नीलेश द्विवेदी
मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ 28 नवंबर की शाम क़रीब सात बजे जब मीडिया से रू-ब-रू हुए तो उनका उत्साह और आत्मविश्वास देखने लायक था. तब तक सामने आए आंकड़ों से एक बात साफ़ हो चुकी थी कि मध्य प्रदेश के मतदाताओं ने इस बार जी खोलकर मतदान किया है. सो कुर्सी संभालते ही कमलनाथ ने इस पर पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया दी, ‘मध्य प्रदेश में आज दो चीजें शांति से निपट गईं. एक- चुनाव और दूसरी- भाजपा.’ बाद में एक सवाल के ज़वाब में भी उन्होंने कमोबेश यही बात दोहराई, ‘यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी की सरकार और जनता के बीच था. इसमें सरकार पर जनता भारी पड़ी है.’
कमलनाथ का उत्साह लाज़मी भी था क्याेंकि मध्य प्रदेश में इस बार मतदान का प्रतिशत 75 से ऊपर जाता दिख (अभी अंतिम आंकड़े नहीं आए हैं) रहा है. यह एक रिकॉर्ड भी है. इसके साथ ही पुराने रिकॉर्ड भी यही हैं कि जब भी देश या किसी प्रदेश में इस तरह का भारी मतदान हाेता है तो नतीज़े एकतरफ़ा आते हैं और अक़्सर सरकार के ख़िलाफ़ ही. सो मीडिया के प्रतिनिधियों के सवाल भी कमलनाथ से उतने ही स्वाभाविक थे. मसलन- सरकार बनी तो मुख्यमंत्री कौन होगा? सरकार की प्राथमिकताएं क्या होंगी? आदि.
लेकिन मीडिया के उन्हीं प्रतिनिधियों के बीच एक बड़ी संख्या उनकी थी जाे तब तक भी पूरी तरह मुतमइन यानी आश्वस्त नहीं थे. उन्होंने सीधे कमलनाथ से तो नहीं पूछा लेकिन अनौपचारिक बातचीत में अपने अन्य साथियों और कांग्रेस के दीगर नेताओं से ज़रूर सवाल किया, ‘कमलनाथ की प्रतिक्रिया कहीं उनका अतिआत्मविश्वास तो नहीं है? क्योंकि दावे (कांग्रेस के) पिछली बार भी ऐसे ही थे?’
यहीं से आकलन का दूसरा पहलू शुरू होता है. इससे तमाम कड़ियां भी जुड़ती हैं और नतीज़े में ऐसी तस्वीर बनती है जो स्थापित मान्यताओं को झुठलाती नहीं तो धुंधलाती ज़रूर है. साथ ही सचेत करती है कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाज़ी क़तई न की जाए क्योंकि निष्कर्षाें के लिए सभी संभावनाएं खुली हैं. लिहाज़ा प्रदेश में इस बार के बंपर मतदान से जुड़े तमाम पहलुओं को समझना तो दिलचस्प हो सकता है पर जहां तक नतीज़े या निष्कर्ष पर पहुंचने की बात है तो 11 दिसंबर दूर नहीं है. वह ख़ुद ही सामने आ जाएगा. इसलिए फिलहाल एक-एक कर यहां-वहां बिख़री कड़ियों को जोड़ने की ही कोशिश करते हैं, बस!
1. इस मतदान को सत्ताविरोधी लहर मान सकते हैं या नहीं?
मतदान के अगले दिन यानी गुरुवार को प्रदेश की जनता के सामने यह गुत्थी सुलझाने की कोशिश मीडिया के सभी माध्यमों ने की है कि इतनी भारी वोटिंग का मतलब क्या है? तमाम विश्लेषकों और विश्लेषणों के मार्फ़त यह समझाने की कोशिश की गई मतदान का यह प्रतिशत सत्ताविरोधी लहर का नतीज़ा ही हो सकता है. हालांकि इसके साथ यह भी माना गया कि विरोध की इस लहर का मतदान शुरू होने के दो-तीन घंटे बाद तक भी कोई अंदाज़ा नहीं लगा पाया. क्योंकि तब तक मतदान का प्रतिशत 15 का आंकड़ा भी पार नहीं कर सका था.
