के विक्रम राव
सुषमा स्वराज हमारी (सितम्बर 1976) वकील थीं, बड़ौदा डायनामाईट केस में| हम पच्चीस अभियुक्त, जार्ज फर्नांडिस और मुझे मिलाकर, तिहाड़ जेल के 17 नंबर वार्ड में रखे गये थे| पच्चीस वर्ष की तरुणी सुषमा महाबली इंदिरा गाँधी के घोरतम शत्रुओं का मुकदमा लड़ने को तैयार हो गई थी| सिंहनी थीं| फिर वे दिल्ली की मुख्यमंत्री (1998) नामित हुईं| मगर तब भाजपा हार के कगार पर थी| शीला दीक्षित की पार्टी जीत गई| मेरा बाईस वर्ष पुराना यह लेख याद आ गया| नीचे प्रस्तुत है|
मुस्लिमयुगीन वीरांगना सुलताना रजिया (पुरानी) दिल्ली के तख्त पर बैठने वाली प्रथम महिला शासक थी। सुषमा दूसरी रहीं। (इंदिरा गांधी नई दिल्ली-स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय से राष्ट्र पर राज चलाती थीं। मुख्यमंत्री के राजकाज का केन्द्र लालकिले के इलाके में है।)
उन दिनों (अक्टूबर 1998) दिल्ली का राजनीतिक घटनाक्रम इस तेजी से घूमा कि भाजपा अपना होमवर्क ठीक से नहीं कर पाई। नवम्बर 25 को होनेवाले सत्तर-सदस्यीय विधानसभा के आम चुनाव के चालीस दिन पूर्व ही मुख्यमंत्री बदला जाए तो सियासी अजूबा ही कहलाएगा। विपक्षी कांग्रेसियों ने कहा भी था कि भाजपा का यह कदम नैराश्यपूर्ण दशा की संत्रस्त प्रतिक्रिया है। घबराहट है। नवरात्र के नौंवे दिन बाद लक्ष्मी पूजा के ठीक पहले यह परिवर्तन हुआ। पूरा पखवाड़ा ही नारी शक्ति जागृत करने वाला रहा। सुषमा स्वराज का करवाचौथ का व्रत पूरा हो चुका था। उसी दिन (शनिवार, अक्तूबर 10) ऋतु शरद, मास कार्तिक की कृष्ण पंचमी थी। योग भी अमृतसिद्धिवाला था। भाजपा उसी दिन दिल्ली पर दुबारा कब्जा जमाने की योजना रच रही थी, तो कांग्रेस उसके पांच-वर्षीय राज को उखाड़ने में। तभी प्रधानमंत्री के सफदरजंग मार्ग स्थित आवास के बंद कमरे के भीतर चिंतन, मंथन और भोजन वाली अपनी आदत के अनुसार भाजपाई शीर्ष नेतृत्व निर्णय करने में व्यस्त रहा। उसमें अहसास गहराया था कि दिल्ली हाथों से छूट रही है। उन सबके तसव्वुर में पैंतालिस वर्षीया, पांच फुटी श्रीमती सुषमा स्वराज कौशल सर्वप्रथम आयीं। पहले तो सुषमा ने दिल्ली का मुख्यमंत्री पद लेने में अनिच्छा व्यक्त की। वह खिन्न थीं। फिर राजी हो र्गइं। यूं भी नारी की ‘हां’ और ‘ना’ में बस सुई भर की जगह ही होती है। भाजपा द्वारा इस मंथन से नीलकंठ बनकर सुषमा उभरीं, जिसने चुनावी हलाहल पिया।
भाजपा के चोटी के नेताओं को राहत मिली, जब सुषमा बन गयी नयी मुख्यमंत्री। लेकिन दिल्ली का माहौल भाजपा के प्रतिकूल रहा। भाजपा का आंतरिक कलह मुख्यमंत्री के चयन के बाद ज्यादा तीव्र हो गया। बजाय समस्या के समाधान होने के इस समाधान से ही नयी समस्याएं उपज गई थीं । जाट समुदाय तो खौरिया रहा था कि उनके नेता साहिब सिंह वर्मा को बेआबरू कर डाला। अक्टूबर 31 को दिल्ली के समीपस्थ गांवों के जाट-खाप स्वाभिमान दिवस मना रहे थे। हरियाणा के जाट भी जुड़ गये भाजपा को सबक सिखाने में उनका अभियान चला कि सुषमा बाहर वाली हैं, तो फिर दिल्ली का कौन है? पाकिस्तान से भागकर आये शरणार्थी आज दिल्ली के हैं और अम्बाला से आयी सुषमा बाहर की हो गई ? पर दाद मिलनी चाहिए सुषमा के बागी तेवरों को कि बीड़ा उठाया तो कमर कस ली। दिल्ली की चरमराती कानून व्यवस्था पर सुषमा बड़ी बेलौस ढ़ंग से बोली, ‘मुख्यमंत्री महिला हो और लड़कियों से छेड़छाड़ का अपराध न रूके?’ कड़ी कार्रवाई की। थानों पर धावे बोले, पुलिस को कर्तव्य याद दिलाया। अब सुषमा रात को जगती थीं, ताकि दिल्ली वाले चैन से सो सकें। सुषमा को एक लाभ भी मिला। केन्द्र में भाजपा की सरकार थी। अतः केन्द्रशासित दिल्ली की भारत सरकार उपेक्षा तब नहीं की। कर भी नहीं पायी| क्योंकि यदि भाजपा दिल्ली हार जाती तो चिराग तले अधेरा हो जाता।
