लखनऊ। सहारनपुर शहर से जरा आगे बढ़ते ही एक उनींदा सा कस्बा है- छुटमलपुर. भीड़-भड़क्के और बेतरतीब खड़े ठेलों और खोमचों वाले इस कस्बे की मुख्य सड़क से एक गली मुड़ती है जो हरिजन बस्ती में जाती है. इसी बस्ती की गली नंबर दो में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण का घर है. घर के गेट पर मोटे अक्षरों में लिखा है- भीम आर्मी. हरिजन बस्ती की यह गली बिल्कुल शांत है. इसमें वैसी कोई हलचल नहीं दिखती कि मायावती जैसी कद्दावर राजनेता को भीम आर्मी के खिलाफ बयान देना पड़े.
चंद्रशेखर रावण का घर कस्बाई और ग्रामीण परिवेश का मिला-जुला रूप लिए हुए है. रहन-सहन शहरी तौर-तरीके का ही है, लेकिन एक कोने में मिट्टी का चूल्हा और खेतीबाड़ी का सामान भी रखा हुआ है. यह स्वाभाविक रूप से अपनी जगह पर है या इनका कोई प्रतीकात्मक महत्व है, यह कहना मुश्किल है.चंद्रशेखर के परिवार का कोई सदस्य मीडिया से बात करने को लेकर बहुत उत्सुक नहीं दिखता. स्थानीय मीडिया से वे अपनी नाराजगी साफ जाहिर करते हैं.
चंद्रशेखर रावण के बड़े भाई भगत से बात शुरू होती है. बात प्रशासन के दबाव-उत्पीड़न की चल निकलती है. भगत कहते हैं, ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस. यह सरकार गूंगी-बहरी दोनों है.’ भगत सहारनपुर के शब्बीरपुर इलाके में पिछले साल हुई हिंसा से लेकर चंद्रशेखर पर लगातार रासुका की अवधि बढ़ाए जाने का जिक्र करते हैं. वे शब्बीरपुर हिंसा की कुछ तस्वीरें भी दिखाते हैं. उनका आरोप है कि पुलिस-प्रशासन ने उस दिन राजपूत पक्ष का खुलकर साथ दिया और अभी भी यह सिलसिला जारी है.
बातचीत की इस भूमिका के बाद सवाल आता है, भीम आर्मी और बसपा का. भीम आर्मी भी दलित हित में काम कर रही है और बहुजन समाज पार्टी भी दलितों के उत्थान की राजनीति का दावा करती है. फिर बसपा सुप्रीमो मायावती ने हाल ही में भीम आर्मी को भाजपा और आरएसएस का मददगार क्यों कहा? भगत इस सवाल का पहले तो बड़ा अजीबोगरीब जवाब देते हैं. वे कहते हैं, ‘बहनजी तो बहनजी हैं. बड़ी बहन अगर कोई बात कहे तो हमें उसका बुरा नहीं मानना चाहिए.’ लेकिन बगल में बैठी उनकी मां की तल्खी साफ नजर आती है. वे बोल पड़ती हैं, ‘अगर उन्होंने (मायावती) ठीक से काम किया होता तो ये नौबत नहीं आती. वो न कल हमारी थीं और न आज हमारी हैं.’
इसके बाद भगत भी कहते हैं कि मायावती ने नुकसान तो किया है. वे अागे कहते हैं, ‘अगर मेरा अामना-सामना कभी बहनजी से हो जाए तो मैं उनसे पूछूंगा कि आप पैसे लेकर जिन विधायकों को चुनाव लड़वाती हो, हमने उनके लिए अपना समय, पैसा बरबाद करके मेहनत की. कभी किसी से एक पैसा नहीं लिया. उसके बाद भी आप हमारे लिए इतना गंदा बोलकर गईं.’ 2017 में शब्बीरपुर हिंसा मेें जब भीम आर्मी पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आई थी तो भी मायावती ने उसे भाजपा का प्रोडक्ट कहा था.
तो फिर अगले चुनाव में अापकी क्या रणनीति होगी? इस पर भगत का जवाब होता है, ‘हम अराजनीतिक संगठन हैं और अपना काम कर रहे हैं. हम समाज के लिए काम करते हैं. बाकी जिसकी जहां वोट देने की इच्छा हो वह वहां वोट दे.’
चंद्रशेखर रावण के सबसे छोटे भाई कमल किशोर ज्यादा मुखर हैं. संगठन के अराजनीतिक होने की बात वे भी दुहराते हैं, लेकिन मायावती की भीम अार्मी पर टिप्पणियों पर उनका लहजा अधिक सख्त है. वे कहते हैं, ‘बसपा हो या कोई अन्य राजनीतिक दल. सभी भीम अार्मी की ताकत से बौखलाए हैं क्योंकि हम अपने समाज की लड़ाई लड़ रहे हैं और वो करके दिखा रहे हैं जो अाज तक राजनीतिक दलों ने नहीं किया. समाज के लोगों का हम पर भरोसा बसपा या किसी भी पार्टी से ज्यादा है.’
