नई दिल्ली। पाकिस्तान में हालिया चुनाव के बाद सत्ता में इमरान खान जरूर आए हैं, लेकिन उनको डीप स्टेट यानी इस्टेब्लिशमेंट कही जाने वाली सेना का नुमाइंदा कहा जा रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि चुनाव के दौरान इस बात की चर्चा रही कि इमरान खान को जिताने के लिए माहौल तैयार किया जा रहा है. इसमें सेना के साथ ज्यूडिशियरी का एक तबका भी शामिल माना जाता रहा है. यह भी कहा जाता है कि पाकिस्तान में बिना सेना की इच्छा के कोई पत्ता नहीं खड़कता और सत्ता में वही आ सकता है जिसको सेना का संरक्षण मिलता है.
इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि आज तक पाकिस्तान के अधिकांश प्रधानमंत्रियों का अंत निवार्सन, जेल, फांसी के रूप में ही हुआ है. यानी सेना खुद को चुनौती देने वाली किसी अन्य की सत्ता को बर्दाश्त नहीं कर पाती. इस कारण जिस भी हुक्मरान ने सेना को बैरक में भेजने की कोशिश की है, उसका हश्र इन तीन में से किसी एक चीज में हुआ है. हालिया उदाहरण नवाज शरीफ का है जो फिलहाल जेल में कैद हैं और उन पर ताउम्र चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई है. पाकिस्तान में एक आम धारणा है कि वहां सेना ने एक ऐसी अमूर्त सत्ता का रूप अख्तियार कर लिया है जो कमोबेश सभी संस्थाओं में प्रवेश कर गई है. आखिर ऐसा कैसे हुआ कि सेना वहां जीवन के सभी क्षेत्रों में हावी हो गई है?
हावी होने की वजह
कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान की जिद के चलते ही वहां की सेना को संस्थागत सर्वोच्चता हासिल हुई है. यह दावा भारत की शीर्ष खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व विशेष सचिव ज्योति के सिन्हा ने इंडियन डिफेंस रिव्यू (आईडीआर) में लिखे एक आर्टिकल में किया है. उनका कारण है कि कश्मीर के कारण ही वहां कई आतंकी संगठन अस्तित्व में आए. नतीजतन पाकिस्तान के लोकतांत्रिक संस्थान पनप नहीं सके. सिन्हा ने लिखा, ”दरअसल पाकिस्तान के उदय होने के कुछ समय बाद ही मोहम्मद अली जिन्ना का इंतकाल हो गया और दूसरे दिग्गज नेता प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या हो गई. वास्तव में पाकिस्तान आंदोलन के ये दिग्गज ही देश को लोकतांत्रिक दिशा दे सकते थे. यह वह दौर था जब कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान के लिए भावना के स्तर पर जुड़ा हुआ था. इस मुद्दे का हल निकालने के लिए पाकिस्तान सेना रहनुमा बनकर केंद्रीय भूमिका में उभरी. बाद में सेना की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए मिशन कश्मीर का मुद्दा केंद्रीय विमर्श का विषय बन गया.”
सिन्हा ने यह भी लिखा है, ”इस कारण कश्मीर को भारत से हासिल करने के लिए पाकिस्तान के डीप स्टेट ने छद्म युद्ध शुरू किया. आतंकी संगठनों का गठन किया गया. जिहादा विचारधारा को पनपने का मौका दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि यह विचारधारा दुनिया के अन्य क्षेत्रों में फैली और उसके भयानक परिणाम निकले. सेना में पंजाबी मुस्लिमों का दबदबा और कश्मीर को राष्ट्रीय स्तर पर भावना का मुद्दा पाकिस्तान में लोकतंत्र की राह में रोड़ा है.”
इसके साथ ही सिन्हा ने लिखा, ”पाकिस्तान की सेना में पंजाबी मुस्लिमों का दबदबा है, जबकि अन्य समुदायों की उपस्थिति नगण्य है. कोई बलूची या सिंधी जनरल दिखाई नहीं देता. पख्तून आर्मी ऑफिसर भी नाममात्र को ही मिलेंगे.”
1971 का वह किस्सा
इस संबंध में सिन्हा ने एक किस्से के बारे में लिखा, ”1971 के युद्ध के बाद पाक सेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हबीबुल्ला खान, पटना के दानापुर कैंटोमेंट में बिहार रेजीमेंटल सेंटर आए. दरअसल आजादी के पहले बिहार रेजीमेंट के युवा अधिकारी के तौर पर ही उन्होंने युवा आर्मी अफसर के रूप में करियर शुरू किया था. इसी कारण इस रेजीमेंट के गोल्डन जुबली समारोह में उनको सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. वहां उनकी मुलाकात रॉयल इंडियन मिलिट्री कॉलेज (देहरादून) के अपने एक बेचमैट से हुई. उनसे कुछ कड़वाहट के साथ हबीबुल्ला ने कहा था कि वह पाकिस्तानी सेना में शानदार रिकॉर्ड के बावजूद आर्मी चीफ महज इसलिए नहीं बन सके क्योंकि वह पख्तून हैं.” इन सब वजहों के कारण ही पंजाबी मुस्लिम विरोधी भावनाएं ही पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवाद के रूप में उभरीं. उसका नतीजा बांग्लादेश के उदय के रूप में हुआ.
इतिहास खुद को दोहरा रहा है और पाकिस्तान ने अपनी गलतियों से सबक नहीं सीखा है. पाकिस्तान के 50 फीसद भू-भाग और पांच प्रतिशत आबादी वाले बलूचिस्तान को संसाधनों और सत्ता से वंचित रखा जा रहा है. इसी तरह पख्तून 25 प्रतिशत और सिंधी 14 फीसद आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन पंजाबी मुस्लिमों के दबदबे वाली सेना और सत्ता में उनके लिए स्थान नहीं हैं. इन अंतविर्रोधों के साथ पाकिस्तान एक खतरनाक डगर पर चल रहा है.