राम, रामायण और रामचरितमानस ने परनारी पर कुदृष्टि को बताया है सबसे बड़े पापों में एक
‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों की अनदेखी कर उनके मात्र मंदिर को लेकर इतना मंथन क्यों?
राहुल कुमार गुप्त
मानव शरीर का हेड या सुप्रीम हिस्सा उसका मष्तिष्क ही होता है, अगर वह अनियमित हुआ तो उस मानव का मानवीय जीवन का अस्तित्व ही खतरे में आ जाता है। अगर मष्तिष्क स्वस्थ और नियमित है तो शरीर में स्वस्थता और सकारात्मक ऊर्जा का संचार बना रहता है। यदि मष्तिष्क भी ऊहापोह की स्थिति में रहे तो शरीर की कोई भी जैविक क्रियायें सही से सम्पन्न न हो पायें। ऐसी स्थिति में उस मानव के क्या हाल होंगे वो विकारों और विकृत उत्परिवर्तन का शिकार हो जायेगा और यह विकृता उपार्जित न होकर अधिकांशतः वंशागत ही हो जाती है। हो सकता है वह अभी मानव सा दिख रहा हो लेकिन उसके जीन इन प्रभावों के कारण विकृत हो चुके होते हैं जिससे अगली पीढ़ी विकृतता का शिकार हो और यह भी संभव है कि वह मानव सा दिख सकता है किंतु उसका सामान्य होना बहुत ही कम संभव है।
यहां मानव का तात्पर्य देश से और मष्तिष्क का, कानून बनाने और नियंत्रण करने वाली संस्थाओं से है। जिस तरह वास्तविक मानव की पहचान उसके मानवीय गुणों से है उसी प्रकार हर देश की वास्तविक पहचान उसकी सभ्यता और संस्कृति से है। एक नामचीन लेखक व पुरातत्वविद वासुदेव शरण अग्रवाल जी ने राष्ट्र के स्वरूप के लिये तीन आवश्यक अंग बताये थे भूमि, जन और संस्कृति। संस्कृति और सभ्यता को हर भारतीय महापुरुषों ने भारत के प्राण के लिये प्राणवायु माना है। किसी देश की भौगोलिक पहचान से अधिक महत्वपूर्ण वहाँ की संस्कृति और सभ्यता ही है। यह संस्कृति ही अधिकांश देशवासियों में निरंतर ऑक्सीजन की तरह प्रवाहित होती रहती है। बिना अपनी संस्कृति और सभ्यता के वह राष्ट्र विकारों से परिपूर्ण हो जाता है। भारत के स्वाभिमान और संसार में उसके रूप की ख्याति इसकी संस्कृति और सभ्यता के कारण ही है। अध्यात्म प्रधान सर्वधर्मों के इस देश में राम जैसे आदर्श जहाँ सुसभ्य समाज के जड़ थे, उस पर मट्ठा डालने का कार्य लार्ड मैकाले के काल से निरंतर किया जा रहा है लेकिन उस वक्त तमाम महापुरुषों ने इसी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखने के लिये खुद आत्म संयमित होकर आत्म संयम और मानवता का पाठ पढ़ाया। और इसी संस्कृति को जीवित रखने के लिये खुद की भौतिक सुख-सुविधाओं की तिलाञंजलि दी।
किन्तु आज देश के चहुँओर जंगली संस्कृति से भी भयावह विकृत मानसिकतायें वाली घटनाएं भरी पड़ी हैं। वजह यही है हम अपनी आत्मसंयम वाली अध्यात्म संस्कृति को ‘आजादी’ को गलत तरीके से परिभाषित कर ऐसे देशों की संस्कृति का अनुगामी बना रहे हैं जो बेमेल हो जा रही हैं। वही संस्कृति उन देशों के लिये ऑक्सीजन की तरह हैं जहाँ यह सैकड़ों वर्षों से परम्पराओं के रूप में विद्यमान हैं। हमारे देश की संस्कृति को मैकाले के वक्त से आज तक पाश्चात्य संस्कृति का अनुगामी बनाने का कुटिल प्रयास लगातार विविध विविध रूपों में निरंतर जारी है। पहले हम व्यक्ति के रूप में गुलाम थे किंतु इस गुलामी से भारतीय संस्कृति को कोई आघात नहीं पहुँचा बल्कि तत्कालीन भारतीय समाज में जो रूढ़ियां थीं वो अवश्य समाप्त हूईं। और आज हम वैचारिक रूप से गुलाम हैं। कौन बड़ा-कौन छोटा! व्यक्ति या संस्था यहाँ सब वैचारिक गुलाम से हो चुके हैं।
भोगवादी संस्कृति, आत्मसंयमित और अध्यात्म संस्कृति पर हावी होती जा रही है। भोगवादी संस्कृति को मानवधिकार की ढाल लेकर वैधानिक रूप से अमलीजामा पहनाने का कार्य हमारे देश की सर्वोच्च संस्थायें कर रही हैं।
संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष देश है किंतु संविधान की यह मूलभावना अल्पसंख्यकों की धर्म व संस्कृति की रक्षा सदैव करती है। तीन तलाक को छोड़कर शायद ही अन्य और किसी मामले में किसी सर्वोच्च संस्था ने दखल किया हो। लेकिन कई निर्णय व कानून संविधानांतर्गत हिंदू संस्कृति व सभ्यता के साथ विरोधाभास पैदा करते हैं। अभी हाल ही में एक बड़ी अदालत ने कहा 16 साल की मुस्लिम लड़की शादी कर सकती है। उसे बाल विवाह के अंतर्गत नहीं रख सकते। किंतु हिंदुओं में ऐसा नहीं है। जबकि हिंदुओं के आदर्श रहे अवतारों के बाल विवाह का वर्णन सर्वविदित है।
मुस्लिम चार विवाह कर सकते हैं किंतु हिंदू एक ही कर सकता है जबकि हिंदू के आदर्शों में राम के अलावा अधिक्तर बहुपत्नी प्रथा के मानने वाले थे। जब कोर्ट में पवित्र ग्रंथ गीता की कसमें खिलायी जाती हैं तो गीता के उपदेश देने वाले भगवान श्री कृष्ण हमारे आदर्श हो सकते हैं बहुपत्नी प्रथा का अनुपालन जब सब कर रहे थे तब अन्य हिंदू क्यों नहीं? ऐसे कई सवाल हैं संविधान में जिन्हें हिन्दुओं पर लाद दिया गया, लेकिन अल्पसंख्यकों को उनके धर्म के अनुसार सहूलियत दे दी गयी। तब भी सब सर्वोच्च संस्थाओं पर विश्वास करते रहे। हिंदुओं में जब शादी सात जन्म का संबंध है और यह नियम कोर्ट तलाक संबंधी केस में सख्ती से बताती है। और यह सख्ती केवल हिंदू संस्कृति को लेकर है। आप अपनी सुविधानुसार कहीं संस्कृति के पक्षधर हैं और कहीं उसके विनाश की वजह बन रहे हैं। हिंदुओं के अलावा मुस्लिमों में भी परनारि पर कुदृष्टि ही जब महापाप की श्रेणी में रखा गया तब ऐसे देश में पराई नारी के साथ संभोग भी जायज कर दिया गया। धारा 497 का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समाप्त कर देना हो सकता है आज कि बाजारवादी और भोगवादी संस्कृति के हिसाब से अनुकूल हो किंतु भारतीय संस्कृति के हिसाब से यह कतई अनुकूल नहीं है। हाँ! मेट्रो सिटीज में कानून लागू होने के पहले ही यह प्रचलन में हो गया था किंतु भारत आज भी गाँवों में बसता है।
अधिकांश जनता आज भी गाँवों में ही बसती है जहाँ संस्कृति सभ्यता मान मर्यादा सब वैसे के वैसे ही है पूर्ववत, परम्परागत। यहाँ के लिये धारा 497 खत्म होना विकृतियों को त्वरित रूप से उत्पन्न करेगा। बढ़ते बाल अपराध और मासूमों से के साथ घिनौने वारदात यह विकृति,भोगवादी और बाजारीकरण संस्कृतियों के खिचड़ी मेल का ही नतीजा है। देखने में आता है कि जब से मोबाइल और नेट का प्रचलन तेज हुआ है बाल अपराध और रेप के वारदात बढ़े हैं। तब भी इनके महत्वपूर्ण कारक (नेट पर परोसे जाने वाले उन अश्लील साहित्यों और रंगीन फिल्मों) पर भी लगाम नहीं लगा सकते वजह आजादी। यह कौन सी आजादी है जो मानव को पशुओं से भी बदतर बना रही है। मानव समाज में ऐसे भयावह उदाहरण एक दो दिन के अंतराल में देखने व पढ़ने को मिल ही जाते हैं। मानव इसलिये मानव है कि वह आत्मसंयमित हो सकता है। आत्मसंयम ही मानव को मानवीय गुणों का वर प्रदान करता है। आत्मसंयम के बिना मानव और पशु में कोई खास अंतर नहीं है।
समय के अनुसार बदलाव जरूरी है। पर यह बदलाव भारत की खाटी संस्कृति को अगर प्रभावित करते हैं तो स्वाभाविकतः भारत के स्वरूप को भी प्रभावित करेंगे। कुछ लोगों के मन की विकृतियों (समलैंगिक, धारा 377 और व्यभिचार, धारा 497 ) के खातिर मानवाधिकार की ढाल लेकर पूरे राष्ट्र की संस्कृति से कुठाराघात कहाँ तक सही है??
