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बीजेपी को मालामाल और विपक्ष को कंगाल बना रहे इलेक्टोरल बॉन्ड पर SC में 31 अक्टूबर से सुनवाई

नई दिल्ली। 2014 में सत्ता में आने के बाद अमित शाह ने कहा था कि उनकी पार्टी बीजेपी, देश पर पचास साल शासन करेगी। तब इस बात को एक बड़बोलापन समझा गया था। लेकिन बीजेपी और उनका थिंक टैंक आरएसएस लंबे समय के बाद पूर्ण बहुमत प्राप्त इस हुकूमत को लेकर बेहद गंभीर था और आज भी है। लोकतंत्र में सबसे बड़ी चुनौती होती है साथी राजनीतिक दलों और विपरीत विचारधाराओं के साथ चुनावी दंगल में भाग लेना। इस हेतु प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों को आर्थिक रूप से कमज़ोर करना भी तब बीजेपी की रणनीति का एक हिस्सा बना।

इसी रणनीति के अंतर्गत साल 2016 में नोटबंदी लाई गई और इसका कारण बताया गया नकली नोट, काला धन और डिजिटल ट्रांजेक्शन। हालांकि इनमें से एक भी उद्देश्य नोटबंदी ने पूरा नहीं किया और अब तो सरकार तथा बीजेपी इस मास्टरस्ट्रोक कहे जाने वाले कदम का अपनी उपलब्धियों के रूप में जिक्र भी नहीं करती है।

पर नोटबंदी के कदम ने बीजेपी के खिलाफ जो राजनीतिक दल थे, उनको जरूर नुकसान पहुंचाया। साल 2017 में सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना लेकर आई जो मुख्य रूप से पॉलिटिकल फंडिंग के बारे में थी। लेकिन यह योजना पारदर्शी नहीं है, और इस योजना से यह बिलकुल भी नहीं पता लगता है कि किस व्यक्ति, किस कॉर्पोरेट घराने ने, किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया है।

पर जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके अनुसार बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे अधिक धन मिला और वह धन इतना अधिक है कि साफ पता चलता है, कि यह योजना बीजेपी के लिए ही लाई गई है। एक आंकड़े के अनुसार, साल 2017 से 2022 तक इलेक्टोरल बॉन्ड से कुल 9181 करोड़ रुपये की पॉलिटिकल फंडिंग हुई, जिसमे बीजेपी को कुल, 5,271 करोड़ रुपये और कांग्रेस को कुल डोनेशन मिला 952 करोड़ रुपये। निश्चित रूप से इस अपारदर्शी पॉलिटिकल फंडिंग सिस्टम का सबसे अधिक लाभ बीजेपी को मिला।

इसी प्रकार राजनीतिक चंदों में बीजेपी को मिलने वाली भारी धनराशि के कारण इस बॉन्ड पर सवाल उठे। इलेक्टोरल बॉन्ड में पारदर्शिता के अभाव को लेकर भी यह मांग उठने लगी कि, पॉलिटिकल फंडिंग सिस्टम या इलेक्टोरल बॉन्ड तंत्र को पारदर्शी बनाया जाए, ताकि जनता को सारे चंदों का लेनदेन पता रहे।

इस मुद्दे को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स, एडीआर और कुछ अन्य याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं भी दायर कीं और सुप्रीम कोर्ट ने 10 अक्टूबर को प्रारंभिक सुनवाई के बाद यह संकेत भी दिया है कि 31 अक्टूबर, 2023 को चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर वह सुनवाई करेगा।

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने 10 अक्टूबर को प्रारंभिक मुद्दों पर सुनवाई की। हालांकि याचिकाकर्ताओं ने फिलहाल इस योजना को धन विधेयक के रूप में पारित करने पर बहस नहीं करने का फैसला किया है क्योंकि धन विधेयक से संबंधित मुद्दे पर रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड में सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा फैसला किया जाना बाकी है।

सुनवाई शुरू होने पर प्रारंभ में वकील प्रशांत भूषण ने मामले की जल्द सुनवाई की जरूरत जताते हुए कहा कि “इस ‘मामले में फैसला न हो पाने की वजह से विधानसभा चुनाव से पहले बॉन्ड जारी किए जा रहे हैं।”