इसीलिए यहां ये सवाल भी उठता है कि क्या वाक़ई लहर थी भी या मसला कुछ और है? क्योंकि देश के चुनावी इतिहास में ऐसे उदाहरण ज़्यादा हैं कि जब मतदाताओं के बीच कोई (भावनात्मक) लहर होती है तो वह दिखती भी है. फिर चाहे वह आपातकाल के बाद उठी लहर हो या इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद उनके परिवार और पार्टी के प्रति सुहानुभूति की. राम लहर हो या नरेंद्र मोदी की. मध्य प्रदेश में ही जब 2003 में उमा भारती भारतीय जनता पार्टी का चेहरा बनकर आईं तब भी यह लहर साफ़ दिखी थी. साथ ही अधिकांश मौकों पर लहर (सुहानुभूति वाली छोड़ दें तो) अक़्सर दोतरफ़ा प्रभाव से प्रेरित भी रही है. पहला सत्ता के प्रति नाराज़गी. दूसरा- विकल्प के प्रति ठांठें मारती अपेक्षाएं.
इसलिए भी मध्य प्रदेश में इस बार का मामला अलग हो जाता है. क्योंकि जो जानकार यह मान रहे हैं कि राज्य के लोगों में नाराज़गी थी, वे ही यह भी मानते हैं कि गुस्सा स्थानीय विधायकों के प्रति ज़्यादा था, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए नहीं. बल्कि माना यह भी जा रहा है कि समाज कल्याण से जुड़ी अपनी योजनाओं के बलबूते शिवराज तो कांग्रेस के परंपरागत जनाधार (ग्रामीण और कमजोर तबका) में भी बीते 13 साल के अपने शासन के दौरान सेंध लगा चुके हैं. अगली बात ग़ौर करने की यह कि कांग्रेस के पास शिवराज के विकल्प के रूप में कोई चेहरा नहीं था. इसीलिए कांग्रेस बार-बार ज़ोर देती रही कि यह चुनाव ‘सरकार (शिवराज की) बनाम जनता’ है.
अब इन बातों को कुछ नए-पुराने आंकड़ों और तथ्यों की कसौटी पर कसिए. मसलन- भाजपा ने 2003 में जब उमा भारती के नेतृत्व में कांग्रेस की 10 साल पुरानी दिग्विजय सिंह सरकार को बेदख़ल किया तो मतदान प्रतिशत 6.54 फ़ीसद बढ़ा था. तब यह बदलाव हो पाया था. उस वक़्त 67.25 प्रतिशत हुआ था. जबकि 1998 में 60.71 फ़ीसदी था.
इसके उलट 2008 में शिवराज के नेतृत्व में जब भाजपा चुनाव में उतरी तो मतदान हुआ 69.78 फ़ीसदी. यानी 2003 के मुकाबले 2.53 प्रतिशत ज़्यादा. और शिवराज जब 2013 में दूसरी बार भाजपा के चुनावी रथ के सारथी बने तो मतदान हुआ 72.07 प्रतिशत. यह भी 2008 की तुलना में 2.29 फ़ीसद अधिक था. लेकिन दोनों बार मतदान प्रतिशत में अंतर के बावज़ूद शिवराज अपनी सरकार न सिर्फ़ बचा ले गए थे बल्कि 2013 में तो उनकी सीटें भी बढ़ गई थीं.
लिहाज़ा यहां कुछ चीजें याद रखना ही काफ़ी है. एक- इस बार भी मतदान 2.97 प्रतिशत ही बढ़ा है. दूसरा- कांग्रेस के पास 2008 और 2013 में भी शिवराज से मुकाबले के लिए कोई चेहरा नहीं था. तीसरा- तब भारतीय जनता पार्टी की सरकार को प्रदेश में क्रमश: पांच और 10 साल हो चुके थे और स्थानीय विधायकों के प्रति विरोध तब भी था ही.
तिस पर स्थानीय विधायकों के प्रति नाराज़गी से जुड़े आंकड़े भी देखे जा सकते हैं. मसलन- इस बार मध्य प्रदेश की जोबट विधानसभा सीट पर सबसे कम 52.31 फ़ीसदी मतदान हुआ है. यहां से 2013 में भाजपा के माधौ सिंह चुने गए थे. दूसरी तरफ़ इस मर्तबा सबसे अधिक 91.03 फ़ीसद मतदान इछावर विधानसभा सीट पर हुआ है, जहां से पिछली बार कांग्रेस के शैलेंद्र पटेल चुने गए थे. यानी मतदान प्रतिशत को अगर विधायकों के प्रति नाराज़गी से जोड़े तब भी संभावनाएं दोनों तरफ एक सी खुलती हैं.
