दयानंद पांडेय
मायावती उन दिनों मुख्य मंत्री थीं । एक इंटरव्यू में मैं ने उन से पूछ लिया कि आप अपने को बहुजन समाज का नेता क्यों कहती हैं ? वह गुरुर से भर कर बोलीं , मैं बहुजन समाज की ही नेता हूं । मैं ने उन से प्रति प्रश्न किया कि फिर आप द्वारा बनवाए गए सारे स्मारक दलित जन के ही क्यों हैं , बहुजन के क्यों नहीं । ऐसे और भी कई सारे प्रश्न थे । वह मुस्कुराने लगीं । मनुवादी मीडिया का ताना दिया । इंटरव्यू के बाद मुझे अपने गेट तक छोड़ा उन्हों ने । पहले भी उन के कई इंटरव्यू ले चुका था मैं । हर बार वह बाहर छोड़ने आती थीं बतियाती हुई ।
लेकिन इस बार उन का यह इंटरव्यू नहीं छपा । बल्कि उलटे मेरी नौकरी खतरे में पड़ गई । बड़ी मुश्किल से बचा पाया था तब नौकरी । यह मायावती का मनुवादी मीडिया पर दबाव का कमाल था । उस दिन दफ्तर मैं बाद में पहुंचा था , मायावती का दबाव पहले पहुंच चुका था । दफ्तर में साफ-साफ बता दिया गया था कि इंटरव्यू लिखने की ज़रुरत नहीं है । छपना तो दूर की बात थी । बाद के दिनों में कई सारे पत्रकारों की नौकरी खाई मायावती ने । जिस भी किसी पत्रकार ने गलती से भी अपने लिखे में मायावती के काम काज की आलोचना की वह कहीं भी , किसी भी मीडिया संस्थान में हो उस की नौकरी नहीं रही । मायावती का साफ आदेश होता था कि या तो अखबार बंद कर लो या इसे निकाल बाहर करो । अखबार सब को चलाना होता था , पत्रकार नौकरी से बाहर हो जाता था । आज भी आलम यह है कि आई ए एस अफसर और मीडिया मालिक अगर किसी से सचमुच में डरते हैं तो वह मायावती ही हैं । इस लिए कि कर्टसी तो उन के पास है ही नहीं । वह अपने गुरुर में किसी भी से जल्दी मैनेज भी नहीं होतीं । अगर मैनेज होती भी हैं किसी तरह तो वह भारी कैश पर । करोड़ों में मैनेज होती हैं , बहुत हाय तौबा करने पर ।
खैर बाद के दिनों में अख़बारों में मायावती का प्रशस्तिगान ही छपता था , आलोचना नहीं । वह हार रही होती थीं , अखबार उन की प्रचंड जीत का आख्यान लिख रहे होते थे , प्रचंड जीत का शंखनाद कर रहे होते । इंटेलिजेंस रिपोर्ट और अखबार दोनों की रिपोर्ट एक होती । आंख तो उन की चाटुकारों ने बंद कर ही रखी थी , कान भी इस तरह बंद होता गया । नतीज़ा सामने है , मायावती साफ होते-होते पूरी तरह साफ हो गईं । यही काम पहले मुलायम करते रहे थे और बाद में अखिलेश यादव भी । अब तो जैसे समूची मीडिया में यह एक परंपरा सी हो गई है । सब के सब राजा का बाजा बजाने के अभ्यस्त हो चले हैं । बल्कि एक्सपर्ट हो चुके हैं । राजा कोई हो , बाजा इन का बजता रहेगा , शंखनाद होता रहेगा ।
इन सत्तानशीनों को कोई यह बताने वाला नहीं होता कि आप मीडिया और इंटेलिजेंस मैनेज कर सकते हैं पर जनता और तथ्य को मैनेज करना बहुत मुश्किल होता है । अगर आप ने काम किया है तो काम अपने आप बोलेगा । काम बोलता है का नारा नहीं देना पड़ता । शमशेर की एक कविता है न , बात बोलेगी, हम नहीं / भेद खोलेगी बात ही।