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जनजातीय लड़कियों को फँसा कर जल-जंगल-जमीन पर कब्ज़ा, प्रशासन-राजनीति में घुसपैठियों का रसूख, स्कूल बन रहे मदरसे: संथाल परगना अब ‘ग्रेटर बांग्लादेश’

संथाल परगना, झारखंड, मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियेझारखंड के संथाल परगना में जिहाद की बड़ी साजिश का खुलासा हुआ है। यहाँ ‘लव जिहाद’ से लेकर ‘दुल्हन जिहाद’ और ‘जमाई जिहाद’ तक चल रहा है। ‘संथाल’ भारत का एक प्राचीन जनजातीय समूह है, वहीं ‘परगना’ का प्रयोग मध्यकालीन भारत में प्रशासनिक रूप से बाँटे गए इलाकों के लिए होता था। झारखंड के 6 जिले संथाल परगना प्रमंडल के अंतर्गत आते हैं – गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़। इस क्षेत्र को तिलका माँझी, बिरसा मुंडा और सिद्धू एवं कान्हू मुर्मू जैसे क्रांतिकारियों के लिए भी जाना जाता है।

‘TV9 भारतवर्ष’ ने अपनी रिपोर्ट्स में संथाल परगना में चल रही जिहादी साजिश का पर्दाफाश किया है। इसमें बताया गया है कि बांग्लादेश सीमा से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस इलाके को ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ या ‘बांग्लादेश एक्सटेंशन’ बनाया जा रहा है। यहाँ मूल रूप से जनजातीय समाज रहता आ रहा है, जिनकी जनसंख्या कम कर के मुस्लिमों की जनसंख्या बढ़ाने की साजिश चल रही है। बांग्लादेश से आने वाले मुस्लिम यहाँ की स्थानीय लड़कियों को अपने प्यार के जाल में फँसाते हैं।

संथाल परगना में जिहाद: ‘जमाई बनो, जमीन पर कब्ज़ा करो’ की नीति

फिर ये घुसपैठिये इलाके में अपनी जड़ें जमाने के लिए उनसे शादी कर लेते हैं। इसके बाद एक ‘जमाई जिहाद’ भी चल रहा है, जिसके कारण इलाके में कई ‘जमाई टोले’ बस गए हैं। जनजातीय समाज की लड़कियों को फँसाने वाले ये मुस्लिम घुसपैठिये उनसे शादी कर के उनके यहाँ ही बस जाते हैं। यानी, वो ‘घरजमाई’ बन कर लड़की के घर को अपना घर बना लेते हैं। इसके बाद परत दर परत सिस्टम को हाईजैक करने का काम किया जाता है।

इसके तहत फर्जी आधार कार्ड्स बनवाए जाते हैं और घुसपैठियों पर सरकारी ठप्पा लगाने के लिए हर कदम उठाए जाते हैं। जो लड़कियाँ इसके खिलाफ मुँह खोलती हैं, उनकी हत्या तक भी कर दी जाती है। लड़कियों से शादी के पीछे मंशा होती है उनके जमीन-जायदादों पर कब्ज़ा करना। इलाके के स्कूलों को मदरसों में तब्दील किया जा रहा है, जहाँ रविवाद की जगह शुक्रवार (जुमा) को छुट्टी होती है। अंत में इनकी मंशा होती है – इलाके के प्रशासन में अपनी पैठ बनाना।

बांग्लादेश से संथाल परगना के इलाकों में आने में 3 घंटे के आसपास लगते हैं। बोलचाल और भाषाई संस्कृति में समानता होने के कारण ज्यादा लोगों का इनकी तरफ ध्यान भी नहीं जाता। 1990 के दशक में इसका पहली बार खुलासा हुआ है, जब भाजपा नेता अनंत ओझा ने 7500 अवैध बांग्लादेशियों के नाम वोटर लिस्ट से हटवाए। ये मामला उच्च न्यायालय में भी गया। न्यायपालिका ने पुलिस से कहा कि वो अवैध घुसपैठियों को बाहर निकालने की कार्रवाई शुरू करे।

