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भोपाल त्रासदी में प्रकृति का दोष बस इतना ही था कि हवा ने फैक्ट्री से शहर का रुख कर लिया था

नई दिल्ली। यूनियन कार्बाइड का कारखाना भोपाल शहर के एक छोर पर राक्षस की तरह खड़ा दूर तक फैली बस्ती की ओर देख रहा है. रविवार की उस ठंडी रात कुछ कोहरा था. सरकारी लट्टुओं से जो आभा फैल रही थी, वह अंधेरे को दूर नहीं कर पा रही थी. लोग ठंड में दुबके सो रहे थे. कारखाने के ठीक सामने सड़क के उस पार कोई हजार गरीब परिवारों की बस्ती, जयप्रकाश नगर के लोग उस ठंड में कैसे सो पा रहे होंगे, समझना मुश्किल है. लकड़ी की कमजोर पटियों, जिन्हें भोपाल की बोली में ‘फर्रे’ कहा जाता है, से बने वे झोंपड़े. वहीं से एक रास्ता, जो बस स्टैंड हमीदिया रोड तक जाता है. रोड के एक छोर पर है रेलवे स्टेशन का इलाका और दूसरे पर ताजमहल कहलाने वाली इमारतें, ताजुल मसजिद और शाहजहांबाद. अगर उस रात कुछ हलचल होगी तो इस सड़क पर. रेलवे स्टेशन पर लखनऊ से आनेवाली किसी ट्रेन का इंतजार था. कुली यहां-वहां बिखरे बैठे थे. ऊंघते सुस्त यात्री. यहां-वहां आग ताप शरीर की कंपकंपी दूर करने का प्रयत्न करते समूह.

वह भोपाल के जीवन की सामान्य-सी रात थी. किसी को ख्याल नहीं था कि बहुत करीब बेरसिया रोड पर काली परेड के नाम से जाने जाते उस क्षेत्र पर बना कारखाना यूनियन कार्बाइड उनकी ओर राक्षसी आंखों से घूर रहा है और बड़ी जल्दी मौत अपनी काली परेड शहर में आरंभ कर देगी. वे नहीं जानते थे कि झीलों के इस शहर पर जहरीली गैस का एक झरना आज रात फूट पड़ने की तैयारी में है.

उस समय कारखाने के अन्दर क्या हो रहा था, ठीक से बयान नहीं किया जा सकता. भीषण नर-संहार के बाद से राक्षस ने अपने होंठ बंद कर लिए हैं. वह चुप है, कुछ नहीं बताता. हम नहीं जानते, हत्यारा कब बोलेगा; और जब बोलेगा, क्या सच बोलेगा? स्थिति का वर्णन ‘बताया जाता है’, ‘कहा जाता है’, आदि वाक्यांशों के सहारे ही किया जा सकता है. चश्मदीद गवाह और गैस का विस्फोट रोकने की कोशिश में बड़ी हद तक हिस्सेदार, शकील अहमद कुरेशी कस्तूरबा अस्पताल के एक वार्ड में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा है. पुलिस उसे ऐसे घेरे है, जैसे वह कोई सतवन्त सिंह हो! उसका बयान लाखों डॉलर का है, वह बहुतों की छवि धूमिल कर सकता है; उसकी आवाज खरीदी और बेची जा सकती है. इसलिए उसे सुरक्षित और छुपाकर रखा जा सकता है.

