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कोरोना वायरस : जो लोग कुछ समय बाद सबकुछ पहले जैसा होने की उम्मीद पाल रहे हैं, वे नादान हैं

कोरोना वायरस संक्रमण (कोविड-19) अब लगभग पूरी दुनिया को चपेट में ले चुका है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद से मानवता को इतने बड़े संकट का सामना कभी नहीं करना पड़ा था. उस समय भी आज की तरह अंतरराष्ट्रीय सहयोग और संस्थानों में विश्वास रसातल को चला गया था.

दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत ने कई लोगों को हैरान कर दिया था. लेकिन दिसंबर 2019 में जब कोरोना वायरस के फैलने की शुरुआत हुई तभी पता चल गया था कि संकट कितना बड़ा हो सकता है. देखा जाए तो संक्रामक बीमारियों के विशेषज्ञ कई दशकों से खतरे का अलार्म बजा रहे थे. वे बार-बार चेता रहे थे कि इन बीमारियों की रफ्तार बढ़ती जा रही है. डेंगू, ईबोला, सार्स, एच1एन1 और जीका इस खतरे का अंश भर हैं. 1980 से अब तक 12,000 से भी ज्यादा बार संक्रामक बीमारियां फैली हैं और उनसे दुनिया में दसियों लाख लोग मरे हैं. इनमें सबसे गरीब लोगों का एक बड़ा हिस्सा है. 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता सूची में शामिल आठ में से छह बीमारियों ने अपना कहर बरपाया था.

इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि हमें चेताया नहीं गया. और अब जब हम कोविड-19 की वजह से पैदा हुए संकट से निपटने की कोशिश कर रहे हैं तो हमें थोड़ा गहराई से यह भी सोचना चाहिए जिस महामारी का आना तय था उससे निपटने की हमारी तैयारी इतनी नाकाफी क्योंं रही.

दूसरा विश्व युद्ध इसलिए हुआ क्योंकि हमारे नेता 1914 से 1918 तक चले पहले विश्व युद्ध से सबक सीखने में बुरी तरह नाकाम रहे. 1940 और 50 के दशक में संयुक्त राष्ट्र और ब्रेटन वुड्स इंस्टीट्यूशंस जैसी कुछ संस्थाओं से कुछ उम्मीद बंधी थी, लेकिन शीत युद्ध ने उन्हें ढेर कर दिया. फिर 1980 का दशक आया जब अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की देखा-देखी दुनिया भर की सरकारों ने टैक्स के इस्तेमाल से गैरबराबरी खत्म करने और स्वास्थ्य और दूसरी जरूरी सेवाएं मुहैया कराने के प्रयासों को कम कर दिया.

लेकिन, दूसरी तरफ देखें तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भूमंडलीकरण से आए खतरों को संभालने में नाकाम रहीं. आज संयुक्त राष्ट्र असल में विभाजित राष्ट्र दिखता है और ये विभाजित राष्ट्र अपने-अपने फैसलों को तरजीह देते हैं. नतीजा यह है कि जिन संस्थाओं को हमारा भविष्य सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया था उनके संसाधन और उनका वजन, दोनों घट रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन इसका उदाहरण है.असल में भूमंडलीकरण के संभावित नुकसान रोकने के लिए बनी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं उसी समय कमजोर की गईं जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी.

दुनिया के आपस में अब और भी ज्यादा जुड़ने का नतीजा यह हुआ है कि सारे देश अब एक दूसरे पर और भी ज्यादा निर्भर हो गए हैं. यह भूमंडलीकरण का एक ऐसा पहलू है जिसकी तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो निश्चित रूप से हम आगे और भी मुश्किलों में पड़ेंगे. इसे समझने के लिए 2008 का आर्थिक संकट सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक है. उस दौरान यह साफ दिखा कि वैश्विक वित्तीय तंत्र की बढ़ती जटिलताओं की हमारी संस्थाओं और विशेषज्ञों ने खतरनाक ढंग से उपेक्षा की है.

हैरत की बात नहीं कि राजनीतिक और आर्थिक लिहाज से दुनिया के कुलीन वर्ग में आने वाले तबके को चुनावों में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस वजह से भूमंडलीकरण और विशेषज्ञों का खुलेआम विरोध करने वालीं लोकलुभावन ताकतें सत्ता में आ गईं. जनता के असंतोष से उत्साह में आईं इन ताकतों ने एक पुराना रास्ता पकड़ लिया. यह रास्ता था समस्याओं के लिए बाहरी लोगों को जिम्मेदार ठहराना और बाहरी दुनिया की परवाह न करना. खास तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का ही उदाहरण लें जिन्होंने वैज्ञानिक सोच को खारिज किया, फर्जी खबरों को प्रोत्साहन दिया और अपने पुराने सहयोगियों और वैश्विक संस्थाओं से दूरी बना ली.

