राज शेखर
अगड़ों में आक्रोश बहुत है, खास तौर पर यूपी और बिहार की गोबर पट्टी (काऊ बेल्ट) में, सवर्णों का मानना है कि सरकार दलितों के आगे झुक गई है, पिछड़ों को रिझाने की कोशिश कर रही है और सवर्णों, खास तौर पर ब्राह्मणों और राजपूतों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है. सरकार ने आरक्षण पर पुनर्विचार तो किया नहीं, उल्टे सुप्रीम कोर्ट में ‘प्रमोशन में रिजर्वेशन’ की पैरवी करने उतर गई. पिछड़ा आयोग को संवैधानिक दर्जा दिला दिया, और सबसे बड़ा कलेश तो ये कि एससी-एसटी ऐक्ट को फिर से सख्त बनाने वाला बिल दोनों सदनों से पास करा लिया.
अगड़ों का गुस्सा ये है कि इस सरकार पर वो अपना सबसे पहला हक समझते हैं, इस सरकार को अपनी सरकार समझते हैं और सरकार है कि दलितों और पिछड़ों की ओर झुकती दिख रही है. अगड़ों की इस नाराजगी में एक हताशा है, हताशा इस बात की है कि उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर रह गई, उन्हें गुमान है कि सरकार उन्हीं के समर्थन से बनी लेकिन उनके शोर की सुनवाई नहीं हुई. इस नाराजगी की नवैयत भी गौर करने वाली है, जो किसी पराए से नहीं अपने से ही है, इस नाराजगी में छले जाने का एक मीठा-मीठा कसकता हुआ दर्द है.
अगड़ों की इस नाराजगी का इजहार हर कहीं दिख रहा है, सोशल मीडिया से लेकर सामाजिक कार्यक्रमों तक, केंद्र सरकार के मंत्रियों से लेकर राज्य सरकार के अफसरों तक. अगड़ों की हताश नाराजगी में एक नालिश भी है ‘सरकार लाख जतन कर ले, दलितों के वोट उसे नहीं मिलने वाले, पिछड़े भी मौका देखते ही लालू और मुलायम परिवार का रुख करेंगे’
अगड़ों की ये टीस दरअसल ‘सिम्बॉलिक’ ज्यादा है. पूछिए तो बताना मुश्किल है कि वो एससी-एसटी एक्ट के दोबारा सख्त होने से खफा हैं या उनका बड़ा दर्द दलितों-पिछड़ों को मिल रही तरजीह है. अलबत्ता वो जिन पार्टियों के नाम के उलाहने दे रहे हैं, उन पार्टियों की नज़र खुद सवर्ण वोटरों के इस गुस्से पर लगी है. यूपी के एक सीनियर पत्रकार जो मुलायम और मायावती से पंगे लेने के लिए मशहूर रहे, कहते हैं कि इन पार्टियों ने अपने यहां मौजूद अगड़ों को अभी से इस गुस्से को हवा देने पर लगा दिया है, वो इस गुस्से के परवान चढ़ने का इंतजार कर रहे हैं. जाहिर है उनकी कोशिश बीजेपी के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की है. यूपी जैसे बड़े सूबे में इसकी तादाद 15 से 17 फीसदी के करीब है.
मायावती और लालू-मुलायम के वोट बैंक में सेंध नहीं लगा पाएगी बीजेपी
अब बात करें बीजेपी की तो न मायावती के कोर वोट उसके खाते में आने वाले, न लालू-मुलायम के यादव वोट उसके साथ जाने वाले. हालांकि अपवादों की बात छोड़ दें तो ये वोट तो 2014 में भी बीजेपी के खाते में नहीं आए थे, लेकिन तब बीजेपी ने गैर यादव और गैर जाटव वोटों पर निशाना साधा था. निशाना भी ऐसा कि कैरम की सारी गोटियां बोर्ड पर छितरा जाएं और ‘क्वीन’ अकेली पड़ जाए. पार्टी ने दलित और पिछड़ों का पारंपरिक ब्लॉक तोड़ दिया और इसका उसे फायदा मिला. 2019 में पार्टी के आगे चुनौती इन जातियों को अपने साथ रोके रखने की है. लिहाजा वो संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सक्रिय है. इसमें बहुत से कदम प्रतीकात्मक हैं लेकिन उनका असर दूरगामी है. कम से कम चुनाव से पहले वो दलित और पिछड़ा विरोध के शोर पर पानी डाल देने में कामयाब दिख रही है.