चंद्रशेखर रावण के परिवार से जुड़े लोग भीम आर्मी के अराजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन होने की बात बार-बार दोहराते हैं. लेकिन भीम आर्मी लगातार सक्रियता से अपनी एक राजनीतिक हैसियत बना रही है, इसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल भी मानते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भाजपा के एक पदाधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘कैराना उप चुनाव में हमारे हारने की बड़ी वजह भीम अार्मी रही. सहारनपुर में भीम आर्मी का अच्छा प्रभाव है और वहां की दोनों विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा खासे अंतर से पिछड़ी.’
भीम आर्मी की राजनीतिक संभावना ही है कि पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सहारनपुर जेल में बंद चंद्रशेखर रावण से मुलाकात की घोषणा की थी. हालांकि बाद में यह कार्यक्रम टल गया, लेकिन जब हम सहारनपुर में थे तो पुलिस-प्रशासन पूरी तरह इसी कोशिश में जुटा था कि केजरीवाल और चंद्रशेखर की मुलाकात तो दूर, वे सहारनपुर की सीमा में भी प्रवेश न कर सकें . बातचीत में कई अधिकारियों ने माना कि इसके लिए बाकायदा लखनऊ से निर्देश आए थे कि केजरीवाल इस मुलाकात का कोई भी राजनीतिक फायदा न उठा पाएं.
शुरु में इस बात की आशंका थी कि शब्बीरपुर हिंसा के बाद एकाएक चर्चित हुए चंद्रशेखर रावण जल्द ही गुमनाम हो जाएंगे. लेकिन योगी सरकार ने जिस तरह चंद्रशेखर पर शिकंजा कसा औऱ उन पर रासुका तामील किया, उसने चंद्रशेखर की लोकप्रियता और बढ़ा दी. करीब एक साल से चंद्रशेखर जेल में हैं और उनकी पेशी पर अाने वाली भीड़ और उनकी रिहाई के लिए होने वाले प्रदर्शन इस बात का सबूत हैं कि नौजवान और शहरी निम्न मध्यवर्गीय दलितों के एक वर्ग के लिए वे संघर्ष का प्रतीक बन गए हैं.
इसके अलावा भीम आर्मी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में तेजी लाकर इस बात को सुनिश्चित भी कर रही है कि कहीं संगठन का नाम लोगों के दिमाग से ओझल न हो जाए. भीम आर्मी का दावा है कि वह सिर्फ सहारनपुर जिले में ही 246 भीम पाठशालायें चलाती है. भीम पाठशालायें एक तरह के ट्यूटोरियल हैं जहां दलित समाज के पढ़े-लिखे लोग बच्चों को पढ़ाते हैं. संगठन द्वारा समय-समय पर ब्लड डोनेशन कैंप भी आयोजित किए जाते हैं. अभी हाल ही में संगठन ने सहारनपुर के कस्बे रामपुर-मनिहारन में एक सामूहिक विवाह कार्यक्रम भी आयोजित करवाया.
लेकिन इन सांस्कृतिक गतिविधियों का एक राजनीतिक पक्ष भी है, भले ही अभी चुनावी राजनीति में उसकी भूमिका बहुत साफ न दिखती हो. अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के स्थानीय अखबारों को खंगाले तो हर कस्बे में चंद्रशेखर रावण की रिहाई के लिए हो रहे छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शनों की खबरें नियमित रूप से दिखती हैं.
सहारनपुर के वरिष्ठ पत्रकार अवनींद्र कमल कहते हैं, ‘भीम आर्मी का संगठन दो मोर्चों पर काम कर रहा है. एक तो सहारनपुर समेत वेस्ट यूपी में लगातार सामाजिक गतिविधियां,विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं और दूसरे दिल्ली में दलित संगठनों की उस वैचारिकी से भीम अार्मी को जोड़ा जा रहा है जिसका नेतृत्व फिलहाल जेएनयू से निकले एक्टिविस्ट कर रहे हैं. साल दो साल के समय में जमीन पर लोगों को जोड़ने और राष्ट्रीय सुर्खियों में रहने की यह रणनीति काफी हद तक कारगर कही जा सकती है.’
