अजीत भारती
वामपंथ के नाम पर आपको खूब इमोशनल अदरक-लहसुन सुँघाया जाएगा। वो कहेंगे कि ‘कामनिष्ठ मैनिफेस्टो’ पढ़ो। आप पूछिए कि क्यों पढ़ें? वो कहें कि मार्क्स के विचार पढ़ो, आप पूछिए कि क्यों पढ़ें? वो कहेंगे कि वामपंथ की विचारधारा उदारवादी है, आप कहिए कि नक्सलियों के हिमयाती और हिंसक क्रांति की बात करने वाले उदारवादी और सर्वाहारा की बात तो नहीं ही करते। वो कहें कि वो सर्वहारा की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनसे कहिए कि कौन नहीं लड़ रहा।
इस कैंसरकारी विचारधारा ने सिवाय रक्त के समाज को कुछ नहीं दिया है। इन्होंने हिंसा को जायज बताया, सर्वहारा की रीढ़ पर लात रख कर सत्ता तक पहुँचे और हर जगह के इतिहास को इन्होंने गंदा किया। आपसे जब पूछें कि उदाहरण दो, उनसे कहिए कि वो इस लायक नहीं हैं कि वो हमारी बात सुन कर सर्टिफिकेट दें। वामपंथियों से, या उनके हिमायतियों को वहाँ मारिए जहाँ उन्हें दर्द हो। इन्हें डिबेट का शौक है, इन सूअरों के साथ कीचड़ में मत उतरिए।
इन्होंने भारत के इतिहास को बदला, क्रांतिकारियों को आतंकी की तरह दिखाया, प्रतापी और पराक्रमी हिन्दू शासकों को नकारा, मुसलमान आक्रांताओं को ऐसे दिखाया जैसे कि मंदिर तोड़ कर, बलात्कार और हत्याएँ करते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति में अपना सकारात्मक योगदान दिया।
आजादी के बाद इन्होंने भारत को तोड़ने की तैयारी जारी रखी। ये आश्चर्य की बात नहीं है कि इनके मंसूबे ईसाई चर्चों और मुसलमान आतंकियों के लहसुन-ए-हिन्द से बिलकुल अलग नहीं है। अगर ये उनके अजेंडे को आगे नहीं बढ़ाते रहते तो फिर ‘केरल माँगे आजादी, पंजाब माँगे आजादी’ कहते हुए विश्वविद्यालयों में क्यों हल्ला करते? इनका अजेंडा सिर्फ एक है वो है तमाम हिन्दू प्रतीकों की तबाही और भारतीय संस्कृति का खात्मा। इस वाक्य को साबित करने के लिए मैं कोई उदाहरण नहीं दूँगा क्योंकि उसकी ज़रूरत नहीं है।
नैरेटिव पर कब्जा
दुर्भाग्य देखिए कि ये लोग हैं तो गिने-चुने लेकिन आम भारतीय किन बातों पर चर्चा करे, ये यही लोग तय करते हैं। वो आखिर होता कैसे है? सत्ताधारियों की चाटुकारिता करते हुए, नेहरू जैसे अक्षम और स्वार्थी नेताओं की चालीसा लिखते हुए, पैसों के लालच में जमीर बेच कर इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियाँ लिखते हुए, ये पीढ़ी दर पीढ़ी अपने वैचारिक संतानों को पोषित करते रहे।
ये हमारे विश्वविद्यालयों के एकेडमिक काउंसिल में बहुमत में हैं, इन्होंने फिल्मी दुनिया में अपना वर्चस्व बना रखा है, इन्होंने टीवी और अखबारों में सारे बड़े संस्थानों में अपने लोग बिठा रखे हैं। इनमें से मीडिया वाले लगातार अपनी चाटुकारिता दिखाते रहते हैं। बाकी लोग परोक्ष रूप से कार्य करते हैं, जब ज़रूरत पड़ती है तो सिग्नेचर कैम्पेन या ट्वीट के जरिए, मुद्दों को चुन कर, सेलेक्टिव ट्रीटमेंट देते हुए इस कैंसर को पोषण पहुँचाते हैं।