अफसर रजाइयों में दुबके रहे

अतः बताया जाता है कि आधी रात को कारखाने के एक ऑपरेटर ने पहली बार यह महसूस किया कि गैस रिस रही है. सड़े बादाम की-सी गन्ध, जिसे ठीक से बयान नहीं किया जा सकता पर जिसे वे जानते हैं, वो वहां काम करते हैं. जो इस गुण में प्रशिक्षित हैं कि कैसे सायरन बजते ही हवा की उलटी दिशा में दौड़ना चाहिए. उनमें से एक प्लांट ऑपरेटर ने देखा कि रह-रहकर ‘मिक’ (मिथाइल आइसोसाइनेट) गैस- यदि वह गैस वही हो तो- पानी के साथ रिस रही है. शायद वहां ऐसा प्रायः होता हो! मिक या एम.आई.सी. गैस का यह रिसना तापमान बढ़ जाने से संभावित है और पानी की तेज धारा से उसका शमन किया जा सकता है. ऑपरेटर महोदय ने वही किया, पर टंकी का दबाव बतानेवाला पैमाना काम नहीं कर रहा था- इसलिए बात उनके वश की नहीं थी. उन्होंने शकील कुरेशी को बताया. शकील ने जाकर देखा कि गैस बड़ी तेजी से स्क्रबर से बाहर आ रही है- अर्थात वह हिस्सा, जहां अनुपयोगी गैस को कास्टिक सोडे के घोल से गुजारकर नाकाम किया जाता है. इसके बाद जो बच जाती है, उसे एक चिमनी से निकालकर जला दिया जाता है.

कीड़ों के लिए सेविन नामक जहर बनानेवाले इस कारखाने में उत्पादन एक-डेढ़ माह से रुका पड़ा था, अतः कोई साठ टन गैस टंकी में जमा थी, स्क्रबर अनुपयोगी पड़ा था और खर्च बचाने के चक्कर में चिमनी से मुंह पर जो लौ जलती रहती थी, वह भी बुझा दी गई थी. शकील कुरेशी समझ नहीं पा रहा था कि क्या उपाय करे. तभी खटके के साथ सीमेंट का एक टुकड़ा गिरा और लगा कि टंकी फटेगी. उसने सुपरिंटेंडेंट को रपट की. सुपरिंटेंडेंट ने कहा, मैनेजर से बात करो. मैनेजर ने कहा, चिमनी के पास लौ जला दो ताकि अतिरिक्त निकल रही गैस जल जाए. शकील ने साहब की आज्ञा सुन ली. पर वह जानता था कि वातावरण में फैल रही तीव्र ज्वलनशील गैस को अब आग छुआने का अर्थ होगा- एक जोरदार धमाके के साथ भीषण अग्निकांड. आज्ञा की उपेक्षा कर बार-बार गैस मास्क लगा रिसती गैस के पास जा उसका प्रवाह रोकने की चेष्टा शकील तथा अन्य कर्मचारियों द्वारा की जाती रही, पर गैस के उस प्राणलेवा कुहासे में वे रिसना बन्द नहीं कर पा रहे थे. इसी कोशिश में शकील कुरेशी बेहोश हो नीचे गिर पड़ा. शेष जितने थे, उल्टे पांव हवा से उल्टी दिशा में भागने लगे. हजारों की जानें जाने वाली थीं, पर अपनी भी तो बचानी थी. बड़े अफसर और बड़े इंजीनियर वगैरह घर पर सो रहे थे.

कारखाने में मौत की उस भोपाली रात क्या घट रहा था, कोई नहीं जानता. ऊपर की यह कहानी भी सरासर बनावटी और गढ़ी हुई हो सकती है. क्योंकि दूसरे दिन भोपाल में जो परस्पर कहा जा रहा था, वह दूसरा किस्सा है. उसके अनुसार गैस की रिसन के प्राथमिक लक्षण दिन में ग्यारह बजे के लगभग प्रकट होने लगे थे. शकील कुरेशी तथा अन्य कर्मचारी उसे बंद नहीं कर पा रहे थे. चार बजे के करीब वे लिखित में अपने अफसरों को आगाह कर चुके थे. पर पांच बजे बिना समस्या का निदान निकाले सब बड़े अधिकारी अपनी कारों और स्कूटरों से कारखाने से बाहर आ गए. किसी को न चिन्ता थी और न कल्पना कि यह रोजमर्रा की हल्की-फुल्की रिसन आज क्या रंग लाएगी. कहते हैं कि रात को फोन करके बुलाने पर भी बड़े इंजीनियर या मैनेजर कारखाने तशरीफ नहीं लाए. लापरवाही का नमूना पेश करते हुए वे अपनी रजाइयों में दुबके हुए थे.