सीजेआई ने, प्रशांत भूषण को आश्वासन दिया कि, “अदालत इस मामले की सुनवाई के लिए तैयार है।”

हालांकि, भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने हस्तक्षेप किया और कहा कि, “चुनावी बॉन्ड के खिलाफ, चुनौती में उठाए गए मुद्दों में से एक यह भी है कि, इसे धन विधेयक के रूप में पारित किया गया था। जबकि रोजर मैथ्यूज के मामले में धन विधेयक से संबंधित मुद्दे की सुनवाई सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जानी है।”

यह एक संवैधानिक सवाल था कि, क्या वित्तीय विधेयक या मनी बिल के मुद्दे पर अदालत कोई सुनवाई कर सकती है। यही सवाल सात जजों की एक पीठ के समक्ष फिलहाल सुनवाई हेतु लंबित है। इस सवाल पर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने हस्तक्षेप किया और कहा कि, “जहां धन विधेयक याचिका में उठाए गए मुद्दों में से एक था, वहीं धन विधेयक से स्वतंत्र अन्य मुद्दे भी तय किए जाने थे।”

उन्होंने जोर देकर कहा कि, “राजनीतिक दलों की गुमनाम और गोपनीय फंडिंग ने नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन किया है। फंडिंग की गुमनाम प्रकृति ने भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा दिया क्योंकि इससे उन कंपनियों को, जिन्होंने कुछ पार्टियों की सरकार से कुछ लाभ प्राप्त किए थे, गुमनाम रूप से उन राजनीतिक दलों को दान देने की अनुमति मिल गई।

संविधान का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, “संविधान स्पष्ट रूप से कहता है, भ्रष्टाचार मुक्त समाज, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक पहलू है।”

जिस पद्धति के माध्यम से चुनावी बांड खरीदे जा सकते हैं, उसके बारे में विस्तार से बताते हुए, प्रशांत भूषण ने रेखांकित किया कि, “भारतीय चुनाव आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक के विरोध के बावजूद, भारतीय स्टेट बैंक को ऐसे बैंक के रूप में नामित किया गया है, जहां कोई भी जाकर 10,000 रुपये से 1 करोड़ रुपये के मूल्यवर्ग में चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है।

इस पर, सीजेआई ने पूछा कि, “क्या बॉन्ड, बैंक हस्तांतरण या नकद के माध्यम से खरीदे जा सकते हैं?”

आगे सीजेआई ने कहा कि, “यह काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर कोई बॉन्ड बैंक हस्तांतरण के माध्यम से खरीदा जाता है, तो चैनल का स्रोत एक बैंकिंग चैनल होगा, हालांकि अगर इसे नकद द्वारा खरीदा जा सकता है, तो प्रक्रिया पूरी तरह से गुमनाम होगी।”

इधर, अन्य याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील शादान फरासत ने भी हस्तक्षेप किया और चुनावी बॉन्ड की गुमनामी के पहलू पर स्पष्टीकरण दिया। उन्होंने कहा, “असली गुमनामी तब होती है जब आप किसी राजनीतिक दल में स्थानांतरित होते हैं। कौन किस पार्टी को दान दे रहा है यह गुमनाम है।”

सीजेआई ने इस पर और स्पष्टीकरण मांगते हुए पूछा कि, “क्या कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को पैसे भी ट्रांसफर कर सकता है।”

एडवोकेट शादान फरासत ने कहा कि, “केवल एक राजनीतिक दल ही चुनावी बॉन्ड भुना सकता है। उस अर्थ में, किसी व्यक्ति को धन हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।”

आगे एडवोकेट शादान फरासत ने कहा, “पहले 20,000 रुपये से अधिक के लिए, चंदा देने वाले का नाम बताए जाने की आवश्यकता थी। लेकिन यह योजना कहती है कि, यदि आप चुनावी बॉन्ड के माध्यम से भुगतान करते हैं, तो पार्टी को चंदादाता के नाम का खुलासा करने की ज़रूरत नहीं है। उसे केवल चुनावी बॉन्ड से प्राप्त कुल राशि का खुलासा करना होता है।”

