नई दिल्ली। बीजेपी के पूर्व संगठन महामंत्री और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संरक्षक के.एन. गोविंदाचार्य ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर दुख व्यक्त करते हुए उनके साथ अपने रिश्तों पर भी खुलकर चर्चा की है. फ़र्स्टपोस्ट के साथ बातचीत में गोविंदाचार्य ने वाजपेयी के साथ रिश्तों को लेकर कहा है,‘पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हमारे लिए एक अभिभावक की तरह थे. वो पहले से राजनीति में थे. मैं 1988 से 2000 तक बीजेपी के साथ रहा. इसलिए वो हमारे लिए अभिभावक थे और मैं उनके लिए लड़के की तरह था.’
गोविंदाचार्य ने अटल जी के साथ अपने रिश्तों को याद करते हुए कहा, ‘वो बाप-बेटे का रिश्ता रखते थे. वो हमको सीखा रहे होते थे. उसी मुद्रा में अटल जी के रिश्ते को मैं देखता हूं. मैं मानता हूं कि कई बार मानवीय रिश्तों में, सांगठनिक रिश्तों में, कभी पूर्वाग्रह, कभी धारणाएं हो जाती हैं. इसलिए, पूरी जीवन यात्रा का कटु-मधु अनुभव याद रहता है.’
गोविंदाचार्य ने अक्टबूर 1997 में अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में पार्टी का मुखौटा शब्द का प्रयोग किया था. उनके बयान के बाद बीजेपी में सियासी बवाल हो गया था. उसके बाद ही धीरे-धीरे पार्टी के भीतर गोविंदाचार्य हाशिए पर चले गए थे.
उस बात को फिर याद करते हुए गोविंदाचार्य कहते हैं, ‘मुखौटा के बारे में भी यही रिश्ता था. 6 अक्टूबर 1997 को भानुप्रताप शुक्ल का सिंडिकेट कॉलम एक साथ कई अखबारों में छपा था. जिसका मैंने खंडन कर दिया था. चार दिन बाद 10 अक्टबूर को अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी थी, जिसमें अंग्रेजी में मुखौटा को मास्क लिखा था.’ उसके बाद गोविंदाचार्य फिर से सफाई देने के लिए तैयार थे. लेकिन, उन्होंने कहा था कि यह तो पुरानी खबर है. इसमें नया क्या है.
गोविंदाचार्य का कहना है, ‘उस वक्त आरएसएस नेता सुदर्शन का उनके पास फोन आया था. उन्होंने कहा कि अटल जी कहते हैं कि उनके पास टेप है. मैंने उनसे कहा कि ये अच्छी बात है. हमें सफाई का मौका मिल जाएगा. अगर मैंने कोई अनादर वाली बात की है तो मैं पद छोड़ दूंगा.’
इसके बाद टेप नहीं मिला. मुझे कहा गया तो मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर 23 अक्टूबर को अपना जवाब दे दिया. फिर जब 30 अक्टूबर को अटल जी से मुलाकात हुई तो उस वक्त ब्रिटिश हाईकमीशन के लोगों ने कहा कि हमलोग टेप नहीं करते हैं. इस के बाद मेरिट बुक मंगा ली गई. लेकिन, वहां भी मुखौटा शब्द नहीं था. दरअसल, गोविंदाचार्य से ब्रिटिश हाईकमीशन के लोगों ने मुलाकात की थी और उसी बातचीत के आधार पर खबर आई थी कि गोविंदाचार्य ने वाजपेयी के लिए मुखौटा शब्द का प्रयोग किया है. जिसके बाद पूरा विवाद शुरू हो गया था.
गोविंदाचार्य कहते हैं कि मैंने उस वक्त अटल जी से कहा, ‘आपकी जगह पर मैं होता तो पहले चेक करता फिर गलती होने पर सूली पर चढा देता. फिर अटल जी ने कहा कि भूल जाओ.’
गोविंदाचार्य कहते हैं, ‘उसके बाद कुशाभाऊ अध्यक्ष बन गए, फिर, मैंने 2000 में पार्टी से छुट्टी ली. मैं मई 2000 में ही ठाकरे को चिट्ठी लिखी थी. उन्होंने कहा कि अभी रुक जाओ. बंगारू लक्ष्मण अध्यक्ष बनने वाले हैं फिर अवकाश पर चले जाना. फिर बंगारू लक्ष्मण के अध्यक्ष बनने के बाद मैंने अवकाश ले लिया. हालांकि मुझे नेशनल एक्जक्युटिव में रखा गया. लेकिन, मैं एक-आध बैठक में भाग लेने के बाद अध्ययन और बाकी कामों में लग गया.’
गोविंदाचार्य अटल जी के निधन के मौके पर कह रहे हैं कि उनसे आखिरी मुलाकात दिसंबर 2003 में हुई थी. उस आखिरी मुलाकात के किस्से को याद करते हुए गोविंदाचार्य कहते हैं, ‘हमारे दोस्त मिथिलेश त्रिपाठी अटल जी से मिलने गए थे. उन्होंने जिक्र किया तो अटल जी ने पूछा था कि क्या कर रहे हैं गोविंदाचार्य तो, उसके बाद अटल जी ने मिलने की इच्छा जताई जिसके बाद मैं मिथिलेश त्रिपाठी के साथ दिसंबर 2003 के पहले हफ्ते में उनसे मिलने गया था. मैंने अटल जी से उस वक्त कहा कि आपने कहा था कि राजनीति कोई छोड़ता नहीं था. लेकिन, मैंने छोड़ दी है. इसके बाद उन्होंने मुझे शुभकामना दी. यही हमारी आखिरी मुलाकात थी.’
गोविंदाचार्य मानते हैं, ‘वाजपेयी का व्यक्तित्व और उनकी राजनीतिक पारी देश के लिए पथप्रदर्शक रही है. आगे के लोगों के लिए इससे रास्ता मिलता है. उनके लिए व्यक्ति से बड़ा दल और दल से ज्यादा बडा देश था. उनका मानना था कि विश्वास से ही विश्वास बढ़ेगा. उनका मानना था कि हर कीमत पर चुनावी जीत जरूरी नहीं है. उनका वसूल रहा है कि राजनीति जनामुखी होना चाहिए न कि सत्तामुखी. 1984 में दो सीटों पर जीतकर आए थे. लेकिन, हौसले से बुलंद रहे. उनके लिए जीत ही सबकुछ नहीं रही.’
वाजपेयी के व्यक्तित्व को याद कर गोविंदाचार्य कहते हैं, ‘मतभेद के बाद भी वातावरण में शिष्टाचार बना रहे. मतभेद जो है मनभेद का रूप ना लें, किसी भी नीयत पर आरोप न लगे. स्वयं के प्रति कठोर, दूसरों के प्रति उदार रहें. यही व्यक्तित्व था उनका.’ रामजन्मभूमि आंदोलन के पहलूओं से वो सहमत नहीं थे. उन्होंने अयोध्या जा रहे कारसेवकों को संबोधित करते हुए कहा था कि अयोध्या जा रहे हैं, लंका नहीं. ध्यान रखना शक्ति प्रदर्शन नहीं, भक्ति प्रदर्शन करने जा रहे हो.