स्वामी विवेकानंद के नाम से जितनी भी संस्थाएं इस वक्त मौजूद हैं, उनमें से ज़्यादातर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सीधे या विचारधारा के स्तर पर जुड़ी हुई हैं. संघ से जुड़े संगठन जैसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय जनता युवा मोर्चा या सरस्वती शिशु मंदिर जैसे संगठनों में भी स्वामी विवेकानंद का बड़ा महत्व है. उनके लगभग सभी कार्यक्रमों और दफ़्तरों में स्वामी विवेकानंद की तस्वीर काफी प्रमुखता से लगी मिलेगी.
लेकिन दिलचस्प यह है कि स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित संस्थाओं, रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन का संघ के हिंदुत्व या सांप्रदायिक राजनीति से कुछ भी लेना देना नहीं है. यह आम तौर पर माना जाता है कि रामकृष्ण मठ और मिशन का रवैया उदार, समावेशी और सभी धर्मों के प्रति सम्मान रखने वाला है. उन संगठनों में हिंदू त्योहारों के साथ बुद्ध जयंती और क्रिसमस भी मनाया जाता है. इस्लाम के प्रति कुछ अपरिचय और दूरी वहां देखने में आती है लेकिन दुश्मनी का भाव वहां भी नहीं है.
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि सन 1980 में रामकृष्ण मिशन ने स्वयं को हिंदुत्व से अलग एक अल्पसंख्यक धार्मिक संगठन माने जाने के लिए न्यायपालिका का दरवाज़ा खटखटाया था. शायद इसके पीछे अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को मिलने वाले विशेषाधिकार पाने की चाह रही हो क्योंकि तब मिशन के शिक्षा संस्थानों में पश्चिम बंगाल की तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार के हस्तक्षेप का ख़तरा महसूस हो रहा था. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिशन के अलग धर्म माने जाने के दावे को ख़ारिज कर देने के बाद यह पूरा मामला ख़त्म हो गया लेकिन, इससे यह तो पता चलता ही है कि रामकृष्ण मिशन का हिंदुत्व से कोई ख़ास लगाव नहीं है. हो सकता है व्यक्तिगत स्तर पर कुछ संन्यासी हिंदुत्व के समर्थक हों लेकिन सांस्थानिक स्तर पर ऐसा नहीं है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे और सबसे ज्यादा प्रभावशाली सरसंघचालक ‘गुरुजी’ माधव सदाशिव गोलवलकर संघ में शामिल होने के पहले रामकृष्ण मिशन के संन्यासी होना चाहते थे. लेकिन उन्हें यह कह कर लौटा दिया गया कि उनके लिए संन्यासी बनकर मिशन में काम करने से ज्यादा उपयुक्त समाज में रहकर काम करना है. यही कहानी मौजूदा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी है जो नौजवानी में मिशन के संन्यासी होना चाहते थे. शायद रामकृष्ण मिशन के लोगों को इन लोगों का स्वभाव मिशन के काम के अनुकूल न लगा हो.
स्वामी विवेकानंद को हिंदुत्ववादी तो अपना मानते ही हैं, कुछ वामपंथी और कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोग भी उन्हें कट्टर हिंदुत्व के व्याख्याकार की तरह देखते हैं. कुछ साल पहले एक लेखक ज्योतिर्मय शर्मा की एक अंग्रेज़ी किताब आई थी जिसमें स्वामी विवेकानंद को लेकर यही धारणा व्यक्त की गई थी. ज्योतिर्मय शर्मा गंभीर लेखक और समाजशास्त्री हैं और उनकी किताब में विवेकानंद के अपने लेखन से उद्धरण दिए गए हैं. उनका तो यह भी कहना है कि विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के उदार और मानवीय अध्यात्म के विरुद्ध चले जाते हैं.
दूसरी ओर कई उदार लोग स्वामी जी को उदार और प्रगतिशील हिंदूधर्म का व्याख्याकार मानते हैं जो अपने विचारों में काफी क्रांतिकारी हैं, जातिप्रथा के विरोधी हैं और महिला अधिकारों के समर्थक हैं. इस मायने में वे गांधी और ऐसे ही लोगों के पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं. ‘शूद्रों का समाजवाद’ जैसा उनका लेखन इस धारणा को मजबूती देता है.
