व्यालोक
हां, वह अजातशत्रु नहीं थे. संभव भी नहीं है. अजातशत्रु, मतलब जिसका शत्रु पैदा ही न हुआ हो. हम कह देते हैं, लोगों को. वह अतिशयोक्ति है. अतिरंजना है. अटलजी के शत्रु तो उनके पूरे जीवन रहे, उनकी मौत के बाद भी सामने आए. हां, वह भारतीय राजनीति के आखिरी ऐसे पुरुष जरूर रहे, जो सार्वजनीन थे, दलगत भेद के परे थे, संसद में जिनके बोलने पर नेता जिनको सुनते थे—चाहे वे राजद या समाजवादी पार्टी के उत्श्रंखल प्रतिनिधि ही क्यों न हों?
अटल जी के साथ भारतीय राजनीति में आखिरी जो गरिमा, प्रतिष्ठा और बड़प्पन का कतरा था, वह भी गया. क्योंकि आज संसदीय प्रतिष्ठा और मान जिस तरह धूमिल हुई है, उसमें लगता है कि अटलजी वह अंतिम दीपक थे, जो अपनी रोशनी देकर बुझ गए. संसदीय राजनीति के ह्रास-काल में वह समय याद आना बिल्कुल स्वाभाविक है, जब वाजपेयी जी अपनी राजनीति के उरूज पर थे और कम से कम संसद चलती थी, सांसद एक-दूसरे को बर्दाश्त करते थे, प्रधानमंत्री कुछ बोलते थे, तो लोग ध्यान देते थे.
1957 में जनसंघ के चार चुने सांसदों में से एक वाजपेयी जी का 1996 में भाजपा के प्रधानमंत्री बनने तक का सफर बहुत रोचक रहा है. अटलजी को अजातशत्रु कहनेवाले भी वही गलती करते हैं, जो उनकी चादर को पूर्णतः बेदाग बताने वाले करते हैं. बलराज मधोक या उनके समर्थकों से पूछिएगा तो वे अटलजी के बारे में बिल्कुल ही दूसरे तरह के ख्यालात व्यक्त करेंगे. विहिप या संघवालों या गोविंदाचार्य से पूछिएगा, तो वह भी अलग ख्याल ही व्यक्त करेंगे.
अटलजी राजनेता थे और राजनीति में उनका सफर भी कई के कंधों पर हुआ होगा, कुछ के हाथ उनके पैरों तले भी कुचले गए होंगे, कुछ के विचारों से उनका भी द्वंद्व हुआ होगा, कई की राजनीति को उन्होंने भी काटा-छांटा होगा. मज़े की बात यह है कि अटलजी को अजातशत्रु कहनेवाले लोग यह तक नहीं देख पा रहे कि उनके शत्रु उनकी मौत के बाद भी उनको गाली देने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं.
अटलजी के प्रधानमंत्रित्व काल में देश ने नयी ऊंचाइयां छुईं तो नयी गहराइयां भी नापीं. एक तरफ पोखऱण का शौर्य था, तो दूसरी ओर कंधार विमान-अपहरण की कालिमा भी. स्वर्णिम चतुर्भुज और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना थी, तो कारगिल का दंश और लाहौर का अपमान भी था. कश्मीर पर छह महीने तक सेनाओं का जमावड़ा भी निरर्थक साबित हुआ औऱ कारगिल की जंग भी. यह सब कुछ होते हुए अटलजी में ऐसा क्या करिश्म था कि लोगो उन्हें अजातशुत्र कह रहे हैं?
वह करिश्मा था, भारतीयता का, सनातन होने का, हिंदू होने का—हिंदू तनमन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू, मेरा परिचय. अटलजी विरोधों का सामंजस्य थे. संघ के कठोर मार्ग के व्रती थे, पर खाने-पीने के शौकीन भी. संघ के अधिकांश कार्यक्रमों में उनकी धोती-कुरते वाली छवि ही दिखती है, हाफपैंट वाली नहीं. वह सोनिया गांधी से जितनी सहजता से बात कर लेते थे, उतने ही सहज लालू यादव से भी थे, शशि थरूर से भी होंगे. ऑक्सफोर्ड की स्नॉबरी हो या हिंदी पट्टी का उजड्डपन, वह सबसे एकसाथ, एकरस मिलते थे.
अटलजी एक ऊंचाई पर दिखते तो थे, लेकिन सहज प्राप्य भी थे. वह राजधर्म सिखा सकते थे, तो 24 दलों के गठबंधन को भी नाथ सकते थे. यदि यह लेखक किसी अन्य नेता से उनकी तुलना कर पाता है, तो वह सहज-स्वाभाविक तौर पर नेहरू हैं. दोनों ही स्वप्नदर्शी थे, साहित्य के अनुरागी थे, व्यक्तिगत जीवन में एक विधुर और एक अविवाहित थे, दोनों ही के व्यक्तिगत जीवन प्रश्नांतिक भी हैं. पाकिस्तान को सुधारने या साधने के क्रम में दोनों ने ही ऐतिहासिक भूलें या गलतियां कीं, दोनों ही समान धारा में लोकप्रिय थे, दोनों ही अजातशत्रु नहीं थे. मुसलमानों को लेकर भी दोनों का ही रवैया कई दफा तुष्टिकरण का हो जाता था, यही वजह है कि दोनों ही ने अतिवादियों की गालियां खायी हैं.
दरअसल, राजनीति की यही दिक्कत है. यहां पॉपुलिस्ट होना ठीक है, यूटोपियन नहीं. शायद, यही वजह थी कि अटलजी का शाइनिंग इंडिया हार जाता है और मनमोहन जी का मौन 2004 मे बली हो जाता है. अटलजी राजनीति की रपटीली राहों पर फिसले नहीं, यह कहना भारत-रत्न के साथ अन्याय होगा, लेकिन फिसले मात्र, वह गिरे नहीं. यह भी उतना ही सच है.
भारतीय परंपरा में मृत्यु के बाद तो शत्रु को भी माफ करने की परंपरा है, फिर कवि-हृदय राजनेता अटलबिहारी वाजपेयी को गालियां देनेवाले कोई भी हों, भारतीय तो नहीं ही होंगे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)