हालाँकि, पुलिस में भी अधिकतर इन घुसपैठियों से मिले हुए हैं और कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं किया गया। कई पुलिसकर्मियों के खिलाफ एक्शन भी हुआ, लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। भाजपा नेता अमित मालवीय ने भी अब इस मुद्दे को उठाया है। कई गाँवों का दौरा कर के पत्रकारों ने बताया कि सिस्टम में इन अवैध घुसपैठियों की गहरी पैठ है। जनजातीय समाज में भी पहाड़िया समाज एक है, उसका ज्यादा पलायन हो रहा है।

सिर्फ प्रशासनिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक रसूख भी बढ़ाया जा रहा है। फर्जी आईडी कार्ड्स को लेकर कइयों के खिलाफ केस भी चल रहा है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल पा रहा। अनंत ओझा ने बताया कि छात्र राजनीति के समय में संयुक्त बिहार में उन्होंने इस मामले को उठाया है। कइयों को पकड़ कर पुलिस को सौंपा गया, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया। उन्होंने बताया कि जब वो MLA बने, उसके बाद से वो सदन में लगातार यहाँ की डेमोग्राफी बदलने और जल-जंगल-जमीन पर घुसपैठियों के कब्जे की बात उठा रहे हैं।

उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल के माध्यम से घुसपैठिए झारखंड में घुस रहे हैं। इन इलाकों में इबादतगाहों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। झारखंड पुलिस ने इन गतिविधियों को लेकर एक पत्र जारी करते हुए हर थाने से रिपोर्ट भी माँगी है। सबसे ज्यादा आधार कार्ड भी तथाकथित अल्पसंख्यकों के नाम ही हैं। हाईकोर्ट घुसपैठ की जानकारी राज्य सरकार से तलब कर चुका है। राज्य में हेमंत सोरेन की सरकार इस मुद्दे को लेकर शांत है, क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण को उसने अपनी नीतियों में स्थान दे रखा है।

संथाल परगना: क्रांतिकारियों की भूमि, अब मुस्लिमों के कब्जे में

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से 2 साल पहले ही झारखंड में आज़ादी का बिगुल फूँका जा चुका था। अंग्रेजों के खिलाफ संगठित लड़ाई लड़ कर उन्हें भगाया गया था। इसी की याद में हर साल 30 जून को ‘हूल दिवस’ मनाया जाता है। कार्ल मार्क्स ने भी इस विद्रोह को अपने पुस्तक में स्थान दिया है। सिदो और कान्हा मुर्मू के नेतृत्व में हुए इस विद्रोह में 30,000 जनजातीय लोगों ने अंग्रेजों का बहिष्कार किया था। इसी के कारण संथाल क्षेत्र को भागलपुर और वीरभूम से हटा दिया गया, पुलिस एक्ट लागू किया गया और संथाल परगना ‘नॉन रेगुलेशन’ जिला बना।

इसके बाद 1860-75 तक सरदारी लड़ाई चली और 1895-1900 तक बिरसा मुंडा ने स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर अपने हाथ में ली। ‘हूल विद्रोह‘ बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के इलाकों में फैला था। संथाली ही नहीं, कई जातियों के लोग इसमें शामिल थे। इलाके में अंग्रेजों को मार्शल लॉ लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इस विद्रोह को कुचलने वाले मेजर जर्विस ने लिखा है कि इन विद्रोहियों को समर्पण का अर्थ पता ही नहीं था, जब तक इनके नगाड़े बजते रहते ये गोली खाने को भी तैयार रहते थे।

इस दौरान ‘अबुआ राज’, ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’ और ‘हमने खेत बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं’ जैसे कई नारे भी स्थानीय भाषाओं में इलाके की क्रांति की पहचान बने। ये भी दुखद है कि हमारी पाठ्य-पुस्तकों में इस क्रांति को वो स्थान नहीं मिलता। अंग्रेजों से युद्ध में 10,000 से भी अधिक लोगों ने यहाँ बलिदान दिया। 3 वर्षों तक ये लड़ाई चलती रही। 1857 को तो वो स्थान मिला, लेकिन इस क्रांति को नहीं।

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