गली-गली मंडराती गैस

सायरन बाद में बजा होगा, रिसन रोकने के जिम्मेदार पहले अहाते से बाहर हो गए और लगे दौड़ने बेरसिया रोड पर. और उस क्षण से वह जानलेवा गैस हवा के रुख के साथ भोपाल नगर की दिशा में बढ़ने लगी. मौत की लंबी जीभ ने सबसे पहले झोंपड़ियों में सोए लोगों के प्राण चाटने शुरू कर दिए. भोपाल मौत की बांहों में सिमटने लगा. गैस ऊपर आकाश में नहीं जा रही थी. वह दो मंजिला घरों तक की ऊंचाई वाले गुबार की तरह सड़क-सड़क, गली-गली चल रही थी, फैल रही थी. शुरू में बहुत तेज और बाद में धीमे-धीमे टहलती हुई, वह यहां-वहां से भोपाल को लील रही थी. सारा शहर धीरे-धीरे एक विराट गैस चैम्बर में बदल गया था. जयप्रकाश कॉलोनी, छोला, रेलवे कॉलोनी, टोला जमालपुर, काजी कैम्प, चांदवड़, विजयनगर, सिंधी कॉलोनी, कपड़ा मिल कॉलोनी पर गैस होश संभलने के पहले छा गई थी. दरवाजे-खिड़कियां बन्द करके सो रहे लोग नहीं जानते थे कि बाहर गली में मौत गैस बनकर मंडरा रही है, उनके उजालदानों और दरारों से गैस घर के अंदर पैठ रही है. वे समझ नहीं पाए कि यह जो सोते-सोते हल्की-सी घुटन और परेशानी वे महसूस कर रहे हैं, यह मृत्यु की पहली दस्तक है उनके शरीर के दरवाजे पर. आंखों में जलन-सी महसूस करनेवाले मां-बाप पहचान नहीं रहे थे कि मौत इस समय उनके आसपास लेटे बच्चों को थपथपी दे अंतिम नींद सुला रही है.

फिर सबको अहसास होने लगा कि वे इस समय किसी भयावह स्थिति से गुजर रहे हैं. जब शुद्ध हवा का झोंका पाने के लिए उन्होंने दरवाजा खोला, तब गैस और अंदर धंसी. देखा कि सड़कों पर लोग अपने प्राण बचाने के लिए दौड़ रहे हैं. वे भी निकले और दौड़ने लगे. पर कइयों के लिए यह दौड़ लम्बी नहीं हो सकी. वे सांस लेने का प्रयत्न करते हुए यहां-वहां गिरने लगे. वे सब मृत्यु की लपेट में थे, दिशा अस्पष्ट थी, कोई अपना-पराया रह नहीं गया था. सब प्राण बचाने को भाग रहे थे. पुराने भोपाल से नए खुले भोपाल की तरफ, पुराने शहर से टी.टी. नगर की तरफ, घुटन से हवा की तरफ. भागते, लड़खड़ाते, गिरते, मरते, अंधेरे में रास्ता पहचानते वे मृत्यु से जीवन की ओर दौड़ रहे थे. यह अंतिम प्रयत्न था, अंतिम दौड़ थी. जहरीली गैस के कारण फेफड़ों में दम नहीं रह गया था. धीरे-धीरे, देखे-अनदेखे शहर लाशों और बेहोश पड़े लोगों से पटने लगा.

अब किसी से पूछो कि गैस की गन्ध कैसी होती है, तो वह अपने अनुभव को शब्द नहीं दे पाता. कहेगा- ऐसा लगता था कि जैसे गले में मिर्ची की धांस समा गई हो! (एम.आई.सी. से सिर भारी होता है, जबड़े कस जाते हैं. फॉसजीन से छाती में जलन हो, मृत्यु हो जाती है.) गला रुंध गया. कंठ में एक गोला-सा बनकर श्वास-प्रक्रिया को रुद्ध करने लगा. आंखों में जलन, आंसू, उल्टियां, मुंह में झाग. हर शख्स दमा के पुराने मरीज की तरह सांस लेता हुआ. पूरे शहर को ताजी हवा की तलाश थी! भोपाल में जिसकी कभी कमी नहीं रही, उसकी ऐसी कोताही कभी न हुई. पुराने भोपाल का हर घर मौत की काल-कोठरी बन गया था. गैस चैम्बर, आंखों से सूझता न था, सांस घुट रही थी, जान बाकी थी. पर आसपास पड़ी लाशें देख कर यह विश्वास टूट गया था कि हम जीवित रह पाएंगे. उस दिन शुद्ध हवा बैरन बन कहीं गायब थी. वायु मंडल में दबाव ऐसा था कि गैस को उड़ना नहीं था. वहीं रहकर सबके प्राण लेना था.