कई भारतीयों पर ख़ास कर बंगाल में अंग्रेज़ी राज और पश्चिमी विचार का गहरा प्रभाव पड़ा. काफी बड़ी तादाद में पढ़े लिखे लोग ईसाई होने लगे. ईसाइयत का प्रभाव ब्राह्मोसमाज जैसे संगठनों में भी देखने में आता है. दूसरी और अंग्रेज़ों ने सामाजिक अशांति से बचने का एक तरीक़ा यह सोचा कि जहां तक हो सके धार्मिक भावनाओं को छेड़ा न जाए. उन्होने सोचा कि जैसे ईसाइयत में चर्च के पास सारे धार्मिक अधिकार होते हैं वैसे ही यहां के लोगों को में भी पुरोहित वर्ग की स्थिति होगी. इसलिए उन्होने पुरातनपंथी ब्राह्मणों को हिंदू धर्म के आचार-विचारों पर धर्मनिर्णय करने के लिए कहा. बिना यह समझे कि भारत में हर इलाक़े, जाति और समूह के अलग अलग आचार-विचार हैं. ब्राह्मणों ने एक अत्यंत शुद्धतावादी और पुरातनपंथी आचारसंहिता को हिंदू धर्म की प्रामाणिक आचारसंहिता कह कर प्रस्तुत किया जिसे अंग्रेज़ों ने स्वीकार कर लिया. आज के दक़ियानूसी हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद की जड़ यहां पर है.
ऐसे में बंगाल की धरती पर रामकृष्ण परमहंस का अवतरण हुआ.रामकृष्ण यूं तो अनपढ़ भोले आदमी थे लेकिन, उनकी अंतर्दृष्टि समाज और उसकी समस्याओं को पढ़े-लिखे लोगों से ज्यादा गहराई से देखती थी. वे जानते थे कि समाज को एक ऐसे धर्मविचार की जरूरत है जो अपनी परंपरा के प्रति आस्था जगाए और साथ में नए जमाने में भी प्रासंगिक हो. जो उदार , मानवीय हो और धर्म के आडंबर की बजाय उसके मर्म तक पहुंचाए. तभी भारतीय समाज अपनी जड़ता और पराजय की मानसिकता से बाहर आ सकता है. भारतीय समाज को सिर्फ़ प्रवचनों की नहीं, उसके घावों पर पट्टी बांधने के ठोस काम भी जरूरत थी. रामकृष्ण के इस पक्ष को महान फ़्रांसीसी नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक रोमा रोल्यां ने बहुत अच्छी तरह उभारा है.
रामकृष्ण यह भी जानते थे कि यह काम वे नहीं कर सकते, न उनकी उम्र साथ दे सकती थी, न ही वे अंग्रेज़ी पढ़े-लिखों के साथ संवाद कर सकते थे. इसलिए उन्होने कुछ समर्पित नौजवानों को चुना और उन्हें प्रेरित किया. इन नौजवानों का नेतृत्व विवेकानंद कर रहे थे.
विवेकानंद को बहुत कम उम्र मिली. कुल 38 वर्ष. वे देखने में बहुत मज़बूत कदकाठी के लगते थे लेकिन, जीवन के कष्टों ने उनके शरीर को जर्जर कर दिया था. उन्हें कम उम्र में ही मधुमेह हो गया था जिसने उनके गुर्दे ख़राब कर दिए थे. उन्हें सांस की भी बीमारी थी. इन्हीं बीमारियों ने उनकी असमय जान ली. बीमारियां, आर्थिक अभाव, उपेक्षा और अपमान झेलते हुए वे लगातार गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए अथक मेहनत करते रहे.
एक ओर विवेकानंद को भारतीयों के गौरव और आत्मविश्वास को जगाना था, दूसरी ओर भारतीय समाज को उसकी कमज़ोरियों और जड़ताओं से भी निकालना था और यह सब लगातार यात्राएं करते हुए और लोगों को संगठित करते हुए करना था. इसलिए स्वाभाविक है कि उनके लेखन में कई अंतर्विरोध दिखते हैं जिनका चुनिंदा इस्तेमाल करते हुए उन्हें उनके समर्थक और विरोधी दोनों उन्हें संकीर्ण हिंदुत्व का आदिपुरुष साबित करते हैं. ये अंतर्विरोध उनकी परिस्थितियों के संदर्भ में समझे जा सकते हैं. समग्र रूप से देखने पर विवेकानंद उस उदार, प्रगतिशील धार्मिक दृष्टि के अविष्कारक थे जिसने आधुनिक समय में हिंदू धर्म को प्रासंगिक बनाया. जिस राह को आगे गांधी और विनोबा ने प्रशस्त किया और जिसने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया वह राह विवेकानंद ने खोली थी और इसके लिए हमें उनका ऋणी होना चाहिए.