नई दिल्ली। चीन यह राग हमेशा अलापता रहा कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देशों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। यह सच है कि भारत एनपीटी और सीटीबीटी पर बिना हस्ताक्षर के न्यूक्लियर सप्लायर समूह (एनएसजी) में जगह चाहता है। भारत की मुसीबत यह है कि एनएसजी के 48 सदस्यों में चीन भी है और भारत का इसमें शामिल होना उसे खटकता है। रही बात एनपीटी और सीटीबीटी की यह उसका बहाना मात्र है। दरअसल इस समूह में शामिल होने से न केवल ईंधन, बल्कि तकनीक का भी आदान-प्रदान सहज हो जाता है। फिलहाल बरसों से भारत इसकी सदस्यता हेतु दुनिया के देशों से समर्थन जुटा रहा है, पर नतीजे अभी भी खटाई में हैं, परंतु इस बीच एक सुखद सूचना यह आई कि बिना एनएसजी के सदस्यता के ही भारत अमेरिका से असैन्य अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र में उच्च तकनीक वाले उत्पाद खरीद सकेगा।
अमेरिका के इस सकारात्मक पहल से चीन की समस्या बढ़नी तय है। वैश्विक फलक पर कूटनीति का मिजाज भी बड़ा रोचक होता है। पुराने अनुभव के आधार पर यह कह सकते हैं कि भारत अंतरराष्ट्रीय संधियों के आगे कभी झुका नहीं, बल्कि अपने संयमित कृत्यों से दुनिया को झुकाने का काम किया। अमेरिका का ताजा कदम इस बात को पुख्ता करती है। अमेरिका ने भी माना है कि भारत सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए एनएसजी के निर्यात नियंत्रण वाले समूहों के साथ जुड़ गया है। खास यह भी है कि इजराइल अमेरिका के सबसे नजदीकी देशों में आता है मगर यह दर्जा उसे भी नहीं प्राप्त है। वैसे एक दृष्टि यह भी है कि अमेरिका ने भारत को एसटीए-1 में शामिल करके चीन और शेष दुनिया को एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी दे दिया है और सीधे तौर पर चीन को तो यह भी जता दिया है कि एशियाई देशों में भारत की क्या साख है और अमेरिका से उसकी निकटता का क्या मतलब है। इसमें अमेरिका ने चीन को कूटनीतिक तौर पर दबाव में लेने का भी प्रयास किया है।
गौरतलब है कि बीते जून सिंगापुर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरियाई शासक किम जोंग के बीच बरसों की तनातनी के बाद शांति की तलाश में एक बैठक हुई जो सफल भी रही। दुनिया जानती है कि उत्तर कोरिया की संरक्षक की भूमिका में चीन ही है और किम जोंग को पटरी पर तभी लाया जा सकता है जब उसे चीन के प्रभाव से मुक्त किया जा सकेगा। हालांकि पाकिस्तान भी चीन के प्रभाव में है और आतंक की खेती करता है। इसे लेकर भी चीन पर कूटनीतिक प्रहार हुआ है। गौरतलब है कि भारत, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान की एकजुटता इस मामले में कारगर हो सकती है। चीन को हतोत्साहित करने वाले कदम पहले भी उठाए जा चुके हैं जब भारत, अमेरिका और जापान ने दक्षिण चीन सागर में युद्धाभ्यास मिलकर किया था। फिलहाल भले ही अमेरिकी चाल एनएसजी की सदस्यता में रुकावट बनने वाले चीन को नागवार गुजरी हो, पर भारत की दृष्टि से यह बड़ी कूटनीतिक विजय है।
विवेचनात्मक पक्ष यह भी है कि जब वर्ष 1974 में पोखरण परीक्षण हुआ तब इसी वर्ष परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत को बाहर रखने के लिए एक समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी और जापान समेत सात देश थे जिनकी संख्या अब 48 हो गई है। इतना ही नहीं 1981-82 के दिनों में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रमों के तहत नाग, पृथ्वी, अग्नि जैसे मिसाइल कार्यक्रम का जब प्रकटीकरण हुआ और इस क्षेत्र में भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया जाने लगा। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देश्य से सात देशों ने एमटीसीआर का गठन किया। हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बना, जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है। जाहिर है पहले दुनिया के तमाम देश नियम बनाते थे और उसका भारत अनुसरण करता था, परंतु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जाएगी कि दुनिया के तमाम देश अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है, परंतु अमेरिका ने यह कमी पूरी कर दी।
यह सवाल उठ सकता है कि अमेरिका ने भारत को इतना महत्व क्यों दिया और चीन की असली परेशानी क्या है? अमेरिका ही नहीं दुनिया भी जानती है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, सबसे बड़ा बाजार है और अत्यधिक संभावनाओं से भरा है। साथ ही कूटनीतिक तौर पर संतुलित और आतंक की चोट सहने के बावजूद भी बर्बर रवैया नहीं अपनाता है। इसके अलावा कई मामलों में अमेरिका के साथ द्विपक्षीय साझेदार है और हथियारों का बड़ा खरीदार भी। जहां तक सवाल चीन का है उसकी परेशानी उसके दिमाग में है। वह समझता है कि यदि भारत एनएसजी का सदस्य बनता है तो इसके नाते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए भी वह दावेदारी मजबूत कर लेगा जबकि सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी पहले से ही मजबूत है। फिलहाल डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा जारी अधिसूचना ने एनएसजी सदस्यता को गौड़ जरूरी कर दिया है और भारत ने एक बड़ी कूटनीतिक कांटे को रास्ते से निकाल दिया है।