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दीदी-राज का सच देख कांप उठेगी रूह, बंगाल का ज़र्रा-ज़र्रा है ख़ून का प्यासा!

नई दिल्ली। पिछले दिनों लोकसभा चुनाव के नतीजे आए और केंद्र में बंपर बहुमत से दोबारा मोदी सरकार बन गई लेकिन बंगाल में टीएमसी और बीजेपी के बीच सियासी हिंसा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। सब इस धरती का बारूद से परिचय कराने वालों और बम से रक्तरंजित करने वालों का पता मांग रहे हैं इसलिए आज एक ऐसा सच सामने आएगा जिसे जानकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा का सबसे नया मामला वर्धमान के केतुग्राम से सामने आया था जहां एक बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई थी, वो भी उसी दिन जब दिल्ली में मोदी सरकार दोबारा शपथ ले रही थी। बताया गया कि बीजेपी कार्यकर्ता सुशील मंडल देश में एक बार फिर मोदी सरकार बनने की खुशी में जगह-जगह पार्टी के झंडे लगा रहे थे तभी कुछ लोग आए और बीजेपी का झंडा लगाने का विरोध करने लगे। बहस हुई, बात बढ़ी और इसी दौरान चाकू से हमला कर दिया गया लेकिन सच बहुत डरावना है। मंडल की पत्नी ने बताया कि जय श्रीराम कहने पर सुशील मंडल की जान ले ली गई।

ऐसा क्यों है कि बंगाल में भारतीय जनता पार्टी का झंडा उठाने वाले हाथों को काट देने की रवायत है? ऐसा क्यों है कि राम का नाम लेने पर बंगाल में खून बहता है? जय श्रीराम कहने पर जान लेने की खूनी रवायत बंगाल की राजनीति का वो अक्स है, जो दिल्ली या मुंबई में बैठकर महसूस नहीं किया जा सकता।

राजनीतिक मंचों से निकलने वाली रिपोर्ट के मुताबिक बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के 80 कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। ये कुछ बरसों के दौरान हुई हत्याएं हैं। ममता बनर्जी अक्सर कहती रहती हैं कि बंगाल में राजनीति हिंसा नहीं होती लेकिन तस्वीरें, सूबत और गवाह सामने थे। मशहूर बांग्ला कहावत, जेई जाए लंका सेई होए रावण। यानी जो लंका जाता है वही रावण बन जाता है।

कुछ इसी तर्ज पर सत्ता संभालने वाले तमाम दलों ने विरोधियों को खत्म कर देने वाले हथियार को धारदार ही बनाया है। ममता बनर्जी भले ही इनकार करें, लेकिन दीदी की सियासत भी लेफ्ट की हिंसा में झुलसकर ही निखरी थी। पश्चिम बंगाल की सियासी फिजा जमाने तक खून से रंगी रही। 21वीं सदी का बंगाल पहले लेफ्ट और टीएमसी और अब टीएमसी-बीजेपी के संघर्षों से लाल होता रहा है।

लेफ्ट राज में 2001 में 21, 2002 में 19, 2003 में 22, 2004 में 15, 2005 में 8, 2006 में 7, 2007 में 20 और 2008 में 9 राजनीतिक हत्याएं हुईं लेकिन ये आंकड़ा अचानक 2009 में बढ़ गया जब राजनीतिक कत्लेआम की गिनती 50 तक पहुंच गई। ये वही दौर था जब मां, माटी और मानुष के नारे के सहारे ममता बनर्जी बंगाल की सत्ता पर काबिज हो रही थी। 2010, 2011 और 2013 में राजनीतिक हत्याओं के मामले में बंगाल पूरे देश में अव्वल रहा।

सत्तर-अस्सी के दशक की हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह खून का बदला खून की तर्ज पर बंगाल में राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी मजबूत हो चुकी हैं। एक अनुमान के मुताबिक पांच दशक के दौरान बंगाल में राजनीतिक हिंसा में पांच हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। यानी मातम की कहानियां और भी हैं। सियासी रंजिश में अपनों के गम में रोती आंखें और भी हैं।

पश्चिम बंगाल की धरती पर राजनीति का ये ऐसा भयानक चेहरा है जिसकी कल्पना भर से रूह कांप उठती है। कभी बीजेपी का झंडा उठाने वालों के हाथ काट दिए जाते हैं, तो कभी विजय जुलूस पर बम फेंके जाते हैं, जैसा हुगली में हुआ। जैसे बशीरहाट में हुआ। जय श्रीराम के सहारे बीजेपी मिशन 2021 में जुटी है। भगवा नारों के दम पर वो ममता को उन्ही के गढ़ में ललकार रही है लेकिन चिंता की बात ये है कि बंगाल का रक्त चरित्र आने वाले दिनों में किसी बड़े तूफान की दस्तक दे रहा है।

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