इन आंकड़ों में कमी इस पर निर्भर करेगी कि हम कितनी जल्दी नए संक्रमणों का आंकड़ा घटा सकते हैं, संक्रमित लोगों को अलग-थलग कर सकते हैं और स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ा सकते हैं. इस पर भी, कि संक्रमण की दूसरी लहर को कब तक रोका जा सकता है या फिर उसे कितना सीमित किया जा सकता है. किसी टीके के बिना यह तय है कि कोरोना वायरस अभी कई साल तक हमारी जिंदगी में उथल-पुथल मचाता रहेगा.

जहां नुकसान सबसे ज्यादा होगा

यह महामारी सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों और उन लोगों को पहुंचाएगी जिन्हें इसका जोखिम सबसे अधिक है. इससे एक बार फिर गैर-बराबरी के खतरे उजागर होंगे. अमेरिका में 60 फीसदी से भी ज्यादा वयस्क आबादी ऐसी है जो लंबे समय से किसी न किसी बीमारी का सामना कर रही है. हर आठ में से एक अमेरिकी गरीबी की रेखा के नीचे है. तीन चौथाई से भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें तनख्वाह न मिले तो उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा. इसके अलावा अमेरिका में 4.4 करोड लोगों के पास किसी भी तरह का स्वास्थ्य बीमा नहीं है.

कोविड-19 के आर्थिक नतीजे हर जगह असाधारण होंगे. ये कितने बदतर होंगे यह इस पर निर्भर करेगा कि यह महामारी कितने दिन टिकी रहती है और सरकारों की इस पर देश के भीतर और बाहर क्या प्रतिक्रिया होती है. लेकिन सबसे कम बुरा भी सोचें तो हालात 2008 के आर्थिक संकट की तुलना में कहीं ज्यादा खराब रहने वाले हैं. अनुमान है कि दुनिया को होने वाले कुल नुकसान का आंकड़ा नौ खरब डॉलर के पार जाएगा जो वैश्विक जीडीपी के 10 फीसदी से ज्यादा है.

यह लेख लिखे जाने तक अमेरिका में 33 लाख लोग बेरोजगारी भत्ते के लिए आवेदन कर चुके थे. यूरोप में भी बेरोजगारी रिकॉर्ड ऊंचाइयों पर पहुंच रही है. फिर भी अमीर देशों में यह राहत तो है ही कि वहां किसी न किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा है. लेकिन गरीब देशों में न तो सोशल डिस्टेंसिंग सुनिश्चित की जा सकती है और न ही यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि उनके यहां लोग गरीबी और भूख से न मरे.

फैक्ट्रियां बंद हैं, उनमें काम करने वाले अपने घरों में बंद हैं, सप्लाई चेनें बदहाल हैं और लोग न यात्रा कर पा रहे हैं और न ही खरीदारी. ऐसे में आर्थिक पैकेज का कोई मतलब नहीं. मौद्रिक नीति से भी कुछ करने की गुंजाइश नहीं क्योंकि ब्याज दरें पहले से ही शून्य के आसपास आ चुकी हैं. इसलिए सरकारों को अब सभी जरूरतमंदों को एक बुनियादी आय देने पर ध्यान लगाना चाहिए. इससे ही यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कोई भूख से न मरे. बुनियादी आय का विचार कुछ समय पहले तक कपोल कल्पना लग रहा था, लेकिन अब जरूरत इस बात की है कि यह सभी सरकारों के मुख्य एजेंडे में हो.

वैश्विक मार्शल प्लान

इस महामारी का पैमाना और इसकी तीव्रता, दोनों इतने विशाल हैं कि कुछ साहसिक फैसले लेने ही होंगे. कुछ यूरोपीय दशों की सरकारों ने आर्थिक पैकेजों का ऐलान किया है ताकि अर्थव्यवस्था को पूरी तरह थमने से बचाया जा सके. ब्रिटेन में सरकार इस पर सहमति हो गई है कि वेतन भत्ते और स्वरोजगार से होने वाली आय का 80 फीसदी तक वह देगी. यह आंकड़ा 2500 यूरो प्रति महीने तक हो सकता है. सरकार कंपनियों की भी मदद कर रही है. अमेरिका दो खरब डॉलर के आर्थिक पैकेज का ऐलान कर ही चुका है और यह अभी शुरुआत ही है. उधर, जी20 देश भी पांच खरब डॉलर खर्च करने का वादा कर चुके हैं, हालांकि अभी इस बारे में तस्वीर साफ नहीं है कि वे यह कैसे करेंगे.

कोविड-19 महामारी राष्ट्रीय और वैश्विक मामलों में एक बड़ा मोड़ है. यह बताती है कि हम एक-दूसरे पर कितने निर्भर हैं. इससे यह भी पता चलता है कि जब खतरे आते हैं तो हम अपनी सुरक्षा के लिए अपनी सरकारों की तरफ देखते हैं न कि निजी क्षेत्र की तरफ.