गमनीय है कि तुलनात्मक दृष्टि से सुषमा अपने प्रदेशीय पार्टी नेताओं से आगे रहीं। उनकी राष्ट्रीय छवि थी। प्रभावी केन्द्रीय मंत्री रहीं, जिसने प्रसार भारती सरीखे जटिल मसले को हल कर डाला। दूरदर्शन और आकाशवाणी को सुधारा, कमजोर कभी नहीं रहीं। पच्चीस वर्ष की तरूणावस्था में जाट महाबली चौधरी देवीलाल की काबीना से निकाली गयी थीं। फलस्वरूप उनके अभियान से चौधरी देवीलाल को हरियाणा का मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा था। कुछ चींटी- हाथीवाला संघर्ष था। वाक् चातुर्य में तेज तो वे रहीं। जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तेरह दिनों बाद गिर गयी थी, देवेगौड़ा लोकसभा में विश्वास मत पाने की कोशिश में थे, तो सुषमा का प्रतिपक्ष की ओर से दिया गया भाषण यादगार है। अटल जी को फिर सत्ता से वंचित रखने पर उसने कैकयी-मंथरा और शकुनि-दुर्योधन का हवाला दिया, जिन्होंने साजिश के तहत असली दावेदार को अयोध्या और हस्तिनापुर सिंहासन से महरूम रखा। उस वक्त टीवी स्क्रीन पर उस नर-वानर जैसे बेमेल, वर्ण-संकर संयुक्त मोर्चा सरकार के नेताओं की तिलमिलाहट, खीझ और पशेमानी देखते बनती थी। एक बार लखनऊ के हुसैनगंज में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जनसभा को सुषमा सम्बोधित कर रही थीं। उनका भाषण सुनकर श्रोता ऐसे झूम रहे थे कि मानों वह बीन बजा रही हों। बाहों में नहीं गिरे, पर सुषमा हाथों में वोटर पड़ ही गये| क्योंकि सीट भाजपा जीत गई थी।
उस दौर में देश के राजनीतिक सिलसिले में जनता पार्टी तीन टुकड़ों में बंट गयी थी। चौधरी चरण सिंह का जनता दल, जगजीवन राम-चन्द्रशेखर की जनता पार्टी और पुराने जनसंघियों की भारतीय जनता पार्टी। सुषमा स्वराज तब जनता पार्टी में ही रहीं। और समाजवादी भी। सारनाथ में चन्द्रशेखर की अध्यक्षता में सम्मेलन (1981) हो रहा था। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के संवाददाता के नाते लखनऊ से मैं रिपोर्टिंग हेतु गया था| राजनीतिक प्रस्ताव पर बोलते हुए सुषमा ने अकाट्य तर्क दिये। उन्होंने कह दिया कि इंदिरा गांधी के पुनः प्रधानमंत्री बन जाने से इमर्जेंसी में कांग्रेस सरकार द्वारा किये गये पाप क्षीण नहीं हो जाते। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के संजय गांधी द्वारा नामित मुख्मंत्री थे। जार्ज फर्नाण्डीज तब चौधरी सिंह की पार्टी में थे। फिर सुषमा आयीं भारतीय जनता पार्टी में। मगर पति वकील स्वराज कौशल समाजवादी ही बने रहे। दिल्ली विधानसभा के 1998 चुनाव में अपने राजनीतिक जीवन की गंभीरतम चुनौती का सामना करते हुए सुषमा के समक्ष इन सबसे भी बड़ी ललकार दशकों पूर्व थी। नयी-नयी शादी हुई थी। चण्डीगढ़ में स्वराज दम्पत्ति ने वकालत शुरू की। तभी इंदिरा गांधी नें इमर्जेंसी लाद दी। यह समाजवादी युगल अपना स्कूटर बेचकर नयी दिल्ली आ गया। जार्ज फर्नान्डीज, मै और मेरे तेइस अन्य सह अभियुक्त दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद थे। सुषमा और पति कौशल हमारे वकील थे। साथ में न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) वी. एम. तारकुण्डे, अशोक देसाई, सोली सोराबजी, नानी पालकीवाला आदि। आचार्य जे.बी. कृपलानी हमारी कानूनी सहायता समिति के अध्यक्ष थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हमारे मदद हेतु अपील भारत की जनता से की थी। सुषमा स्वराज तब जेल में हमें बुनियादी अधिकार दिलाने के लिए संघर्षरत थीं। बड़ौदा डायनामाइट केस इस स्वराज दम्पत्ति के जीवन का पहला बड़ा मुकदमा था। सुषमा तब तक अपने दो दशकों के राजनीतिक जीवन में कई उतारचढ़ाव देख चुकी थीं। जब भाजपा की सोची समझी रणनीति के तहत वह दिल्ली की 1998 में मुख्यमंत्री बनाई गयी थीं, तो उन पर आरोप लगा कि वह पीछे के दरवाजे से अंदर लायी गयी हैं। सुषमा ने इसे झूठा साबित कर ही दिया| वह सिर्फ आकर्षक चेहरेवाली ही नहीं थीं। वह नवरात्र के स्रोतों में अपना रूप ढूंढ़ चुकी थीं कि वह ‘‘रिपुगज दण्ड विदारण चण्ड, पराक्रमशुण्ड, मृगधिपते”, का महिषासुर- मर्दिनी वाला आकार धारण कर चुकी हैं। लोहिया ने इन्दिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था। सुषमा गूंगी तो कभी नहीं रहीं। बल्कि जीभ ज्यादा तेज रही, तर्रार उनके तेवर भी थे।