सरकार ने इसे सुगम बनाने के लिए कंपनी अधिनियम में एक सहवर्ती संशोधन भी किया है जिसका उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा कि, “एक सहवर्ती संशोधन के अनुसार किसी कंपनी के शेयरधारकों को यह भी नहीं पता होगा कि, उनकी कंपनी ने किस राजनीतिक दल को चंदा दिया है। इस तरह, लेन-देन दोनों तरफ से गुमनाम हो गया। एक तरफ, शेयरधारकों को पता नहीं चलेगा कि उनकी कंपनी ने किसे दान दिया और दूसरी तरफ पार्टियों को यह बताने की भी आवश्यकता नहीं है कि उन्हें किससे दान प्राप्त हुआ है।”

इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा, “दान की जानकारी सार्वजनिक डोमेन से साफ़ की जाती है।”

एक बार प्रारंभिक मुद्दों पर बहस हो जाने के बाद, सीजेआई ने टिप्पणी की, “हम सुनवाई शुरू करेंगे। लेकिन धन विधेयक मुद्दे के बारे में क्या कहना है? क्या आप धन विधेयक मुद्दे पर दबाव डाल रहे हैं? क्योंकि यह मामला, सात न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध है। यह आपका (याचिकाकर्ता) फैसला है। क्या आप धन विधेयक मुद्दे को छोड़कर सुनना चाहते हैं?”

याचिकाकर्ताओं की ओर से प्रशांत भूषण ने कहा कि, “वे धन विधेयक के मुद्दे के साथ इस मामले पर तभी बहस करना चाहेंगे जब रोजर मैथ्यूज मामला दिसंबर 2023 तक निपट जाएगा।”

इस पर, सीजेआई ने कहा, “भविष्यवाणी करना मुश्किल हो सकता है। अभी हमने 12 अक्टूबर को पूर्व सुनवाई के लिए सभी को सूचीबद्ध किया है।”

प्रशांत भूषण ने तब कहा कि ऐसे मामले में याचिकाकर्ता, धन विधेयक मुद्दे के बिना ही, इस मामले पर बहस करेंगे।”

यह मामला 31 अक्टूबर 2023 के लिए बोर्ड के शीर्ष पर सूचीबद्ध किया गया है। इस महत्वपूर्ण मामले की पृष्ठभूमि इस प्रकार है।

  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 (आरपीए) की धारा 29 सी में किए गए 2017 के संशोधन के आधार पर, एक दानकर्ता भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का उपयोग करके और केवाईसी (अपने ग्राहक को जानें) आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद निर्दिष्ट बैंकों और शाखाओं में चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है।
  • राजनीतिक दलों को भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को इन बॉन्डों के स्रोत का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है। बॉन्ड को 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये या 1 करोड़ रुपये के गुणकों में किसी भी मूल्य पर खरीदा जा सकता है।
  • बॉन्ड में दानकर्ता का नाम नहीं होगा। बॉन्ड जारी होने की तारीख से 15 दिनों के लिए वैध होगा, जिसके भीतर भुगतानकर्ता-राजनीतिक दल को इसे भुनाना होगा।
  • आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए के तहत आयकर से छूट के उद्देश्य से बॉन्ड के अंकित मूल्य को एक पात्र राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से आय के रूप में गिना जाएगा।

तदनुसार, वित्त अधिनियम 2017 के प्रावधानों को चुनौती देते हुए 2017 में कई याचिकाएं दायर की गईं, जिसने गुमनाम चुनावी बॉन्ड का प्रावधान किया गया है। वित्त अधिनियम 2017 ने चुनावी बॉन्ड के लिए रास्ता बनाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, कंपनी अधिनियम, आयकर अधिनियम, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम में संशोधन पेश किए।

यह याचिकाएं राजनीतिक दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज़ और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर की गई हैं, जो इस योजना को “एक अस्पष्ट फंडिंग प्रणाली जो किसी भी प्राधिकरण द्वारा अनियंत्रित है” के रूप में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने यह आशंका व्यक्त की कि कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन से “नीतिगत विचारों में राज्य के लोगों की जरूरतों और अधिकारों पर निजी कॉर्पोरेट हितों को प्राथमिकता मिलेगी।”

साल 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी बॉन्ड जारी करने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।

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