2. तो फिर क्या मतदान प्रतिशत बढ़ना ध्रुवीकरण का नतीज़ा है?
विचार के लिए एक पहलू यह भी हो सकता है. क्योंकि ध्रुवीकरण की कोशिशें दोनों दलों की तरफ़ से हुई थीं. मसलन- ठीक मतदान वाले दिन समाचार माध्यमों में भाजपा की ओर से एक बड़ा विज्ञापन आया. इसमें सिर्फ़ शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र माेदी की तस्वीरें भगवा पृष्ठभूमि के साथ चस्पा थीं. और प्रदेश के लोगों से ‘90 फ़ीसदी मतदान’ की अपील की गई थी. साथ में यह भी कि, ‘तुष्टिकरण की राजनीति करने वालों को उल्टे पांव लौटाइए.’ इस विज्ञापन में यूं तो कोई दिक्क़त नहीं पर कुछ सवाल ज़रूर उठते हैं कि अपील 90 प्रतिशत मतदान की ही क्यों? 100 फ़ीसद की क्यों नहीं? और तुष्टिकरण की राजनीति का क्या मामला है?
इन सवालों के जवाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ से जुड़े दो वीडियो में मिलते हैं, जो प्रचार के दौरान सोशल मीडिया में प्रसारित हुए थे. इसमें एक में वे मुस्लिमों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से सावधान रहने की हिदायत दे रहे हैं. दूसरे में वे इस समुदाय को कांग्रेस का वोट बैंक बता रहे हैं. साथ ही मुस्लिमों से पार्टी के पक्ष में 90 फ़ीसदी मतदान करने की अपील कर रहे हैं.
यहां बस ध्यान रखिए कि यह हिदायत और अपील उस राज्य में दी और की गई जहां आरएसएस का सांगठनिक ढांचा देश में सबसे मज़बूत माना जाता है. जहां इसी के भरोसे भाजपा के पास मतदान केंद्र तो क्या मतदाता सूचियों के ‘पन्ना प्रभारियों’ की भी पूरी फ़ौज मौज़ूद है. जबकि कांग्रेस का संगठन बीते 15 साल के सत्ता वनवास के दौरान बुरी तरह चरमरा चुका है.
इसी में मतदान और मतप्रतिशत की दो कड़ियां भी जुड़ती हैं. पहली- राज्य में इस बार दोपहर दो-ढाई बजे तक मतदान ने 50 प्रतिशत का आंकड़ा पार नहीं किया था. यानी 25 फ़ीसद के क़रीब मतदान आख़िरी ढाई-तीन घंटों में हुआ है. दूसरी- मध्य प्रदेश चुनाव से जुड़ी पिछली ख़बर में सत्याग्रह ने राजनीतिक विश्लेषक राजदीप सरदेसाई के लेख का हवाला दिया था. इसमें उन्होंने इस बात ज़ोर दिया था कि, ‘जो पार्टी अपने मतदाताओं को चुनाव के दिन बाहर ले आएगी, वह चुनाव जीत जाएगी.’
3. जिन इलाकों में जातीय असंतोष और किसानों की नाराज़गी ख़बर थी वहां क्या हुआ?
मतदान प्रतिशत का आकलन करते हुए दो और पहलुओं को ध्यान में रखना ज़रूरी है. पहला- किसानों की नाराज़गी. मंदसौर में पुलिस की गोली से इसी साल आंदोलनकारी छह किसानों की मौत के बाद यह मुद्दा पूरे देश की सुर्ख़ियों में रहा था. इस बार मंदसौर सहित मालवा-निमाड़ क्षेत्र के रतलाम, नीमच, आगर, शाजापुर जैसे जिलों में इसका असर ही था शायद, जाे यहां मतदान 82 फ़ीसदी से ज़्यादा हुआ. पर पूरे मालवा-निमाड़ अंचल में मतदान की कुल बढ़ोत्तरी 2013 के मुकाबले महज़ 0.28 प्रतिशत (पहले 69.88 और इस बार 70.16 फ़ीसदी) के आसपास ही रही. इसीलिए यहीं ये भी याद रखा जा सकता है कि 15 जिलों की 66 सीटों वाला यह अंचल आरएसएस का मज़बूत गढ़ माना जाता है.