कीड़े मारने की दवाई में जो गैस उपयोग में आती थी, वह उन्हें कीड़ों की मौत मार रही थी. कुछ जो गहरी नींद सोए थे, इतनी गैस फेफड़ों में ले चुके थे कि वे सोते ही रहे. फिर नहीं उठे. पूरे परिवार मौत के मुंह में समा गए थे. लाशें बिछ रही थीं. उजाला फूटने तक सब उस हाहाकारी दृश्य से परिचित हो चुके थे. अवाक थे. किंकर्तव्यविमूढ़ थे. उन्होंने अपने जीवन में इतनी मौतें एक साथ नहीं देखी थीं. मृत्यु का साधारण-सा फार्मूला था कि जैसे ही गैस शरीर में जा शरीर के पानी के सम्पर्क में आती थी, एक दुष्ट रासायनिक प्रक्रिया इनका प्राणान्त कर देती थी. बस्तियां चसनाला हो रही थीं. प्रत्येक के मरने की कहानी शायद दूसरे से कुछ भिन्न है. कोई इसलिए मरा चूंकि उसने भागते हुए तेज श्वास-क्रिया द्वारा जहरीली गैस अधिक मात्रा में ले ली थी; और कोई इसलिए बचा क्योंकि वह भागा था. कुछ घर में मुंह ढककर सोने से बच गए थे और कुछ मुंह ढके सोए ही मर गए. मरनेवालों में बच्चों की गिनती सबसे ज्यादा थी. कहते हैं, गैस नसों में प्रवेश कर उन्हें फाड़ देती है. कारण जो भी हो, सुबह होते-होते भोपाल के पास अनगिनत लाशें थीं, आदमी, औरत, बच्चे, गाय, भैंसें, कुत्ते, बिल्ली.

देर रात स्टेशन पर सवारी का इंतजार करनेवाले तांगे का घोड़ा भी मरा और उस पर बैठा तांगाचालक भी. टिकट बाबू टिकट बेचते-बेचते चल बसा. देर रात जब रेल भोपाल आई, तब यात्रियों ने गैस को अनुभव किया और प्राण बचाने को आतुर भीड़ के संकट को समझा. सारा स्टेशन काल के गाल में था. आती हुई रेलों को भोपाल आने से रोकने की सूचना आसपास के स्टेशनों को देते हुए स्टेशन मास्टर हरीश धुर्वे चल बसे. सब कुछ बड़ी तेजी से एकाएक घटा. गैस का दायरा बढ़ रहा था. अब गैस पुराना भोपाल पार कर प्रोफेसर कॉलोनी से होती बाणगंगा क्षेत्र में उतर सरकारी कर्मचारियों की बस्ती तात्या टोपे नगर में प्रवेश कर रही थी. उसका कुछ प्रतिशत भोपाल के तालाबों में घुल रहा था. बाणगंगा की हवा में वह कुछ बिखरी, बंटी, कम हुई. उसका दूसरा रेला शायद एम.एल.ए. रेस्ट हाउस के पीछे से अरेरा कॉलोनी की तरफ बढ़ा. समूची त्रासदी में प्रकृति का इतना ही योग था कि हवा ने कारखाने से शहर की तरफ रुख लिया. इसके अतिरिक्त जो कुछ था, मनुष्य का किया-कराया था. हवा के रुख को बनाने में, हो सकता है, भोपाल की पहाड़ियों का हाथ रहा हो. मध्यप्रदेश सरकार और यूनियन कार्बाइड को दोषी न ठहराने में लगे व्यक्ति चाहें तो इस तथ्य पर जोर दे सकते हैं. वे मृतकों की नासमझी को तो दोषी ठहरा ही रहे हैं.