कालानुसार सांविधानिक कुर्सी पर बैठे योग्य व्यक्तियों की राय भी अलग-अलग रही अभी तक इन मामलों को अन्य योग्य विद्वानों द्वारा गलत बताया गया और अंततः हाल ही में समलैंगिकता और व्यभिचार अब अपराध नहीं रह गये। अगर हिंदू संस्कृति या भारतीय संस्कृति को इससे खतरा नहीं है तो हो सकता है उन कुछ विकृत विचारों वाले मनुष्यों के साथ न्याय हुआ हो। भारतीय समाज में रामायण के आदर्शों का एक अपना महत्व है। वाल्मीकि जी ने राजा के कर्तव्यों में यह भी बताया कि अपनी संस्कृति की रक्षा व प्रसार भी महत्वपूर्ण कर्तव्य है। किंतु यहाँ हम अपनी संस्कृति को गौण कर दूसरों की संस्कृति को अपनाने को लालायित हैं। स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार “अनेक व्यक्तियों का समूह समिष्ट कहलाता है और अकेला व्यक्ति उसका एक भाग है। आप और हम अकेले व्यष्टि हैं, समाज एक समष्टि है। सामाजिक प्रगति तभी संभव है जब उसके घटक कुछ बलिदान करें क्योंकि त्याग अथवा बलिदान किये बिना समष्टि के कल्याण की कामना व्यर्थ है। शुभ कर्म करके ही व्यक्ति अपना और समाज का कल्याण कर सकता है। सुकर्म प्रगति की ओर ले जाने वाला है, कुकर्म प्रगति का विनाशक है- हमें अधोगति की ओर ढकेलता है। व्यक्ति केवल अपने लिये नहीं जीता बल्कि दूसरों के लिये भी जीता है और इसी में उसकी मनुष्यता छिपी है। समाज विभिन्न व्यक्तियों का समूह है जिसके विकास के लिये व्यक्तियों द्वारा आत्म-त्याग अनिवार्य है। मानवीय संबंधों का अंतिम लक्ष्य और परिणाम सामूहिक सुख होना चाहिये, निरा व्यक्तिगत सुख नहीं।”
आज विवेकानन्द जी का वह विश्वास भी घिसती हुई रस्सी की भाँति हो जायेगा क्योंकि जब हम भोगवाद में लिप्त हो जायेंगे तब अध्यात्म और भारतीय संस्कृति स्वतः समाप्त हो जायेगी। महिला क्या समाज का अंग नहीं है? समाज के जो भी अंग हैं, सबको समाज के हिसाब से सोचना चाहिये, नहीं तो जंगली समाज व मानव समाज में फर्क ही क्या रह जायेगा? हमारे सबसे पुराने धार्मिक ग्रंथ ऋग्वेद के अनुसार 7/21/5—- दुराचारी व्यक्ति कभी भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर सकता। चीन, जापान, ब्राजील और अन्य देशों के आदर्श भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम नहीं हैं। जबकि भारतीय समाज के लिये राम एक बड़ा और भावनात्मक नाम है। सत्तासीन दल राम मंदिर के लिये तो प्रयत्नशील रहता है भले दिखावे का ही सही। किंतु अब उस राम मंदिर का क्या औचित्य जब राम के आदर्शों से ओत-प्रोत भारतीय संस्कृति को बाजारवाद व भोगवाद से निम्नतर दिखाया जा रहा है।
यह आम आदमी स्वतः करे तो उसकी अल्पबुद्धि हो सकती है। पर जब शीर्ष संस्था इसमें दखल करे तो भावी दुष्प्रभावों से बचने के उपायों का भी बंदोबस्त करवाना चाहिये। क्योंकि अचानक नये परिवर्तन आत्मसात नहीं होते जिसके चलते समाज काफी दुष्प्रभावों का साक्षी बनता है। अब जब व्यभिचार अपराध नहीं रह गया तो उस महापंडित त्रिलोक विजेता, नवग्रहों के स्वामी रहे, लक्ष्मण के गुरू रावण को जलाना क्या उचित होगा? जिसने माँ सीता की ओर कभी कुदृष्टि नहीं उठाई। आज ऐसे-ऐसे कई घृणित अपराधों से भरे अपराधी हम सबके बीच में हमारे ही समाज में कहीं न कहीं हैं अब उन्हें जलाना आज की सार्थकता है न कि रावण को। रावण का अपराध इन सब की तुलना में नगण्य है। सीता अपहरण का भी मुख्य कारण बहन का बदला था। राम, रामायण और रामचरित मानस ने सबसे जयादा दोष और पाप परनारि पे कुदृष्टि को माना है। कभी तो लगता है इन आदर्शों की अनदेखी से जल्दबाजी में धारा 497 खत्म हुआ है। खैर वो शरीर हो या देश अपने-अपने सुप्रीमो का फैसला स्वतः ही सब मान लेते हैं मानना ही पड़ता है। संविधान जो ऐसा कहता है। तो फिर अब दशहरे का क्या औचित्य? और अगर परम्परागत रूप से है तो फिर दशानन के दहन का क्या औचित्य??