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उतावलेपन की राजनीति में राहुल ने लांघी हर सीमा………..

राजनीति में सफल होने के लिए जोश के साथ होश की कितनी जरूरत होती है, यह बात कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अब समझ में आ जानी चाहिए। खुद को सही साबित करने के चक्कर में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं बख्शा और यह गलतबयानी कर दी कि कोर्ट ने राफेल मामले में कांग्रेस के ‘चौकीदार चोर है’ के आरोप पर मुहर लगा दी। कोर्ट ने इसका सीधे तौर पर खंडन करते हुए जवाब मांगा है। जाहिर है कि अब कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से लीपापोती होगी और यह भी बताना होगा कि अपनी राजनीति के लिए उन्होंने कोर्ट का नाम क्यों लिया? सुनवाई के बाद कोर्ट उन्हें अवमानना का दोषी मानती है या बख्श देती है यह तो बाद का सवाल है। फिलहाल यह बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि क्या बोफोर्स का बदला लेने के लिए वह राफेल सौदे को किसी भी तरह कलंकित करना चाहते हैं? क्या सचमुच राजनीति में उनके पास चुनाव लड़ने को कोई बड़ा मुद्दा नहीं बचा है?

यह समझना ज्यादा जरूरी है कि राहुल बार-बार चौकीदार चोर है के नारे क्यों लगा रहे हैं। दरअसल, संप्रग की पिछली सरकार भ्रष्टाचार को लेकर ही सबसे बदनाम थी। कुछ मामलों में खुद राहुल और कांग्रेस के शीर्ष नेता भी घिर चुके हैं। हाल के दिनों में लगातार जिस तरह आयकर छापे में कांग्रेस और कांग्रेस नेताओं का काला धन पकड़े जाने का दावा किया जा रहा है, उससे स्थिति और बिगड़ गई है। बोफोर्स का भूत तो अभी तक कांग्रेस के सिर से नहीं उतर पाया है। हालांकि उस मामले में भी विपक्ष की ओर से कभी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए ‘चोर’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया था, लेकिन राहुल ने इससे परहेज नहीं किया।

चुनाव की बात हो तो भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा होता है जो सरकार और व्यक्ति को सवालों के घेरे में खड़ा करता है। राफेल की पूरी सच्चाई क्या है यह कोर्ट बताएगी। शुरुआती तौर पर राफेल सौदे को क्लीन चिट देने के बाद सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार के लिए तैयार हो गया है, लेकिन राहुल का उतावलापन ही उनपर भारी पड़ गया। शायद वह किसी भी तरह यह साबित कर देना चाहते हैं कि राजनीति में ईमानदारी के लिए जगह नहीं है। ध्यान रहे कि दो साल पहले तक कांग्रेस में नरेंद्र मोदी पर सीधा प्रहार करने की सख्त पाबंदी थी। उनका अनुभव था कि प्रहार से मोदी और निखर जाते हैं और उल्टा असर कांग्रेस पर पड़ता है, लेकिन लगातार फेल हो रही कांग्रेस के अध्यक्ष ने वह रणनीति भी बदली। वह यह भूल गए हैं कि मोदी ‘टेफलॉन कोटेड’ हैं। कम से कम उनकी ईमानदार छवि को खरोंच नहीं लग सकती है। राहुल के नारे कांग्रेस से बाहर नहीं जा पा रहे हैं। उनके सहयोगी भी उनके इस नारे को अपनाने से दूर भाग रहे हैं।

इस क्रम में राहुल ने धीरे-धीरे अपनी यह छवि बना ली है कि वह किसी संवैधानिक संस्था की भी नहीं सुनेंगे। सीएजी ने राफेल सौदे को खरा करार दिया है। ईवीएम पर चुनाव आयोग बार-बार अपनी स्थिति स्पष्ट कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दे दिया है, लेकिन कांग्रेस उसे भी स्वीकार करने को तैयार नही हैं। राहुल को यह समझ लेना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक अखाड़ा नहीं है। राजनीति में जनता का कठघरा होता है और कोर्ट में कानून का कठघरा।

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