कांशीराम और मायावती दोनों सहारनपुर से चुनाव लड़ चुके हैं. दलितों की अच्छी खासी तादाद के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश एक समय बसपा का गढ़ माना जाता रहा है. अवनींद्र के मुताबिक यही वजह है कि भीम आर्मी से दलितों का जुड़ाव बसपा में घबराहट पैदा कर रहा है. चूंकि भीम आर्मी से जुड़ा मौजूदा नेतृत्व शिक्षित और राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी भी है, इसलिए बसपा उसे अपने पारंपरिक तरीके से साध भी नहीं पा रही है. इसी के चलते बसपा की ओर से लगातार ऐसे बयान आ रहे हैं जो भीम आर्मी और चंद्रशेखर की साख को कमजोर करने वाले हैं.
अभी 19 अगस्त को भीम आर्मी ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया, जिसमें चंद्रशेखर रावण की रिहाई के साथ दलित उत्पीड़न के भी मुद्दे उठाए गए. इस प्रदर्शन में गौतमबुद्धनगर, दादरी स्थित मायावती के गांव बादलपुर के उन लोगों को सम्मानित किया गया जो एसी-एसटी एक्ट को कमजोर करने के विरोध में हुए दो अप्रैल के अांदोलन में जेल गए थे. जो जंतर-मंतर नहीं पहुंच पाए थे, उन्हें गांव जाकर संविधान की प्रति और भीम अार्मी की शील्ड दी गई. सोशल मीडिया पर बाकायदा इसकी तस्वीरें शेयर की गईं. भीम आर्मी की गतिवधियां मायावती के गांव तक पहुंच जाना उन्हें चिंतित जरूर करेगा. यह चिंता एेसे समय में और बढ़ जाती है जब बसपा का संगठन जमीन पर कुछ खास करता नहीं दिख रहा है और भीम आर्मी लगातार सक्रिय है.
बसपा की चिंता पश्चिमी उत्तर प्रदेश से इतर भी है. अभी मध्य उत्तर प्रदेश के जिले औरेया के कई दलित बहुल गांवों में ‘द ग्रेट चमार’ के बोर्ड लगने की खबरें आईं थीं. यह बोर्ड पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के घड़कौली गांव के बोर्ड की तर्ज पर लगाए गए थे. दलितों और राजपूत गुटों के बीच होने वाली छात्र राजनीति कर रहे चंद्रशेखर घड़कौली गांव में इसी तरह के बोर्ड लगाने के बाद ही एक दलित कार्यकर्ता के तौर पर चर्चित हुए थे. कासगंज और औरेया में शुरु हुई भीम आर्मी की गतिविधियां पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में भी फैल रही हैं. भले ही वहां अभी इसका प्रभाव सहारनपुर और बिजनौर जैसा न हो, लेकिन यह बसपा के लिए चिंता का सबब जरूर है.
इसके अलावा दिल्ली में संसद मार्ग और जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में पंजाब और हरियाणा से खासी तादाद में लोगों का जुटना भी बताता है कि दलित अब अपने मौजूदा नेतृत्व से कुछ ज्यादा चाहता है. दलित आंदोलन के गढ़ रहे महाराष्ट्र में भी भीम आर्मी का गठन हुआ है और उसके कार्यकर्ता सहारनपुर आकर बैठक करते हैं. भीम आर्मी बिहार जैसे फेसबुक बन चुके हैं. ये अभी वहां बहुत असरदार भले ही न हों, लेकिन भीम आर्मी को मिल रही अखिल भारतीय पहचान के बारे में जरूर बताते हैं. भीम आर्मी के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘बसपा अंबेडकर और कांशीराम की राजनीति से बहुत हट चुकी है. आप हमारे काम की तुलना कांशीराम के जमाने के बामसेफ से कर सकते हैं.’ जाहिर है यह सब बातें बसपा को परेशान करने वाली ही हैं.
चंद्रशेखर रावण क्या जेल से छूटने के बाद राजनीति में अाएंगे? इस सवाल पर उनके भाई भगत और कमल किशोर साफ मना करते हैं. लेकिन उनकी मनाही में एक राजनीतिक सतर्कता झलकती है. लेकिन जब हम उनकी मां से सवाल करते हैं कि क्या चंद्रशेखर जेल से छूटने के बाद राजनीति में आएंगे तो वे कहती हैं, ‘इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती. उसने मुझसे पहले ही कह दिया है कि मैंने खुद को समाज को सौंप दिया है. समाज के हित में उसे जो ठीक लगेगा वह करेगा.’
फिलहाल ताजा खबर यह है कि भीम आर्मी ने बसपा का समर्थन करने का ऐलान किया है. उसका बयान आया है कि वह सीधे तौर पर राजनीति नहीं करेगी, लेकिन मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए काम करेगी. बसपा या मायावती की तरफ से इस पर अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. कुल मिलाकर चंद्रशेखर रावण और भीम आर्मी ने सियासत में एक तरंग तो उठा ही दी है. देखना यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में यह तरंग कुछ असर करती है या तट से टकराकर भर रह जाती है.