थे कि सरकार फिर से संरक्षणवाद पर लौट रही है. अपने इस्तीफे के बाद उन्होंने अपने कई लेखों में मोदी सरकार को इसके लिए लगातार चेताया भी है.
सत्ता के गलियारों पर नज़र रखने वाले कहते हैं कि इस सरकार में नीतियों को प्रभावित करने वाले इतने समूह हैं कि नीतियों की दिशा तय करना मुश्किल है. शक्ति का केंद्र पूरी तरह से पीएमओ की अोर झुका हुआ है, जो सलाहकारोंं की ‘स्वतंत्र आवाज’ के बजाय ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ पर भरोसा करता हैै. लेकिन इस खींचतान से तंग आकर क्या अब नौकरशाही के लोग भी सरकार से किनारा कर रहे हैं?
जीएसटी के ‘पोस्टर बॉय’ कहे जाने वाले राजस्व सचिव हसमुख अधिया 30 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं. उन्होंने किसी भी तरह का सेवा विस्तार लेने से इंकार कर दिया है. हालांकि वित्त मंत्रालय में यह अलिखित परंपरा रही है कि बजट से जुड़े काम पूरे करने के लिए अधिकारियों को सेवा विस्तार मिलता ही है. सूत्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री के विश्वासपात्र के इस बात से खिन्न हैं कि जीएसटी की नाकामी का सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ा जा रहा है. वित्त मंत्री भी उनके साथ बहुत सहज नहीं थे और चिर आलोचक सुब्रमण्यम स्वामी लगातार जीएसटी लागू करने के तरीके को अर्थव्यवस्था के लिए घातक बता रहे थे.
पेशेवर अर्थशास्त्रियों के बाद अब नौकरशाह भी इस खींचतान से खिन्न हो रहे हैं. जानकार मानते हैं कि चुनाव नजदीक आने के साथ यह सब और बढ़ सकता है.