इसके अलावा विंध्य, बुंदेलखंड और ग्वालियर चंबल के इलाकों में जातीय असंतोष की ख़बरें भी इस साल खूब आईं. इनमें से विंध्य में इस बार मतदान 71.01 प्रतिशत रहा. यानी 2013 के 68.77 फ़ीसदी के मुकाबले 2.24 फ़ीसद अधिक. बुंदेलखंड में यह बढ़त 1.08 फ़ीसद (इस बार 70.51 और 2013 में 69.43 प्रतिशत) की है. ग्वालियर-चंबल में बढ़त साढ़े तीन फ़ीसदी के करीब रही. यहां इस बार मतदान प्रतिशत 70 के आसपास रहा. जबकि 2013 में यह 66.42 फ़ीसद था.
इन तीनों अंचलों में कुल 90 सीटें हैं और ख़ास बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने इन्हीं तीनों अंचलों में अपने सबसे ज़्यादा उम्मीदवार खड़े किए हैं. चूंकि तीनों अंचलों की सीमाएं उत्तर प्रदेश से लगती हैं इसलिए इन दोनों दलों की मौज़ूदगी भी इन क्षेत्रों में ठीक-ठाक है. फिर इन्होंने दल-बदलुओं को भी खूब टिकट दिए हैं जिन्हाेंने मुकाबला कहीं त्रिकोणीय तो कहीं चतुष्कोणीय बना दिया है. मिसाल के तौर पर विंध्य में ही 30 में 17 सीटें सीधी लड़ाई से बाहर बताई जाती हैं. यानी यहां वोट बंट और कट रहे हैं.
इसके बाद बच रहे महाकौशल और मध्य प्रांत. मध्य प्रांत के सीहोर जिले से ख़ुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ताल्लुक़ रखते हैं. इस प्रांत में 36 सीटें हैं और मतदान यहां 1.89 प्रतिशत (पहले 74.86, इस बार 76.16 फ़ीसदी) बढ़ा है. वहीं महाकौशल, दोनों प्रमुख पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों क्रमश: राकेश सिंह व कमलनाथ का क्षेत्र है. इस क्षेत्र में 38 सीटें हैं और यहां मतदान इस बार दो प्रतिशत के लगभग कम हुआ है. इस क्षेत्र में 2013 में 76.94 फ़ीसदी मतदान हुआ था. इस बार यह घटकर 74.88 फ़ीसद रह गया.
एक ख़ास बात और. प्रदेश की 230 में से 87 सीटें ऐसी बताई जाती हैं जो त्रिकोणीय-चतुष्कोणीय मुकाबले में उलझी हैं. इन मुकाबलों को रोचक बनाने में आप (आम आदमी पार्टी) और सपाक्स (सामान्य, पिछड़ावर्ग अल्पसंख्यक कल्याण समाज) पार्टी ने भी भूमिका निभाई है. इस चुनाव में आप के 208 और सपाक्स के 110 उम्मीदवार हैं. बल्कि सपाक्स के बारे में तो बातें ये भी हैं कि यह ‘पर्दे के पीछे वाली भाजपा की रणनीति का परिणाम’ है. ऐसे में संभावित चुनाव परिणाम को सिर्फ़ बढ़े हुए मतदान प्रतिशत के आधार पर किसी एक सांचे में फिट करना परिपक्व आकलन तो नहीं ही कहा जा सकता. अलबत्ता यह ज़रूर है कि नतीज़े किसी के भी पक्ष में एकतरफ़ा हो सकते हैं.
अंत में
एक दिलचस्प वाक़या. मतदान की पूर्व संध्या पर जब तमाम दलों के नेता-रणनीतिकार अगले दिन की चिंता में दोहरे हुए जा रहे थे, उसी समय इस सब से निश्चिं शिवराज सिंह चौहान राजधानी भोपाल के एक रेस्त्रां में परिवार के साथ रात्रिभोज का आनंद ले रहे थे. तभी रेस्त्रां के वेटर ने उनके साथ सेल्फी लेने का आग्रह किया. मुख्यमंत्री ने उसे क़तई निराश नहीं किया. सेल्फी ली गई, छककर भोजन किया गया और फिर हंसते-मुस्कुराते शिवराज वहां मौज़ूद अन्य लोगों से मिलते-मिलाते बाहर निकल गए. हमेशा की तरह वैसी ही सहजता से जिसने उन्हें इस बार जैसे ही आकलन-अनुमान झुठलाते हुए पिछली दो बार (2008 और 2013 में) सत्ता तक पहुंचाया था.