इनके तौर-तरीकों को देखते हुए आपको पता चल जाएगा कि इनकी धूर्तता का ओर-अंत नहीं है। इन्हें न तो गरीबों से कोई मतलब है, न दलितों से, न मुसलमानों से। हर बार ये इन लोगों का इस्तेमाल करते हैं ताकि चर्चा में ये बने रहें। सत्ता से लगातार दूर होते ये माओ की नाजायज संतानें चाहती हैं कि किसी तरह से, किसी भी कीमत पर, वैसे लोग सत्ता में न रहें जो इनके विपरीत विचारों के हैं। चाहे उसके लिए इन्हें दलितों को मोहरा बना कर, अफवाह फैला कर सड़कों पर आगजनी करने के लिए उतारना हो, या अनुच्छेद 370 के बाद कश्मीरियों को सड़कों पर आ कर विरोध के नाम पर पत्थरबाजी और अराजकता के लिए उकसाना। ये चाहते हैं कि पूरे देश में दंगे हों, लोग सड़कों पर आ जाएँ और खूब रक्तपात हो।
लोग कहते हैं इग्नोर कीजिए
इन सब बातों के लिए मीडिया की मदद ली जाती है। लेकिन इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया के आने से इनकी नग्नता उजागर होने लगी है। आज के दौर में सूचनाओं का सबसे ज्यादा महत्व हो गया है। पहले भारत के बहुत बड़े हिस्से के पास खबर या विचारों के सही या गलत होने को जानने का तरीका ही नहीं था। इसलिए पहले चर्चा होती ही नहीं थी। चर्चा का मतलब था कि आपके मतलब के लोग, आपके मतलब की जगहें, आपके मतलब के मुद्दे और आपके मतलब की बातें।
एक तरफा सेमिनार से लेकर टीवी के पैनल डिस्कशन तक पूरी तरह से मैनेज्ड। आप एनडीटीवी के पैनल देखा कीजिए कि वहाँ किस तरह के लोग आते हैं। विरोधी विचारों के लोगों को बुलाया ही नहीं जाता। आप कहेंगे कि भाजपा ने मना कर रखा है। सही बात है लेकिन क्या भाजपा के इतर दक्षिणपंथी लोग नहीं हैं जिन्हें कश्मीर या तलाक के मुद्दे पर बोलने को बुलाया जाए? या वही वामपंथी असहिष्णुता कि एक्सपर्ट तो सिर्फ वामपंथी हो सकते हैं, बाकी को कुछ नहीं आता।
ऐसे लोगों को इग्नोर करने से ये बढ़ते रहेंगे। ये सीधे तौर पर राष्ट्रविरोधी हैं और इन्हें भारतीयता से, हिन्दू संस्कृति से या यहाँ के वृहद समाज से कोई मतलब नहीं। इन्होंने लगातार उन बातों पर हमला किया है जिससे हिन्दुओं की आस्था बिखर जाए। त्योहारों को प्रदूषण से जोड़ा, पितृसत्ता से जोड़ा, उस पूरे धर्म को असहिष्णु कह दिया दिया जिसने बलात्कारियों और आतंकियों को भी बसने की जगह दी। सब की जड़ में वही बात कि ये लोग सत्ता में कैसे पहुँच गए, ये तो हमारे प्रोजेक्ट को पूरा होने से रोक रहे हैं।
इन्हें सिर्फ रोकना ज़रूरी नहीं है, इनका समूल नाश आवश्यक है। इनका लक्ष्य मोदी या भाजपा नहीं, इनका लक्ष्य हिन्दुओं को इतना पंगु और लाचार बना देना है कि ये बिखर जाएँ, नेतृत्वहीन हो जाएँ, और अंत में इस संस्कृति को भुला दें जिसकी जड़ में वैयक्तिक और सामाजिक स्वतंत्रता, सहिष्णुता, सर्वधर्म समभाव है।
इसलिए इग्नोर करने पर तो ये अपनी राह बनाते ही रहेंगे। ज़रूरत है कि इन पर चौतरफा हमला हो। इनकी फंडिंग बंद की जाए, इनके पैसे कमाने के जरिए खत्म किए जाएँ, विश्वविद्यालयों से ऐसे चूहों को बिलों से पानी और मिर्च का धुआँ डाल कर निकाला जाए। जो लोग शब्दों की आड़ लेकर देश को तोड़ने की बात करें उन्हें आर्थिक रूप से नुकसान पहुँचाना आवश्यक है। इनके पैसे खत्म कर दो ये सब स्वतः गिड़गिड़ाते हुए कहने लगेंगे कि ‘मेरे तो बाप हिन्दू ही थे, मैं तो चाल में फँस गया था।’
