राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का राजनीतिक ग्राफ जिस तरह से बीते दिनों गिरा है उससे साफ है कि वह इस समय अपने कैरियर के सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। वह न घर के रहे न गठबंधन के। 2०17 में यूपी की सत्ता गंवाने के बाद से सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव के राजनीतिक जीवन में उठापटक और नुकसान रुकने का नाम नहीं ले रहा है। परिवार और पार्टी में फूट से लेकर कांग्रेस और बसपा से गठबंधन जैसे आत्मघाती, अतिउत्साही और बेहद आक्रामक फैसलों के बाद आज अखिलेश की सारी राजनीति पूरी तरह जमीन पर है। अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने और सहेजने में अखिलेश पूरी तरह ‘फ़ेल’ और ‘फ्लॉप’ दिख रहे हैं।
अब इस पर भी संशय होने लगा है कि क्या अखिलेश तमाम गलतियों से सबक लेते हुये अपनी सियासत को दोबारा पटरी पर ला पाएंगे? क्या अखिलेश मुलायम की राजनीतिक विरासत का सहेज पाएंगे? क्या अखिलेश देश व प्रदेश की राजनीति में खुद को दोबारा साबित कर पाएंगे? क्या अखिलेश परिवार और पार्टी में दोबारा एका करवा पाएंगे? आज अखिलेश की राजनीति जमीन पर घुटने रगड़ रही है। 2०19 के लोकसभा चुनाव में उनके तमाम सपनों को चकनाचूर किया है। और उनके फैसलों का गलत साबित भी किया है। सफलता और असफलता राजनीति में होती रहती है लेकिन राजनेताओं का फैसला जब गलत होने लगता है तो वह अपने मूल वोट बैंक से भी हाथ धो लेता है। इतिहास गवाह है कि जब कोई राजनीतिक दल अपनी जमीन गंवा देता है तो उसे वापस लौटने में लंबा समय लगता है और कभी-कभार तो असंभव हो जाती है। आंध प्रद्रेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डे की राजनीतिक पारी इसकी जीती-जागती मिसाल है।
चापलूस, स्वार्थी और जमीन से कटे नेताओं से दूरी बनाना होगा फायदेमंद
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यादव परिवार और पार्टी में भूचाल ला दिया है। आज अखिलेश के नेतृत्व में सपा एक बार फिर उसी मुकाम पर खड़ी दिखाई दे रही है, जहां आज से 27 साल पहले उनके पिता ने इसकी शुरुआत की थी। पिछले एक दशक में यूपी की राजनीति तीन सौ साठ डिग्री घूम चुकी है।
2०14 के लोकसभा और 2०17 के विधानसभा चुनाव में सपा को तगड़ा झटका लगा था। 2०19 में अपने चिरप्रतिद्बंद्बी और राजनीतिक दुश्मन बसपा से हाथ मिलाने के बाद सपा को उम्मीद थी कि इस बार कुछ कमाल होगा। लेकिन लोकसभा चुनाव ने तमाम राजनीतिक मिथकों, धारणाओं और प्रचलित मान्याताओं को पूरी तरह ध्वस्त कर डाला। गठबंधन में बसपा को फायदा हुआ तो सपा पांच की आंकड़े से आगे बढ़ नहीं पायी।
वर्ष 2०12 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव पार्टी का युवा और बदलाव का चेहरा बनकर उभरे थे। अखिलेश की रथ यात्रा को प्रदेश की जनता का भरपूर समर्थन और प्यार मिला था। अखिलेश के करिशमे ने बसपा को सत्ता से आउट किया था। पार्टी ने जीत का श्रेय अखिलेश को देते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंप दिया। गौरतलब है कि पार्टी ने युवा चेहरे के तौर पर भले ही अखिलेश का आगे रखा था, लेकिन पर्दे के पीछे पुरानी समाजवादी टीम ही काम कर रही थी।
साल 2०16 आते-आते अखिलेश ने पार्टी और सरकार पर वर्चस्व की नीयत से जो कुछ भी किया, उसका नजारा देश-दुनिया ने देखा। भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ होगा कि एक ही पार्टी के नेता सड़कों में आपस में ही भिड़े हों। अखिलेश की महत्वांकाक्षा, अपरिपक्वता और राजनीतिक अदूरदर्शिता के चलते पार्टी और परिवार में फूट हुई। वर्ष 2०17 में यूपी विधानसभा के चुनाव में अपनी सरकार की उपलब्धियों के साथ जनता के बीच जाने की बजाय अखिलेश ने सूबे की राजनीति में अंतिम पायदान पर खड़ी कांग्रेस से गठबंधन का अति आत्मघाती फैसला लेकर सबको चौंका दिया.। ‘यूपी के लड़के’ बुरी तरह फ्लॉप साबित हुए। अखिलेश सत्ता गवां बैठे। सत्ता गवांने के बाद भी अखिलेश तमाम ऐसे फैसले लेते रहे जिससे परिवार और पार्टी में दरार दिन-ब-दिन चौड़ी होती गयी। अखिलेश की कार्यप्रणाली से नाराज होकर चाचा शिवपाल ने अलग राह चुन ली, और पिता मुलायम सिह पार्टी में मार्गदर्शक मण्डल का हिस्सा बनकर चुप हो गये।