अमीर देशों के पास इस आपदा से निपटने के लिए असाधारण आर्थिक और स्वास्थ्य संसाधन हैं. विकासशील और गरीब देशों के साथ ऐसा नहीं है इसलिए इस आपदा के नतीजे इन देशों में कहीं भयावह और दीर्घकालिक होंगे. अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के कई देशों में विकास और लोकतंत्र की प्रक्रिया उल्टी दिशा में जाएगी. जलवायु परिवर्तन और दूसरे खतरों की तरह यह महामारी भी देशों के बीच और उनके भीतर की गैरबराबरी को नाटकीय रूप से बढ़ाएगी.

कुछ विश्लेषक कह रहे हैं कि कोविड-19 भूमंडलीकरण के लिए मौत का संदेश लाई है. लेकिन ऐसा नहीं है. महामारी के दौरान लोगों का आना-जाना और कारोबार थम गया है इसलिए दुनिया की अर्थव्यवस्था में सिकुड़न आएगी. लेकिन लंबे समय में देखें तो दुनिया की दो तिहाई आबादी रखने वाले एशिया में लोगों की आय में लगातार बढ़ोतरी का मतलब होगा कि यात्रा, कारोबार और पैसे के प्रवाह का ग्राफ फिर से ऊपर की तरफ जाने लगेगा.

लेकिन सामानों की आवाजाही के मामले में यह साल इतिहास के एक ऐसे साल के तौर पर याद किया जाएगा जब वह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंच गई जिसे सप्लाई चेन फ्रैगमेंटेशन कहा जाता है. इसमें उत्पादन वहीं करने को प्राथमिकता दी जाती है जहां माल की खपत हो रही हो. यह प्रक्रिया वैसे कुछ समय से चल ही रही थी. लेकिन इस संकट के चलते इसमें तेजी आएगी. रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और 3डी प्रिटिंग जैसी तकनीकों में भी प्रगति होगी. ग्राहक कस्टमाइज्ड उत्पादों की जल्द से जल्द डिलिवरी चाहेंगे. राजनेता कंपनियों को अपने ही देश में उत्पादन करने को कहेंगे और कंपनियां अपने खर्चे कम से कम करना चाहेंगी. इस सबका नतीजा यह होगा कि कम आय वाले देशों के पास जो लाभ की स्थिति अभी तक थी वह नहीं रहेगी.

सिर्फ मैन्यूफैक्चरिंग में ही स्वचालन यानी ऑटोमेशन नहीं आ रहा है. कॉल सेंटर जैसी सेवाओं और कुछ प्रशासनिक प्रक्रियाओं में भी इसने सेंध लगा दी है. अब किसी कंपनी के मुख्यालय के किसी बेसमेंट में मौजूद कंप्यूटर यह काम उन लोगों से कहीं सस्ते में कर सकते हैं जो कहीं दूर बैठे हों. इसका भविष्य में नौकरियों पर बड़ा असर पड़ने वाला है. कम आय वाले इन देशों के लिए तो यह कुछ ज्यादा ही बड़ी चुनौती है जहां युवा आबादी रोजगार के सपने देख रही है. अफ्रीका की बात करें तो अगले दस साल में यहां 10 करोड़ लोग श्रम बाजार में शामिल होने वाले हैं. महामारी के पहले ही उनका भविष्य अनिश्चित था. अब स्थिति और खतरनाक हो चली है.

यह एक ऐसा दौर है जब लोकतंत्र में आस्था पिछले कुछ दशकों के सबसे निचले स्तर पर है. ऐसे में अगर आर्थिक हालात और बिगड़ते हैं तो इसके राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता पर दूरगामी असर होंगे. अभी ही राजनेताओं और जनता के बीच अविश्वास की बड़ी खाई है. आपसी विश्वास की यह कमी देश के भीतर इस संकट के प्रति प्रतिक्रिया को और भी मुश्किल बना सकती है. देश के बाहर देखें तो यह इस महामारी के खिलाफ वैश्विक प्रतिक्रिया को कमजोर करेगी.

संयुक्त राष्ट्र अपील कर रहा है कि इस समय बहुत से स्तरों पर आपस में सहयोग करने की आपात जरूरत है. लेकिन यह भी सच है कि वह खुद इस लड़ाई में कहीं नहीं दिख रहा. वैसे भी हाल के समय में बड़ी ताकतों ने उसे दरकिनार ही किया है. विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष संकट से निपटने के लिए अरबों और खरबों खर्च करने की बात तो कह रहे हैं, लेकिन किसी सार्थक असर के लिए उन्हें अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी.