इन नक्सलियों और आतंकियों से लेकर वैचारिक तानाशाहों की सारी निष्ठा पैसों से ही है। विचारधारा तो ये दो रुपए के लिए त्याग देते हैं। इन्हें सिर्फ उपेक्षित रखना ही सही उपाय नहीं है, इन्हें अप्रासंगिक बनाना आवश्यक है। इनकी सच्चाई सामने लाकर, इन्हें बिना किसी भी तरह का मौका देते हुए, पूरी तरह से डिसमिस करते हुए, दुत्कार कर सामाजिक चर्चा से बाहर करना समय की माँग है।
समूल नाश ही एकमात्र उपाय है
वो आपको कुछ लिखें, या कहें कि ये तो गलत लिखा है, इसका आधार क्या है, तो उन्हें जवाब मत दीजिए, उन्हें दुत्कार कर भगाइए कि वो इस लायक नहीं है कि उनसे किसी भी तरह की बात की जाए। क्योंकि यही इनका इतिहास रहा है। पत्रकारिता के सम्मानों में कितने सम्मान दक्षिणपंथियों को मिले हैं? साहित्यिक सम्मानों में क्या कोई घोषित दक्षिणपंथी है? ऐसे कितने महत्वपूर्ण मंचों पर आपने दक्षिणपंथियों को अपनी बात खुल कर कहते सुना है?
इन्होंने हर संस्था पर, हर संस्थान पर, हर जगह अपनी ऐसी पकड़ बना रखी है कि व्यक्ति अपने आप को अभिव्यक्त करने से डरता है। ये सारे लोग स्वयं को लिबरल बताते हैं, जबकि इनसे ज्यादा इन्टॉलरेंट, अनुदार, एक आयामी, इन्फ्लेक्सिबल और तानाशाही प्रवृत्ति के लोग आपको ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे। हर जगह ये अपने तरह के विचारों को ही विचार मानते हैं, ये जिनको सही मानते हैं, अगर आपने उसके अलावा किसी को वोट दे दिया, तो आपको मूर्ख और अज्ञानी कह कर डिसमिस कर देंगे।
इसीलिए, समय की ज़रूरत यही है कि इन्हें फ्लश किया जाए समाज से। दुर्भाग्य से ऐसे हिंसक विचारों को पोषित करने वालों के लिए समाज में कोई जगह नहीं है। आप इनके साथ अगर इन्हीं के तरीके से पेश नहीं आएँगे तो ये रक्तबीज की तरह पैदा होते रहेंगे।
इस वैचारिक युद्ध में छोटी लड़ाइयों को जीत कर खुश होने की जरूरत नहीं है। ज़रूरत है इस विचारधारा के समूल नाश का। जब ये पूछें कि ‘क्या तुम भगत सिंह के विचारों को मिटा दोगे’, तो पहले तो ऐसे आदमी को अपने मुँह से बलिदानी भगत सिंह का नाम लेने पर दो वैचारिक तमाचा तुरंत मारिए और फिर कहिए कि भगत सिंह के विचारों को कलुषित करने वालों को उनका नाम लेने का कोई हक नहीं।
विचारधारा तुम्हारे मैनिफेस्टो में क्या कहती है, उससे मतलब नहीं है। मतलब इससे है कि आज तुम उस विचारधारा के नाम पर संस्थागत बलात्कार (जो वामपंथियों में खूब प्रचलित है), अपने ही देश की सेना के जवानों की नृशंस हत्या, देश को तोड़ने की बातें और चुने गए नेता को मारने की योजना बनाते हो। मतलब इससे है कि तुमने गरीबों के नाम पर कितना आतंक मचाया है और उन्हें लगातार सरकारी योजनाओं से, विकास से दूर रखा है। जरूरत पड़ी तो तुमने उन्हीं गरीबों को ढाल बना कर सुरक्षाबलों के आगे कर दिया।
वामपंथियों को चिह्नित कर, अप्रासंगिक बनाना समय की माँग