यूं ही नहीं है कि पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाने के साथ ही बीजेपी कहने लगी है कि, आरक्षण का लाभ कुछ 2-4 जातियों तक ही सिमट कर रह गया है. जाहिर है बार-बार ये बात कहे जाने का कुछ तो असर होगा.
लेकिन अगड़े बीजेपी के ‘कमिटेड वोटर’ हैं, क्या इन ‘कमिटेड वोटरों’ के गुस्से का सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ रहा? सरकार अपने समर्थकों के एक बड़े वर्ग को इस तरह नजर अंदाज क्यों कर रही है? क्या 2019 के नए समर्थकों की तलाश में उसे अपने स्थायी समर्थकों की फिक्र नहीं रही? तो फिर अगड़े इसका जवाब किस तरह देंगे?
अयोध्या के करीब एक छोटी सी अड्डेबाजी में इसका जवाब मिलता है. सरकार के इस रुख पर एक लोग बिफरे नजर आए. ‘सरकार ये गलत कर रही है, बीजेपी से ये उम्मीद नहीं थी. ‘क्या गलत कर रही है?’
‘अरे साहब ये दलितों का उत्पीड़न थोड़ी है, ये तो सवर्णों का उत्पीड़न है, भला जांच पड़ताल के बगैर किसी को जेल में डाल देना ठीक है? ऐसे तो कोई भी फंसाने के लिए शिकायत कर देगा…कर क्या देगा कर ही रहे हैं, दर्जनों किस्से हैं साहब, बेकसूर लोग महीनों जेल में सड़ते रहे’
‘लेकिन दलितों का उत्पीड़न भी तो एक सच है न?’. ‘अरे तो इससे इनकार किसको है, लेकिन शिकायत सही है या गलत इसकी जांच कर लेने में दिक्कत क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने यही तो कहा! दहेज विरोधी कानून भी तो नरम हुआ न’
‘तो आप क्या चाहते हैं?’. ‘हम क्या चाहेंगे साहब, अब तो जो सरकार चाह रही है…कर रही है, लेकिन इनसे ये उम्मीद नहीं थी’. ‘खैर छोड़िए, इस बार वोट किसे देंगे?’. ‘देंगे किसको….अभी मोदी से उम्मीद छोड़ी नहीं है…और, यही एक मुद्दा थोड़ी है.’
अगड़ों ने नहीं छोड़ी पीएम मोदी से उम्मीद, गुस्से के बावजूद दे रहे वोट
तो लब्बो-लुआब ये कि अगड़ों ने मोदी से उम्मीद अभी छोड़ी नहीं है, गुस्सा लाख हो और खुल कर सामने आ भी रहा हो, मगर वो मोदी विरोधी वोटों में तब्दील नहीं हो रहा. लेकिन इसकी वजह क्या सिर्फ मोदी से उम्मीद ही है? जी नहीं, इसकी एक वजह विकल्प हीनता भी है. जातियों के समीकरण पर खड़ी भारतीय राजनीति का ये एक कठोर सच है. अगड़े अगर आज बीजेपी से नाराज हो भी जाएं तो वो जाएं कहां? जहां कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है वहां तो फिर भी एक रास्ता है, लेकिन जहां राजनीति बहुकोणीय है, जहां कांग्रेस बीजेपी में समा गई है या खेल में ‘साइलेंट पार्टनर’ भर बची है वहां क्या?
यूपी-बिहार जैसे राजनीतिक रुप से जाग्रत राज्य इसी दर्जे में आते हैं, इन दोनों राज्यों की 120 सीटों का हाल तो कम से कम यही है. हालांकि बीजेपी अगड़ों की मजबूरी और दर्द दोनों समझती है, सियासत में मजबूरी का फायदा उठाया जाता है और जख्मों पर मरहम लगाया जाता है, शर्त ये है कि आखिर में दोनों ही वोटों में ‘ट्रांसलेट’ होने चाहिए, और बीजेपी अंदर खाने ये काम कर रही है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के इस बयान को आप किस तरह देखते हैं, जिसमें वो कहते हैं कि ‘सरकार के पास नौकरियां हैं कहां जो आरक्षण का लाभ दिया जाए?’ जाहिर है अगड़ों के जख्मों पर ये बयान एक मनोवैज्ञानिक मरहम ही तो है.
बहरहाल, मार्के की बात दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय भवन ( बीजेपी मुख्यालय) तक आम दरफ्त रखने वाले एक सियासी पंडित कहते हैं. साहब…अव्वल तो अगड़ों का ये गुस्सा आम चुनाव आते-आते ‘डिफ्यूज़’ हो जाएगा, फिर भी कुछ बच गए तो आखिर में वो हिंदू हो जाएंगे’