जनता का आत्मनिर्णय

सुबह. अस्पतालों के बाहर, अंदर, गलियारों, बरामदों, मैदान और सड़क पर बीमार और मृत पड़े थे. इतनी मृत्यु आंसुओं को सुखा देती है. चारों ओर एक भौंचक खामोशी नजर आ रही थी. किसी के मां-बाप गए, किसी के बच्चे. जो बिछुड़ गए थे, वे परस्पर तलाश में लग गए. लोग लाशों के समुदाय में कफन उठा-उठाकर अपनेवालों को पहचान रहे थे. खीज रहे थे, झींक रहे थे, आक्रोश में थे. उस जिन्दादिल शहर ने कभी सोचा न था कि उसके इतिहास में एक दिन ऐसा भी होगा. ऐसे में व्यवस्था गायब थी. वे छुटभैये नेता गायब थे जो कल रात तक वोटों की खींचतान में सरगना बने हुए थे. तभी एकाएक मृत्यु के उस कुहासे में मनुष्य की चेतना जागी. उसका मनुष्यत्व जागा. मां-बाप के रोके भी भोपाल के लड़के-लड़कियां अपने घरों, अपने कमरों, अपने हॉस्टलों से निकल पड़े. जिससे जो बना, वह वही करने लगा. एकाएक भोपाल ने उस भारतीय आत्मा के दर्शन किए, जो गहराते संकट में आंसू पोंछकर चुनौती से जूझ जाना जानती है. वे अपनी आत्मा द्वारा अनुशासित हो एक-दूसरे से पूछते, एक-दूसरे की बात मानते, कामों में लग गए. बीमार बच्चों को रात से दूध नहीं मिला था. जिससे जितना बन पड़ा, दूध की थैलियां, ब्रेड आदि ले अस्पतालों में पहुंचने लगा. जिससे जो मांगा, वह लेने दौड़ पड़ा. निजी वाहन समाज सेवा में आ गए. इंतजार करती लाशों को अपरिचित ही सही, पर कन्धे मिलने लगे. बीमारों के आसपास पूछनेवाले जुटने लगे. युवा डॉक्टरों से लेकर मेडिकल कॉलेज के फर्स्ट ईयर की छात्राओं तक सभी डॉक्टर बन गए थे. इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र वालंटियर हो गए. घर-घर में मरीजों के लिए अतिरिक्त भोजन बनने लगा. लोगों ने जेब से नोट निकाल, आइ-ड्रॉप्स से लेकर गुलाब-जल की बोतलों तक जो भी खरीद सके, खरीदा और अस्पतालों में जाकर दिया. वह भोपाल की जनता का आत्मनिर्णय था. उसमें नेतृत्व नहीं था, व्यवस्था नहीं थी और आज लोग कहते हैं, यही उसका शुभ पक्ष था. क्योंकि जब से व्यवस्था और सरकार कार्यरत हुई, अनेक घोटाले, विसंगतियां और पाखंड आरंभ हो गए.

इधर मरीजों के इर्द-गिर्द तीमारदारों की संख्या बढ़ रही थी, पर मृत्यु की संख्या कम नहीं हो रही थी. सरकारी आंकड़े जब पांच सौ के आसपास थे, तब वास्तविकता यह थी कि हजार से ऊपर मर चुके थे. सरकारी मुंह जब दो हजार क्रॉस नहीं कर पा रहे थे, तब भोपाल पांच हजार से ज्यादा बता रहा था. मृत्यु का क्रम जारी था. आज सरकार पांच हजार कहती है, विरोधी छह हजार और लोग दस हजार. सरकार की गिनती करने का तरीका होता है. पर जाने कितने अनजाने परदेशी, भिखारी, कोढ़ी, गरीब, अपंजीकृृत कुली रेलवे के- उनके मरने पर किसने गिनती की? प्रश्न यह भी है कि गिनती बताने के परस्पर दावों से होता क्या है? हम मुद्दे से हटते हैं. त्रासदी की भयावहता का वर्णन करने से जो करुणा निस्सारित होती है, वह प्रायः अपराधियों को सिर छुपाने में मदद करती है. हत्यारे आपके आंसुओं का लाभ लेने लगते हैं. आपके साथ वे भी रोने लगते हैं. उस दिन मध्यप्रदेश शासन मगर के आंसू रोया.