इनके जितने भी प्रोपेगेंडा फैक्ट्री हैं, उन्हें पढ़ना बंद कीजिए। चाहे ये छोटे हों, बड़े हों, तोप हों, या तलवार, इन्हें पहचानिए और सार्वजनिक रूप से उन्हें उनकी करतूतें गिना कर सबके सामने लाइए। मीडिया वाले ऐसा करें तो उनके झूठ और प्रोपेगेंडा को सत्य से काटिए। आप ये मान कर चलिए कि सही बात तो ये कर ही नहीं सकते। इनके डीएनए में ही सही बोलना नहीं है। अगर ये घटना सही उठा रहे हों, तो आप तय मान कर चलिए कि उस घटना में ये कुछ सवर्ण-दलित या हिन्दू-मुसलमान का प्रपंच पक्का करेंगे। इसलिए, पहली नजर में तो इन्हें सही मानने का सवाल ही नहीं उठता।
जस्टिस लोया, अमित शाह के बेटे जय शाह, अजित डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल से लेकर राफेल, इन्टॉलरेंस, जय श्री राम जैसे दसियों प्रपंच इनके गैंग ने गढ़े। कभी कुछ साबित नहीं हो पाया। लेकिन ये कोरस में गाते रहें। आज भी गाते हैं। इनका हर बड़ा मुद्दा मोटिवेटेड होता है जिसकी जड़ में या तो अपने मालिकों को बचाने की बात होगी या फिर हिन्दुओं को नीचा दिखाने की। इसलिए, इन्हें जहाँ देखिए, वहीं कील ठोक दीजिए।
अगर इनकी छटपटाहट देख कर आपको दया आए तो भी दया मत दिखाइए। ये मत सोचिए कि विरोधी विचारों का रहना आवश्यक है। ये सारी फर्जी बातें इन्हीं चम्पकों ने फैलाई हैं। विरोधी विचारों का नहीं, सही को सही, और गलत को गलत कहने वालों का रहना जरूरी है। आप याद कीजिए कि गौरक्षकों ने कानून को हाथ में लिया तो क्या दक्षिणपंथियों ने उन्हें नहीं नकारा? क्या कठुआ कांड पर दक्षिणपंथी चुप रहे? जब-जब सरकार ने कुछ गलत किया तब इन्हीं दक्षिणपंथियों ने मोदी तक को नहीं छोड़ा। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा कैसे हारी?
लेकिन इसके उलट आप याद कीजिए कितने वामपंथियों ने राहुल गाँधी जैसे नकारे नेता को प्रधानमंत्री नहीं बनाना चाहा? आप याद कीजिए कि कितनी बार मौलवियों द्वारा मस्जिदों और मदरसों के भीतर किए जाने वाले बलात्कार पर इन्होंने दो शब्द बोले हों? आप याद कीजिए कि आतंकी घटनाओं पर ‘हिन्दू टेरर’ की थ्योरी लाने वाले कितने बार इस्लामी आतंक की निंदा कर पाए? याद कीजिए दलितों को अफवाह फैला कर सड़कों पर आगजनी करने और परिणामतः बारह लोगों की हत्या करने को उकसाने के बाद कितने वामपंथियों ने इसकी निंदा की? कितने नक्सली नरसंहारों पर इन्होंने दो शब्द बोले कि उनकी विचारधारा इसका समर्थन नहीं करती? ममता बनर्जी के राज में बंगाल का कौन सा इलाका मजहबी दंगों से अछूता रहा, किस वामपंथी मीडिया ने उसे आप तक पहुँचाया?
इसलिए, इस मुगालते में मत रहिए कि विरोध का स्वर इनके जाने से गायब हो जाएगा। विरोध का स्वर हमारे बीच ही मौजूद है। ये तो कैंसर हैं, कोढ़ हैं, सड़े हुए सेव हैं टोकरी के जिन्हें समाज से निकालना ज़रूरी है। इन्होंने गलतियों को डिफेंड किया है, सही काम आज तक किया नहीं। इसलिए, इन्हें सब्जियों की जड़ में उगे पराश्रित घास की तरह एक-एक कर खोजिए, और उखाड़ लीजिए। उखाड़ने के बाद इन्हें जमीन पर मत रखिए, इन्हें धूप में सुखाइए, फिर जलाइए और फिर कहीं फेंक दीजिए।
और हाँ, राह चलते कोई वामपंथी दिखे तो उसे बिना पूछे दो वैचारिक कंटाप मार दीजिए क्या पता दिमाग पर कुछ असर पड़े और सही राह चल पड़े! आप ही को बाद में धन्यवाद कहेगा।