इस संकट के समय दुनिया अमेरिका से जिस नेतृत्व की उम्मीद कर रही थी वह नहीं दिखा. इसके अभाव में कारोबार और सामाजिक कार्यों में लगे संगठनों ने अपनी सक्रियता बढ़ाई है. सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, चीन, ताइवान, इटली, फ्रांस और स्पेन के शोधकर्ता लगातार अपना काम साझा कर रहे हैं. देखा जाए तो इस समय जो कुछ सबसे प्रेरणादायी काम हुए हैं वे गैरसरकारी संगठनों या लोगों की तरफ से हुए हैं. मसलन यूएस कॉन्फ्रेंस ऑफ मेयर्स और नेशनल लीग ऑफ सिटी जैसे मंच तेजी से इस बारे में सूचनाएं साझा कर रहे हैं कि कैसे इस महामारी को फैलने से रोका जाए. इससे स्थानीय प्रशासन को मदद मिल रही होगी. द बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने अफ्रीका और दक्षिण एशिया में स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के लिए 10 करोड़ डॉलर दिए हैं. इसके अलावा वेलकम ट्रस्ट , स्कोल, द ओपन सोसायटी फाउंडेशंस, यूएन फाउंडेशन और गूगल.ओआरजी ने भी अपनी सक्रियता बढ़ाई है.

जो आगे आना चाहते हैं वे आएं और एक गठबंधन बनाकर वैश्विक प्रतिक्रिया का नेतृत्व करें

आज हमें एक व्यापक वैश्विक प्रतिक्रिया की जरूरत है. जी7 और जी20 जैसे संगठनों वाली बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने मौजूदा नेतृत्व की अगुवाई में दिशाहीन दिख रही हैं. ये संगठन भले ही सबसे गरीब देशों और शरणार्थियों पर ध्यान देने की बात कहते रहे हों लेकिन इनकी हालिया बैठकों में जो हुआ वह ‘बहुत कम और बहुत देर’ जैसा था. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे देश इस संकट का असर कम करने की कोशिश न करें. जो आगे आना चाहते हैं वे जी20 देशों के साथ हाथ मिलाकर एक रचनात्मक गठबंधन बना सकते हैं. इस गठबंधन को वैश्विक बाजारों में ही नहीं बल्कि वैश्विक संस्थाओं में भी भरोसा बहाल करने के लिए आपात कदम उठाने की जरूरत है.

यूरोपीय संघ, चीन और दूसरे देशों को आगे आना होगा और एक वैश्विक प्रतिक्रिया की अगुवाई करनी होगी. इसमें वैक्सीन के लिए परीक्षणों की प्रक्रिया तेज करने के अलावा वैक्सीन और दवा खोज लिए जाने के बाद उनका मुफ्त वितरण सुनिश्चित करना भी शामिल है. उन्हें अमेरिका को भी इस कवायद में शामिल करना होगा. दुनिया भर की सरकारों को स्वास्थ्य, स्वच्छता और बुनियादी आय जैसे मोर्चों पर निवेश असाधारण रूप से बढ़ाने की भी जरूरत होगी.

इस समय दीवारें खड़ी की जा रही हैं. लेकिन दीवार कितनी भी ऊंची हो, वह अगली महामारी या ऐसे किसी खतरे को नहीं रोक पाएगी. हां, उससे तकनीक और दूसरे तमाम मोर्चों पर विचारों का आदान-प्रदान और आपसी सहयोग जरूर रुक जाएगा जिसकी हमें महामारियों, जलवायु परिवर्तन, एंटीबायोटिक्स के खिलाफ विषाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता, आतंकवाद और ऐसे तमाम दूसरे खतरों से निपटने के लिए जरूरत है.

कोरोना वायरस के बाद दुनिया वैसी नहीं नहीं रहने वाली जैसी पहले थी. जरूरी है कि अब हम वे गलतियां न करें जो हमने पूरी 20वीं शताब्दी के दौरान और 21वीं सदी में अब तक की हैं. इसका मतलब है कि हमें कुछ बुनियादी सुधार करने होंगे. तभी यह सुनिश्चित हो सकेगा कि हमें फिर कभी ऐसी महामारियों का सामना न करना पड़े.

देश के भीतर हमें मिलकर सभी नागरिकों की जरूरतों की प्राथमिकता तय करनी होगी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमें वे दरारें पाटनी होंगी जिन्होंने इस महामारी को विकराल होने का मौका दिया है. अगर ऐसा हो सका तो इस संकट से एक नई वैश्विक व्यवस्था बनाई जा सकती है. अगर हम परस्पर सहयोग सीख जाएंगे तो हम न सिर्फ अगली महामारी को रोकने के सबक सीखेंगे बल्कि जलवायु परिवर्तन और दूसरे बड़े खतरों से निपटने में भी इससे काफी मदद मिलेगी.

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