पर भोपाल के यूनियन कार्बाइड नामक बहुराष्ट्रीय अपराधी कारखाने ने अपेक्षाकृत बेशर्मी से काम लिया. जब पुलिस कंट्रोल-रूम में जहरीली गैस प्रवेश कर रही थी और कर्मचारी खांसने-कराहने लगे थे, तब पूछे जाने पर यूनियन कार्बाइड वालों ने फोन पर जवाब दिया कि नहीं, गैस का कोई रिसन यहां से नहीं हुआ. जब अल्ल सुबह कुछ पत्रकार कार के शीशे चढ़ा कारखाने में पहुंचे, तो अधिकारी हंसकर बोले- गैस से कोई मर कैसे सकता है? देखिए, हम तो गैस के सबसे पास होकर भी जिन्दा हैं! ही…ही…! यह मगरूर और सीनाजोर तरीका उनका चरित्र और पुराना स्वभाव रहा है. सुबह हो रही थी. अपराधी हत्यारा जानता था कि उसकी मदद और रक्षा के लिए दूसरा अपराधी आ जाएगा. वह थी व्यवस्था, सरकार बहादुर या सत्ता, जो इतने सालों से इस जहर को अपने कागजी और शाब्दिक आंचल से ढके हुए हैं.

‘जनसत्ता’ दिल्ली के 16 जून, 1984 के अंक में राजकुमार केसवानी के लेख ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’ में यह साफ लिखा था कि किस तरह यह संस्थान देश को धोखा देते हुए भोपाल के गरीबों की जान से खेल रहा है. यह तो हो ही नहीं सकता कि खरीदे हुए बुद्धिजीवियों द्वारा ‘पारदर्शी शासन’ के नाम से अभिनंदनित सरकार के संवेदनशील बनने वाले नेता और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वह लेख पढ़ा न हो उस पत्र को भी न पढ़ा हो जो स्थिति की गंभीरता को दर्शाते हुए राजकुमार केसवानी ने उन्हें भेजा था. विधान सभा में उठाए सवाल के आड़े-टेढ़े पेंचदार जवाब को लाजवाब तरीके से पेशकर कारखाने को बचाने की बात उन्हें याद होगी. उन्हें पता होगा कि उनकी ही सरकार के निष्ठावान आई.ए.एस. अधिकारी एम.एन. बुच ने जब यूनियन कार्बाइड को शहर से हटाने का नोटिस दिया था, बजाय कारखाना हटाने के एम.एन. बुच को हटाया गया था. इसी संवेदनशील सरकार के श्रममंत्री ने कुछ दिन हुए, कहा था कि आखिर यूनियन कार्बाइड 25 करोड़ की सम्पत्ति है; कोई पत्थर का टुकड़ा नहीं, जिसे मैं इधर-से-उधर रख दूं. उस रात वह पच्चीस करोड़ का अमेरिकी पत्थर भोपाल के सिर पर पड़ा था. लोगों ने संवेदनशीलता के पाखंड को अन्तिम बार पूरी तरह पहचान लिया था कि यह पारदर्शी परत वास्तव में कितनी ठोस रूप से जालिम और बेशर्म है.

अपने अपराध को ढकने के लिए सरकार ने रुख लिया कि वह जनता के हित में मुआवजे की लड़ाई लड़ेगी. कारखाने से शत्रुता प्रदर्शित करने का नाटक रचेगी. वह पीड़ा को नारों में बदल परिस्थितियों को भुनाएगी. सत्ता के नेताओं की नजर लोकसभा चुनाव के वोट पर थी. सारी सरकारी मशीन इस काम में जुट गई कि जनाक्रोश, बजाय उनके, कारखाने के खिलाफ पूरी तरह मुड़ जाए, मुड़ा ही रहे और यह काम इस सिफ्त से हो कि सरकार के साथ कारखाने का भी कुछ न बिगड़े. जहां तक भोपाल के सामान्य जन का सवाल था, उसने लाशों के ढेर के साथ यह भी देख लिया था कि सरकार यहां कुछ पहले ही मर गई है.

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