2०18 में यूपी में लोकसभा की तीन और विधानसभा की एक सीट पर उपचुनाव से पहले अखिलेश ने बसपा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। लोकसभा चुनाव में शून्य स्कोर के साथ बैठी बसपा ने राजनीतिक मजबूरी के चलते सपा को बाहर से समर्थन दिया। सपा-बसपा की जोड़ी ने सत्तासीन भाजपा से चारों सीटें झटक लीं। जिसमें दो सीटें मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री के इस्तीफ़े से खाली हुई थी। उपचुनाव की जीत से अति उत्साहित अखिलेश ने यह मान लिया कि अगर सपा-बसपा में गठबंधन हो गया तो लोकसभा चुनाव में वो राजनीति की नयी इबारत गढ़ सकते देंगे।
इसी मुगालते और वोटों के अंकगणित को जोड़ते-घटाते हुये अखिलेश बसपा की ओर बढ़-चढ़कर दोस्ती का हाथ आगे बढ़कर बढ़ाते रहे। सपा-बसपा की दोस्ती में जहां अखिलेश की ओर से हड़बड़ाहट और जल्दबाजी साफ तौर पर झलक रही थी, वहीं मायावती सोच-समझकर आगे बढ़ रही थी। बीजेपी को रोकने और अपने अस्तित्व को बचाने के लिये सपा और बसपा ने दशकों पुरानी दुश्मनी भुलाकर गठबंधन की राह पकड़ ली। सपा-बसपा के गठबंधन के बाद ये कयास लगाये जाने लगे कि यूपी में बीजेपी का सूपड़ा साफ होना तय है। लेकिन जब नतीजे आये तो कागजी गठबंधन कागजी घोड़ा ही साबित हुआ। और फिर गठबंधन का अंत वही हुआ जिसके बारे में पहले दिन से ही कहा जा रहा था।
लोकसभा चुनाव में बसपा शून्य से दस पर पहुंच गयी। वहीं सपा जस की तस पांच के आंकड़े पर झूलती रही। विधानसभा चुनाव के मुकाबले सपा का वोट शेयरिग भी कम हुई। कोढ़ में खाज यह हुआ कि अखिलेश यादव की पत्नी और दो चचेरे भाई चुनाव हार गये। अर्थात सपा के मजबूत किले भी ध्वस्त हो गए. नतीजतन अखिलेश की सियासी परिपक्वता पर लोग सवाल खड़े करने लगे। मुलायम सिह यादव जैसा दिग्गज नेता अंतिम चुनाव की दुहाई देकर बामुश्किल 9० हजार वोटों के अंतर से जीत पाया। असल में अखिलेश और मायावती यूपी में गठबंधन रूपी जिस नाव में बैठकर सत्ता की वैतरणी पार करना चाहते थे। वो मोदी का पहला सियासी तूफान ही न झेल पाई. गठबंधन की मलाई मायावती के हिस्से में आई।
अखिलेश को राजनीति विरासत में मिली है। वो संघर्ष करना जानते हैं। 2०12 में अपने दम पर सपा की छवि बदलने और पूर्णबहुमत हासिल करने का करिशमा वो कर चुके हैं। अपने कार्यकाल में अखिलेश ने विकास के कई कार्य किये, लेकिन लगातार अयोग्य और चापलूस नेताओं से घिरे अखिलेश जमीनी सच्चाई से ऐसे कटे कि वो न घर के रहे न गठबंधन के। फिलहाल उनके राजनीतिक सितारे गर्दिश में हैं। भाजपा बहुत मजबूत तरीके से उनके सामने खड़ी है। मृतप्राय: राजनीतिक दुश्मन बसपा को वो खुद दोबारा जिदा कर चुके हैं। कांग्रेस में भी प्रियंका की एंट्री हो चुकी है।
बदले हालातों में अखिलेश के लिये बिखरी हुई पार्टी, छिटके हुए वोटर, हतोत्साहित कार्यकताओं और परिवार की नाराजगी और गिले-शिकवे को दूर करने जैसे तमाम चुनौतियां हैं। पार्टी मुखिया के नाते निराश पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने की जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर है। चापलूस, स्वार्थी और जमीन से कटे नेताओं से दूरी बनाना उनके लिए फायदेमंद साबित होगा।
अपने करिश्माई नेतृत्व, कड़ी मेहनत और संघर्ष की बदौलत जगनमोहन ने जिस तरह आंध्र प्रदेश की सत्ता हासिल की है, उसी तरह अखिलेश को भी खुद को जमीनी नेता के तौर पर स्थापित करने के लिये कड़ी मेहनत की जरूरत है। तभी वो फिर एक बार प्रदेश व देश की राजनीति में का चमकता सितारा बन पाएंगे। फिलहाल अखिलेश का कई कड़े और बड़े इम्तिहानों से गुजरना है, और शायद संघर्षों की रगड़, तपन और चुभन उन्हें जननायक बनाएगी।